मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

सामयिक टिप्पणी

 


जहाँ गाली देना दंडनीय है!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

एक ऐसी दुनिया में, जहाँ बातचीत में तेजी से कड़वाहट और कटु शब्द शामिल हो रहे हैं, महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव ने सौहार्द और सम्मानपूर्ण संवाद को बढ़ावा देने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है। महाराष्ट्र के अहिल्यानगर जिले की नेवासा तहसील के सौंदाला गाँव का, अपशब्दों के उपयोग पर रोक लगाने और इस आदेश का उल्लंघन करने पर जुर्माना लगाने का, निर्णय न केवल स्थानीय स्तर पर बल्कि वैश्विक स्तर पर भी संवाद के गिरते स्तर पर एक गंभीर टिप्पणी है। ग्राम पंचायत ने फैसला किया है कि अगर कोई व्यक्ति अपशब्दों का इस्तेमाल करता पाया गया तो उस पर 500 रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा। निश्चय ही यह एक स्वागत योग्य कदम है, जो यह दर्शाता है कि हमें अपनी बातचीत, बहस और असहमति को व्यक्त करने के तरीकों में सांस्कृतिक बदलाव की कितनी आवश्यकता है।

अपशब्दों पर रोक लगाने का साहसिक कदम उठाने वाला यह गाँव प्रशंसा का पात्र है, क्योंकि इसने सामुदायिक सौहार्द को प्राथमिकता दी है। अपशब्दों का उपयोग न केवल भावनात्मक तनाव उत्पन्न करता है, बल्कि संघर्षों को बढ़ावा देता है और आक्रामकता को सामान्य बनाता है। इस समस्या को जड़ से समाप्त करने का यह प्रयास एक महत्वपूर्ण उदाहरण स्थापित करता है।

यह निर्णय का उद्देश्य भाषा व्यवहार पर अंकुश लगाना भर नहीं है, बल्कि जिम्मेदारी और सामुदायिक अनुशासन को बढ़ावा देना भी है। अपराधियों पर जुर्माना एक निवारक कदम के रूप में तो कार्य करेगा ही; सामुदायिक पहलों को भी आर्थिक सहायता प्रदान करेगा। सबसे अहम बात यह है कि यह एक लोकतांत्रिक सहमति का प्रतीक है, जहाँ ग्रामवासियों ने स्वेच्छा से इस आचार संहिता का पालन करना चुना है।

इसके विपरीत, अपशब्दों के उपयोग का वैश्विक परिदृश्य चिंताजनक है। विभिन्न संस्कृतियों, समाजों और मंचों पर, अश्लीलता और अपमानजनक भाषा आम बोलचाल का हिस्सा बन गई है। राजनीति, सोशल मीडिया और यहाँ तक कि सार्वजनिक जीवन में भी अपशब्दों का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। बहुत बार तो अश्लील चतुराक्षरी अंग्रेज़ी शब्दों को ‘सभ्य’ होने का प्रतीक मान लिया जाता है! जब शिक्षित और ताकतवर लोग अपमानजनक भाषा का उपयोग करते हैं, तो यह आम जनता को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है, जिससे शिष्टाचार और स्वस्थ संवाद दोनों दूषित हो जाते हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि क्रोध और घृणा ही नहीं, प्रायः प्रेम और अंतरंगता जताने के लिए भी गालियों का बेरोकटोक व्यवहार देखने को मिलता है। कहना न होगा कि ये तमाम अपशब्द कामक्रियाओं के व्यंजक होते हैं;  और अंततः महिलाओं को निशाना बनाते हैं!

सोशल मीडिया, विशेष रूप से, अपशब्दों और गाली-गलौज के लिए उर्वर भूमि बन गया है। ट्रोलिंग, नफरत भरे भाषण और अपमानजनक टिप्पणियाँ आम हैं, जो अक्सर गुमनामी की आड़ में की जाती हैं। इसका, खासकर युवाओं और संवेदनशील समूहों पर, बहुत गंभीर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ रहा है।

मनोरंजन जगत में भी, अश्लीलता को प्रामाणिकता या हास्य के रूप में महिमामंडित किया जाता है। हालाँकि, ऐसी भाषा के सामान्यीकरण से सामाजिक सौहार्द और मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

ऐसे में, महाराष्ट्र के इस गाँव का निर्णय मानसिक स्वास्थ्य के प्रति बढ़ती जागरूकता के दौर में विशेष महत्व रखता है। अपशब्द न केवल परिवारों, कार्यस्थलों और सार्वजनिक स्थानों को विषाक्त बनाते हैं, बल्कि अपमान और अलगाव के चक्र को भी बढ़ावा देते हैं। इसे रोकने का यह प्रयास यह दर्शाता है कि भाषा का उपयोग भावनाओं और संबंधों को आकार देने में कितना शक्तिशाली हो सकता है।

इसके अलावा, यह पहल भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप है, जो वाणी के महत्व को प्राथमिकता देती है। प्राचीन भारतीय दर्शन में "वाक्" (वाणी) को सृजन और विनाश दोनों का साधन माना गया है।

बेशक, यह पहल स्थानीय स्तर पर की गई है। लेकिन इसका संदेश सार्वभौमिक है। सरकारें, नीति निर्माता और वैश्विक समुदाय इस उदाहरण से प्रेरणा ले सकते हैं। शिक्षण संस्थानों में सम्मानपूर्ण संवाद की शिक्षा को शामिल किया जा सकता है, जबकि कार्यस्थलों में कठोर एंटी-अब्यूज नीतियाँ लागू की जा सकती हैं। सोशल मीडिया कंपनियों को भी अपमानजनक सामग्री के खिलाफ मजबूत कदम उठाने होंगे। व्यक्तिगत स्तर पर, हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि वह अपने शब्दों का चयन सोच-समझकर करे और सम्मानजनक वातावरण बनाए।

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

1 टिप्पणी:

  1. सुरेश चन्द्र करमरकर9 जनवरी 2025 को 7:51 pm बजे

    यदि हर तहसील का एक गांव ऐसा हो तो परिणाम अच्छाई कठोर होंगे.

    जवाब देंहटाएं