रविवार, 25 अप्रैल 2021

कहानी

 

भोलाराम का जीव  

हरिशंकर परसाई

ऐसा कभी नहीं हुआ था। धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग या नरक में निवास-स्थान ‘अलॉट’ करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।

सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार थूक से पन्ने पलट कर रजिस्टर देख रहे थे। गलती पकड़ में ही नहीं आ रही थी। आखिर उन्होंने खीजकर रजिस्टर इतने जोर से बन्द किया कि मक्खी चपेटे में आ गई। उसे निकालते हुए वे बोले, “महाराजरिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना भी हुआपर यहाँ अभी तक नहीं पहुँचा।”

धर्मराज ने पूछा, “और वह दूत कहाँ है?”

“महाराजवह भी लापता है।”

इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बदहवास-सा वहाँ आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रमपरेशानी और भय के कारण और भी विकृत हो गया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, “अरेतू कहाँ रहा इतने दिनभोलाराम का जीव कहाँ है?”

यमदूत हाथ जोड़ कर बोला, “दया-निधानमैं कैसे बताऊँ कि क्या हो गयाआज तक मैंने धोखा नहीं खाया थापर भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पाँच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम की देह त्यागीतब मैंने उसे पकड़ा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की। नगर के बाहर ज्यों ही मैं उसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआत्योंही वह मेरी चंगुल से छूटकर न जाने कहाँ चला गया। इन पाँच दिनों में मैंने सारा ब्रह्माण्ड छान डालापर उसका कहीं पता नहीं चला।”

धर्मराज क्रोध से बोला, “मूर्ख ! जीवों को लाते-लाते बूढ़ा हो गया। फिर भी एक मामूली बूढ़े आदमी के जीव ने तुझे चकमा दे दिया।”

दूत ने सिर झुका कर कहा, “महाराज ! मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थीमेरे इन अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सकेपर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया।”

चित्रगुप्त ने कहा, “महाराजआजकल पृथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत बना है। लोग दोस्तों को फल भेजते हैं और उसे रास्ते में ही रेलवे वाले उड़ा लेते हैं। हौजरी के पार्सलों के मोजे रेलवे अफसर पहनते हैं। मालगाड़ी के डिब्बे के डिब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ाकर बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी तो किसी विरोधी नेमरने के बाद खराबी करने के लिए तो नहीं उड़ा दिया?”

धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, “तुम्हारी भी रिटायर होने की उमर आ गई। भोलाराम जैसे नगण्यदीन आदमी से किसी को क्या लेना-देना?”

इसी समय कहीं से घूमते-फिरते नारद मुनि वहाँ आ गए। धर्मराज को गुम-सुम बैठे देख बोले- “क्यों धर्मराज ! कैसे चिन्तित बैठे हैंक्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?”

धर्मराज ने कहा, “वह समस्या तो कब की हल हो गई मुनिवर ! नरक में पिछले सालों में बड़े गुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदारजिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनायीं। बड़े बड़े इंजीनियर भी आ गए हैंजिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैंजिन्होंने उन मजदूरों की हाजिरी भर कर पैसा हड़पाजो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गईपर एक बड़ी विकट उलझन आ गई है। भोलाराम नाम के एक आदमी की पाँच दिन पहले ही मृत्यु हो गई। उसके जीव को यह दूत यहाँ ला रहा थाकि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इस ने सारा ब्रह्माण्ड छान डालापर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगातो पाप-पुण्य का भेद ही मिट जायेगा।”

नारद ने पूछा, “उस पर इन्कमटैक्स तो बकाया नहीं थाहो सकता हैउन लोगों ने रोक लिया हो।”

चित्रगुप्त ने कहा, “इनकम होती तो टैक्स होता,……… भुखमरा था।”

 

नारद बोले, “मामला बड़ा दिलचस्प है। अच्छामुझे उसका नाम पता तो बतलाओ ! मैं पृथ्वी पर जाता हूँ।”

चित्रगुप्त ने रजिस्टर देख कर बताया, “भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर के धमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ़ कमरे टूटे-फूटे मकान में वह परिवार समेत रहता था। उसके एक स्त्री थीदो लड़के और एक लड़की। उम्र लगभग साठ साल। सरकारी नौकर थापाँच साल पहले रिटायर हो गया था।

मकान का किराया उसने एक साल से नहीं दिया था। इसलिए मकान मालिक उसे निकालना चाहता था कि इतने में भोलाराम ने संसार ही छोड़ दिया। आज पाँचवाँ दिन है। बहुत सम्भव है कि अगर वास्तविक मकान मालिक हैतो उसने भोलाराम के मरते ही उसके परिवार को निकाल दिया होगा। इसलिए आप को परिवार की तलाश में काफी घूमना पड़ेगा।”

नारद भोलाराम के नगर में पहुँच गए।

माँ बेटी के सम्मिलित क्रन्दन से ही नारद भोलाराम का मकान पहचान गये।

द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज लगाई, “नारायण! नारायण!” लड़की ने देखकर कहा- “आगे जाओ महाराज!”

नारद ने कहा, “मुझे भिक्षा नहीं चाहिए। मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछताछ करनी है। अपनी माँ को जरा बाहर भेजोबेटी !”

भोलाराम की पत्नी बाहर आयी। नारद ने कहा, “माताभोलाराम को क्या बीमारी थी?”

“क्या बताऊँगरीबी की बीमारी थी। पाँच साल हो गए पेंशन पर बैठेपर पेंशन अभी तक नहीं मिली। हर दस-पन्द्रह दिन में एक दरख्वास्त देते थेपर वहाँ से या तो जवाब नहीं आता था और आता तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पाँच सालों में सब गहने बेच कर हम लोग खा गए। फिर बर्तन बिके। अब कुछ नहीं बचा था। फाके होने लगे थे। चिन्ता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड़ दिया।”

नारद ने कहा, “क्या करोगीमाँ ? ………… उनकी इतनी ही उम्र थी।”

“ऐसा तो मत कहोमहाराज ! उम्र तो बहुत थी। पचास साठ रुपया महीना पेंशन मिलतीतो कहीं कुछ काम कर के गुजारा हो जाता। पर क्या करें पाँच साल नौकरी से बैठे हो गये और अभी तक कोई कौड़ी नहीं मिली।”

दुःख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी ही नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए और बोले, “माँ यह बताओ कि यहाँ किसी से क्या उनका विशेष प्रेम थाजिस में उन का जी लगा हो ?”

पत्नी बोली, “लगाव तो महाराजबाल बच्चों से ही होता है।”

“नहींपरिवार के बाहर भी हो सकता हैमेरा मतलब कोई स्त्री…?”

स्त्री ने गुर्राकर नारद की ओर देखा। बोली, “बको मतमहाराज साधु होकोई लुच्चे-लफंगे नहीं हो। जिंदगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा।”

नारद हँसकर बोले, “तुम्हारा यह सोचना ठीक ही है। यही भ्रम अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छामाता मैं चला।”

स्त्री ने कहा, “महाराजआप तो साधु हैंसिद्ध पुरूष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रुकी हुई पेंशन मिल जाए। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जायेगा।”

नारद को दया आ गई थी। वे कहने लगे, “साधुओं की बात कौन मानता हैमेरा यहाँ कोई मठ तो है नहीं। फिर भी मैं सरकारी दफ्तर जाऊँगा और कोशिश करूँगा।”

वहाँ से चलकर नारद सरकारी दफ़्तर पहुँचे। जहाँ पहले ही से कमरे में बैठे बाबू से उन्होंने भोलाराम के बारे में बातें कीं। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, “भोलाराम ने दरख्वास्तें तो भेजी थींपर उन पर वज़न नहीं रखा थाइसलिए कहीं उड़ गई होंगी।”

नारद ने कहा – “भाई यहाँ तो बहुत से ‘पेपरवेट’ रखे हैं। इन्हें क्यों नहीं रख दिया ?”

बाबू हँसा, “आप साधु हैंआपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरख्वास्तें ‘पेपरवेट’ से नहीं दबतीं …….. खैरआप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।”

नारद उस बाबू के पास गये। उसने तीसरे के पास भेजातीसरे ने चौथे के पासचौथे ने पांचवे के पास। जब नारद पच्चीस-तीस बाबुओं और अफ़सरों के पास घूम आएतब एक चपरासी ने कहा, “महाराज! आप क्यों इस झंझट में पड़ गये। आप अगर साल भर भी यहाँ चक्कर लगाते रहे तो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधे बड़े साहब से मिलिये। उन्हें खुश कर दिया तो अभी काम हो जायेगा।”

नारद बड़े साहब के कमरे में पहुँचे। बाहर चपरासी ऊँघ रहा थाइसलिए उन्हें किसी ने छेड़ा नहीं। बिना ‘विजिटिंग कार्ड’ के आया देखसाहब बड़े नाराज हुए। बोले, “इसे कोई मन्दिर-वन्दिर समझ लिया है क्याधड़धड़ाते चले आए चिट क्यों नहीं भेजी?”

नारद ने कहा, “कैसे भेजता ? चपरासी तो सो रहा है।”

“क्या काम है ?” साहब ने रौब से पूछा।

नारद ने भोलाराम का पेंशन-केस बतलाया।

साहब बोले, “आप हैं बैरागीदफ़्तरों के रीति-रिवाज नहीं जानते। असल में भोलाराम ने गलती की। भाई यह भी एक मन्दिर है। यहाँ भी दान करना पड़ता हैभेंट चढ़ानी पड़ती है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड़ रही हैं। उन पर वज़न रखिए।”

नारद ने सोचा कि फिर यहाँ वज़न की समस्या खड़ी हो गई। साहब बोले, “भई सरकारी पैसे का मामला है। पेंशन का केस बीसों दफ्तरों में जाता है। देर लग ही जाती है। हजारों बार एक ही बात को हजार जगह लिखना पड़ता हैतब पक्की होती है। जितनी पेंशन मिलती हैउतने कीमत की स्टेशनरी लग जाती है। हाँ जल्दी भी हो सकती हैमगर …….।” साहब रुके।

नारद ने कहा,  “मगर क्या ?”

साहब ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, “मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आपकी यह सुन्दर वीणा हैइसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लड़की गाना-बजाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूँगा। साधुओं की वीणा तो बड़ी पवित्र होती है। लड़की जल्दी संगीत सीख गईतो उसकी शादी हो जायेगी।”

नारद अपनी वीणा छिनते देखकर जरा घबराये। पर फिर संभल कर उन्होंने वीणा टेबल पर रख कर कहा, “यह लीजिये। अब जरा जल्दी उसकी पेंशन का ऑर्डर निकाल दीजिये।”

साहब ने प्रसन्नता से उन्हें कुर्सी दीवीणा को एक कोने में रखा और घण्टी बजाई। चपरासी हाजिर हुआ।

साहब ने हुक्म दिया, “बड़े बाबू से भोलाराम के केस की फ़ाइल लाओ।”

थोड़ी देर बाद चपरासी भोलाराम की सौ-डेढ़ सौ दरख्वास्तों से भरी फ़ाइल लेकर आया। उसमें पेंशन के कागजात भी थे। साहब ने फ़ाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, “क्या नाम बताया साधु जी आपने ?”

नारद समझे कि कुछ ऊँचा सुनता है। इसलिए जोर से बोले, “भोलाराम !”

सहसा फ़ाइल में से आवाज आयी, “कौन पुकार रहा है मुझेपोस्टमैन है क्या ? पेंशन का ऑर्डर आ गया ?”

साहब डरकर कुर्सी से लुढ़क गये। नारद भी चौंके। पर दूसरे ही क्षण बात समझ गए। बोले,”भोलाराम ! तुम क्या भोलाराम के जीव हो ?”

“हाँ !” आवाज आयी।”

नारद ने कहा, “मैं नारद हूँ। मैं तुम्हें लेने आया हूँ। चलोस्वर्ग में तुम्हारा इंतजार हो रहा है।”

आवाज आयी, “मुझे नहीं जाना। मैं तो पेंशन की दरख्वास्तों पर अटका हूँ। यहीं मेरा मन लगा है। मैं अपनी दरख्वास्तें छोड़कर नहीं जा सकता ………… !”

 


हरिशंकर परसाई

 

1 टिप्पणी: