रविवार, 31 अगस्त 2025

कविता

 

डॉ. मोहन पाण्डेय भ्रमर

1.

भादो की अँधियारी रातें

भादो की अँधियारी रातें, इन्हें काटना मुश्किल है,

फटे हुए हैं तन के अचकन, इन्हें साटना मुश्किल है।।

 

बिखर गए हैं तिनके, झोपड़ कभी बनाया था,

अरमानों की डोरी से गाँठें कभी बनाया था।

बारिश की टप-टप बूँदें हैं , इन्हें रोकना मुश्किल है

फटे हुए हैं तन के अचकन, इन्हें साटना मुश्किल है।।

 

जीवन में शतरंजी चालें, किसने यहाँ बिछाई है,

हर चौखट पर पर्द लगे हैं, किसने इसे सजायी है।

कोर कोर हैं फटे हुए, उसे निपटना मुश्किल है,

फटे हुए हैं तन के अचकन, इन्हें साटना मुश्किल है।।

 

अपने और पराए का अब कैसे पहचान करें,

धोखा और समर्पण का,अब कैसे हम भान करें।

बनते मिटते अहसासों का,भाव पलटना मुश्किल है,

फटे हुए हैं तन के अचकन, इन्हें साटना मुश्किल है।।

 ***

2.

मैं पथिक हूँ

 

जिंदगी भी हारती फिर दौडती है ,

मौन-सी पगडंडियों पर चल रहा हूँ ।

कंटकों से बिध रहे हैं पाँव मेरे ,

नित नए उपमान में मैं ढल  रहा हूँ ।।

 

थिर न हो यह लक्ष्य लम्बी है डगर ,

सृजन के बिंबित क्षणों में पल रहा हूँ ।

कौन है जो रोकता बढ़ते कदम को ,

हौसलों के साथ मैं प्रतिपल रहा हूँ।।

 

तेज हो ज्वाला लपट से बढ़ रही जब,

मैं दिशाओं में सदा अविचल रहा हूँ।

साथ ले अगणित क्षणों को प्रीति के,

नेह के बंधन में मैं हर पल रहा हूँ।।

 

वन गिरि हों या कि हो सागर भी गहरे

बीच गह्वर में सदा मैं फल रहा हूँ ,

ना किसी की राह में रोड़ा बनूँ मैं

रीत सपनों का सदा मैं कल रहा हूँ।।

 ***



डॉ. मोहन पाण्डेय ‘भ्रमर’

हाटा कुशीनगर, उत्तर प्रदेश


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