बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

खण्ड-3

3.

संत-काव्य (ज्ञानाश्रयी शाखा)

          हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल की जिस शाखा को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ज्ञानाश्रयी शाखा कहा है उसी को डॉ. रामकुमार वर्मा ने संत-काव्य कहा है । वैसे ‘संत’ और ‘भक्त’ इन दोनों में कोई मूल अंतर नहीं है । दोनों का आशय एक ही है, परंतु हिन्दी में निर्गुण उपासकों को भक्त कहने की एक रूढ़ि है । लेकिन साथ में यह भी सच है कि इस रूढ़ि  का आग्रहपूर्वक पालन भी नहीं होता । कबीर को संत कबीर और भक्त कबीर दोनों कहा जाता है । इसी तरह तुलसीदास के साथ भी संत और भक्त दोनों विशेषणों का प्रयोग चलता है ।

           कबीर ने अपने एक दोहे में संत के लक्षण इस प्रकार दिए हैं-

निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।

विषया सूँ न्यारा रहे, संतन का अंग एह ।।

दरअसल हिन्दी में संत परंपरा का वास्तविक आरंभ कबीर से माना जाता है । कारण कि हिन्दी में संत कवियों की अविच्छिन्न परंपरा कबीर से ही आरंभ होती है । उनका व्यक्तित्व इतना विराट और प्रभावशाली था कि संत परंपरा में उनके परवर्ती ही नहीं बल्कि उनके समकालीन भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहे । कबीर के समकालीन संतों में प्रमुख नाम रैदास, धर्मदास, पीपा, धन्ना, कमाल आदि नाम आते हैं और उनके बाद गुरुनानक,दादू, रज्जब, पलटूसाहब, गरीबदास, प्राणनाथ, सहजोबाई आदि संत कवियों को विशेष महत्त्व दिया जाता रहा है ।

          संत कवियों की विचारधारा सामान्यतः निजी अनुभूतियों पर टिकी हुई हैं । प्रायः सभी संत-कवि उपदेश वृत्ति के थे । उन्होंने जहाँ निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल दिया, वहीं रामनाम की महिमा का गान भी किया । गुरु को परमात्मा से बढ़कर माना । सत्संग, परोपकार, दया, क्षमा आदि का समर्थन किया वहीं धर्म के नाम पर चलने वाले तमाम आडंबरों का निर्भिकता पूर्वक विरोध भी किया ।

अपने सामाजिक सरोकारों के कारण संतकाव्य का एक विशेष महत्व है । पूरी संतकाव्य परंपरा जातपाँत के भेदभाव की घोर विरोधी है । सभी संत भक्ति के मार्ग में सहज साधना के समर्थक तथा बाह्याडंबरों और कर्मकांडों के घोर विरोधी है ।

          मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल, जिसमें संतकाव्य परंपरा की सबसे बड़ी उपलब्धि कबीर और उनकी वाणी है । “वस्तुतः संत व्यक्तित्व के सभी गुण एवं संतकाव्य की सभी मान्यताएँ पहली बार उन्हीं के काव्य के माध्यम से पूर्णतया प्रस्फुटित हुई हैं । जहाँ उसने अनिर्वचनीय ब्रह्म को वैयक्तिक रागात्मकता से अभिसिंचित किया, वहाँ माया का भी डटकर विरोध किया । इस प्रकार शुष्क एवं सैद्धांतिक, दार्शनिकों को सरस व्यावहारिक पाठ पढ़ाया । आडम्बरपूर्ण धर्म के ठेकेदारों को आडंबरहीन भाव परायण भक्ति का मूल्य बताया ।” ( बृहत् साहित्यिक निबंध, डॉ. यश गुलाटी, पृ. 352)

          वैसे तो कबीर काव्य का विषय क्षेत्र काफी विस्तृत है । अध्यात्म, ब्रह्म, आत्मा, मोक्ष, रहस्यसाधना, माया, दर्शन, योग, भक्ति भावना, सामाजिक चिंतन आदि अनेक विषयों का निरूपण उनके काव्य में हुआ है । लेकिन जब हम कबीर व उनके काव्य की प्रासंगिकता की बात करते हैं तो इस संदर्भ में कबीर का समाजदर्शन, सहज धर्म संबंधी विचार तथा भाषा, इन तीन विषयों के परिप्रेक्ष्य में वे आज ज्यादा प्रासंगिक लगते हैं ।

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