बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

खण्ड-3

5.

सूरदास : भक्ति एवं कवित्व

आचार्य  वल्लभाचार्य के शिष्य व पुष्टिमार्ग के भक्त कवि होने के नाते सूरदास ने अपने काव्य में इसी मार्ग के सिद्धांतो का प्रतिपादन किया । कृष्ण भक्ति का सरल-सहज मार्ग सूर ने अपने काव्य में दिखाया है । भक्तिकाल की सगुणधारा के यह कृष्ण भक्त अष्टछाप के प्रमुख कवि थे ।

सूरदास की भक्ति सख्य भाव की है । इस सख्य भाव के साथ-साथ सूरदास ने कृष्ण के प्रति नंद-यशोदा के वात्सल्य भाव तथा राधा और गोपियों के दाम्पत्य व माधुर्य भाव की सुंदर व्यंजना की है । असल में सूर की भक्ति का आधार ‘पुष्टि मार्ग’ है ।

सूरदास की भक्ति रागानुगा भक्ति है जिसमें कर्म कांड का स्थान नहीं है, उनकी भक्ति भावना में सिद्धांत पक्ष की अपेक्षा माधुर्य भाव की प्रधानता है । ” सूर काव्य में दार्शनिक स्वरूप को देखें तो उन्होंने वल्लभाचार्य के ‘ शुद्धाद्वैतवाद’ की मान्यताओं को ग्रहण किया । उनके पदों में दार्शनिक नीरसता के स्थान पर माधुर्य भाव से परिपूर्ण भक्ति की सरसता अधिक दिखाई पड़ती है ।

भ्रमरगीत’ तो सूर का एक अनुपम काव्य है । मूलतः विरह-काव्य होते हुए भी कवि ने इसमें दार्शनिक विचारों को भी व्यक्त किया है । यह इसलिए भी स्वाभाविक है कि इसका जन्म ही भारत के सर्वश्रेष्ठ धर्मग्रंथ ‘भागवत’ के क्रोड में हुआ ।

सूरदास का सृजन एक ऊँचे कवित्व का उत्तम उदाहरण है । सूर के कवित्व के बारे में पं.हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं- “ सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करने बैठते हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे दौड़ा करता है । उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है । संगीत के प्रवाह में कवि स्वयं बह जाता है । वह अपने को भूल जाता है । काव्य में इस तन्मयता के साथ शास्त्रीय पद्धति का निर्वाह विरल है । पद-पद पर मिलने वाले अलंकारों को देखकर भी कोई अनुमान नहीं कर सकता कि कवि जान बूझकर अलंकारों का उपयोग कर रहा है ।....... काव्यगुणों की इस विशाल वनस्थली में एक अपना सहज सौंदर्य है । वह उस रमणीय उद्यान के समान नहीं, जिसका सौंदर्य पद-पद पर माली के कृतित्व की याद दिलाया करता है, बल्कि उस अकृत्रिम वनभूमि की भाँति है जिसका रचयिता रचना में ही घुलमिल गया है ।”

संक्षेप में कृष्ण भक्ति काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि सूरदास के काव्य में वात्सल्य एवं शृंगार जैसे जीवन के महत भावों के साथ-साथ कख्य-माधुर्य भक्ति की धारा प्रवाहित है। कला पक्ष के लिहाज़ से भी उनका काव्य उत्तम कोटि का रहा है।  अतः यह कहना बिल्कुल अतिशयोक्ति नहीं – सूर काव्य भाव एवं कला का मणिकांचन संयोग है।

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