यादें
श्वेता कंडुलना
भीड़ इतनी है मगर
कोई अपना न लगे
है नहीं यहाँ कोई शख्स
जिसे देखकर अपना जहाँ
पूरा सा लगे...
अपनी मिट्टी- दी खुशबू की महक,
हर पल मेरी साँसों में महकती है
कोई नहीं मेरा यहाँ अपना
यह बात हर पल मुझे सताती है
रोकूँ अपने आँसू
कि मैं कमजोर ना पडूँ
पर आखिर कब तक
मैं ये दर्द सहूँ।
हो कोई जिसके मैं,
गले लगूँ ,रोऊँ, हँसूँ
कुछ उसकी सुनूँ
कुछ अपनी बात कहूँ
स्वदेश प्रेम की तड़प
उससे मैं साझा करूँ।
गाँव की वह सुबह
जहाँ माँ मुझे जगाती,
बाबा के गुनगुनाने की धुन
सदैव मेरे कानों में गूँजती।
बस का वो सफ़र
और कुमार सानू के गीत
कालेज में टीचर्स के लेक्चर
और मेरे वो सच्चे मीत
यादों की किताब में
संजोकर रख लिए मैंने
बनाकर उनको एक
सुखमयी संगीत।
श्वेता कंडुलना
पीएच.डी. शोधार्थी
हिंदी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ विद्यानगर
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