तथ्यों
एवं कल्पना का सुंदर मिश्रण
‘किसकी परछाई?’
डॉ. घनश्याम बादल
रवीना
प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित, अमेजॉन पर उपलब्ध
उपन्यासकार मनोज पाण्डेय ‘विवेक’ का
उपन्यास ‘किसकी परछाई’ “एक खोई हुई
पहचान,एक अनसुलझा रहस्य” पहली दृष्टि
से देखने पर ऐतिहासिकता का पुट लिए हुए दिखाई देता है । आवरण पृष्ठ इस तथ्य की
पुष्टि करता है तो 184 पृष्ठों और 15 अध्यायों
में सिमटा कथानक बांधकर रखने में कामयाब है।
उपन्यासकार
ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के अनसुलझे प्रकरण को खंगालने के तथ्य परक
एवं काल्पनिक सम्मिश्रण को सहज और सरल भाषा में प्रस्तुत किया है । हालांकि विवाद
से बचने के लिए लेखक ने स्वयं इस बात की घोषणा भी की है कि इस उपन्यास को ऐतिहासिक
तथ्यों पर आधारित न माना जाए लेकिन जिस तरह उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की
फौज आई एन ए से जुड़ी बातें लिखी हैं और उनके तथा जापानियों के बीच अविश्वास,
सैनिकों के संघर्ष, अंग्रेजों के डर और नेताजी
के प्रति आमजन का लगाव तथा उनकी मदद के जज्बे की बात को उकेरा है वह प्रभावशाली बन
पड़ा है ।
जासूसी
उपन्यास जैसे कथानक को सहज व साहित्यिक शैली में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया
है जिसमें नेताजी के हम शक्ल प्रणव मंडल नाम के पात्र के माध्यम से ‘गुमनामी बाबा’ की कहानी भी जोड़ी गई है तथा नेताजी
के निकट के असली पात्रों को भी अपने तरीके से लिया गया है। साथ ही साथ उनकी मृत्यु पर गठित किए गए अयोगों की रिपोर्ट, तरीक़े एवं नीयत पर भी लेखक ने शक की सुई अलग-अलग पात्रों के माध्यम से
घुमाई है ।
शुरू में ऐसा लगता है कि लेखक कुछ नया रहस्य उद्घाटित करना चाहता है लेकिन
आखिर में वह इस ज़िम्मेदारी से साफ बचकर निकल गया है । नेताजी के हमशक्ल प्रणव
मंडल के मेमोरी लॉस का सहारा लेकर उपन्यासकार ने इस
अनसुलझे रहस्य को अनसुलझा ही छोड़ दिया है । कथानक में अंडमान निकोबार द्वीप समूह
से लेकर बंगाल, बर्मा, रंगून सिंगापुर
और जापान तक के दृश्य सजीव बन पड़े हैं । कई धर्मशालाओं, रेलगाड़ियों
, बंदरगाहों , एवं बाजारों का वर्णन
पुनरावृत्ति के बावजूद पाठक को बांधे रखता है। जिस तरह से लेखक ने ‘इमेजरी’ का प्रयोग किया है वह रोचक बन पड़ा है और
स्थान या यात्रा के बिंदु दर बिंदु वर्णन के बावजूद कहीं भी उबाऊ नहीं लगता।
छपाई साफ सुथरी एवं प्रूफ्र रीडिंग अच्छी है कहीं -कहीं कुछ अशुद्धियाँ रह
गईं हैं , मगर न के बराबर। उपन्यास के पात्रों का चयन,
उनका वर्णन, बोलने का ढंग, रहन-सहन और वार्तालाप सहज बन पड़ा है । जिस तरह उपन्यास का केंद्रीय पात्र
प्रणव मंडल नेताजी की धरोहर 78 लाख के खजाने को लिए घूमता है
और उसे सही हाथों में सौंपने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाता है ईमानदारी एवं
निष्ठा का परिचय देता है उससे उसका प्रभा मंडल अधिक चमकदार हो गया है लेकिन जैसे
तत्कालीन सरकार उसके पत्र भेजने के बावजूद कोई रुचि नहीं दिखाती वह तत्कालीन
राजनीतिक परिस्थितियों को भी इंगित करता है।
गुमनामी
बाबा की मृत्यु के बाद भी उस अमानत का क्या होता है यह रहस्य भी अंत तक अनसुलझा ही
रह गया है जो ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है।
अस्तु,
एक बार शुरू करके उपन्यास को अंत तक आराम से पढ़ा जा सकता है । भाषा,
कथानक, शैली, मुद्रण और
मूल्य भी बाँधे रखने लायक है । कुल मिलाकर ‘किसकी परछाई’
खरीद कर पढ़े जाने लायक उपन्यास है।
समीक्षित कृति :
‘किसकी परछाई ?’
(एक खोई हुई पहचान, एक अनसुलझा रहस्य । )
उपन्यासकार: मनोज पाण्डेय विवेक
प्रकाशक: रवीना प्रकाशन,
दिल्ली
मूल्य :
₹399.00
पृष्ठ संख्या 184,
सॉफ्ट बाउंड कवर।
समीक्षक: डॉ घनश्याम बादल
डॉ. घनश्याम बादल
215,
पुष्परचना कुंज,
गोविंद
नगर पूर्वाबली
रुड़की
- उत्तराखंड - 247667



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