बुधवार, 31 दिसंबर 2025

पुस्तक समीक्षा

भारतीय भाषा दिवस का जादू फैलाने में सक्षम ‘जादूगर’

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

भारतीय भाषा दिवस के उपलक्ष्य में अगर यह प्रश्न उठाया जाए कि भाषा की आवश्यकता सबसे अधिक किसे है? तो उत्तर यही होगा कि मनुष्य को अपनी बाल्यावस्था से ही सबसे अधिक भाषा की आवश्यकता रहती है। बचपन में ही जैसी भाषा बच्चा सीख लेता है उसका प्रभाव जीवनपर्यंत तक उस पर रहता है। इसलिए आवश्यक है कि बच्चा अच्छी भाषा सुने, सीखे, लिखे, बोले। यह तभी संभव है जब बचपन से ही सुसाहित्य के साथ जुड़ जाए। इस विषय पर तमिल कवि और स्वतन्त्रता सेनानी सुब्रमण्य भारती ने काफी सोच-विचार किया था। सुब्रमण्य भारती ने बच्चों को भाषा के साथ जोड़ने के लिए ‘बालभारत’ नामक पत्रिका का भी संपादन किया था। उन्होंने सबसे पहले जटिल तमिल से हटकर सरल शब्दों और लय का प्रयोग करके बच्चों को सामाजिक संदेश, शिक्षा और साहित्य के माध्यम से देने का प्रयास किया। इसी कारण से शिक्षा मंत्रालय ने 11 दिसंबर जो कि सुब्रमण्य भारती का जन्मदिवस है उसे “भारतीय भाषा दिवस” के रूप में मनाने का निर्णय लिया जिससे कि भारत की भाषाई विविधता और सांस्कृतिक विरासत को सम्मान मिले। 2025 में जब सुब्रमण्य भारती की 143वीं जन्मशती मनाई जा रही है। उस समय हैदराबाद निवासी साहित्यकार के सद्य:प्रकाशित बाल उपन्यास ‘जादूगर’ की जानकारी भारत के नन्हें-मुन्नों को  मिलनी चाहिए। यह उपन्यास उन्हीं के लिए तो लिखा गया है। मोबाइल के  बनावटी कार्टूनों के स्थान पर सुंदर चित्रों से पुस्तक को सजाया गया है।


आजकल तो किसी भी प्रकार की घटना या वाक्य से बाल साहित्य प्रारंभ हो जाता है। लेकिन, लेखक ने पुरानी शैली में ही मतलब, ‘एक समय की बात है’ उपन्यास को प्रारंभ किया है। साथ ही वे भूले नहीं कि बच्चे अपने आप में खुशियों का ख़जाना होते हैं और उनको किसी भी घटना का अंत सुखांतकी में ही देखना पसंद होता है। भोला नामक व्यक्ति के स्वप्न दर्शन के द्वारा उपन्यास सस्पेंस के साथ शुरू हुआ है।  राजकुमार-राजकुमारी के विवाह और दुर्जन राजा के सज्जन बन जाने के सुख के साथ उपन्यास का अंत हुआ है। सस्पेंस से सुखांतकी की इस यात्रा के बीच में लेखक ने ‘प्राण जाए, पर वचन न जाए’ के रामायणकालीन नैतिक मूल्य को बच्चों के भीतर चंद्रनगरी के राजा चंद्रभान के कार्यों के द्वारा स्थापित किया है। राजकुमारी के द्वारा पिता के वचन को मान देते हुए दिखाकर माता-पिता को केवल ‘टेकन फ़ॉर ग्रांटेड’ नहीं मानना चाहिए। अभिभावक के प्रति बच्चों के भी कुछ कर्तव्य होते हैं। बढ़ते हुए वृद्धाश्रमों के दौर में देश की भावी पीढ़ी को यह शिक्षा केवल अच्छी भाषा में लिखा गया अच्छा साहित्य ही दे सकता है। विश्वास करना अच्छी बात है। किन्तु अंधविश्वास, सावधान! राजा विराटचंद्र ने व्यापारी का भेष बनाकर आए हुए दुनिचंद पर अंधविश्वास किया और फल केवल उन्हें ही नहीं उनके परिवार और जनता को भी भुगतना पड़ा।  आज की पीढ़ी जब कई बार सीमाहीन होकर, अंधविश्वासी होकर मर्यादा की बेड़ियाँ तोड़ती दृष्टिगोचर हो रही है। ऐसे में, उनके हाथ में ‘जादूगर’ पुस्तक की प्रति को रख देना अनुचित नहीं होगा। गलती मनुष्य से होती है, यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। मनुष्य अपनी गलती को माने और उसे सुधारे यह बहुत आवश्यक है। ‘कैकेयी का पश्चाताप’ मैथिलीशरण गुप्त ने दिखाया था। रवि वैद  ने कपटी राजा दुनिचंद का हृदय परिवर्तित होते हुए दिखाकर ‘मानवता विजयिनी होती है’ इस उक्ति को प्रमाणित करते हुए कहीं न कहीं सुब्रमण्य भारती  के लक्ष्य को कि भाषा के द्वारा, साहित्य के द्वारा संस्कार आरोपित हो, विशेष रूप से बच्चों में मूर्त रूप देने का ही प्रयास किया है। 

जादूगर

रवि वैद

बाल उपन्यास

वनिका पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली- 110018

प्रथम संस्कारण-2025

मूल्य-160/-

ISBN- 978-93-49084-97-1

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डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

हैदराबाद

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