सोमवार, 30 सितंबर 2024

संपादकीय

डॉ. पूर्वा शर्मा

त्योहारों एवं विशेष दिवसों का बाहुल्य भारत वर्ष की पहचान-विशेषता है। प्रत्येक ऋतु एवं उसमें आने वाले-मनाये जाने वाले कतिपय दिन हमारे जीवन में विशेष स्थान रखते हैं। भारत में प्रत्येक छोटे-बड़े पर्व-त्योहार-दिवस के साथ कोई न कोई कहानी या भावना अवश्य जुड़ी हुई है। यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यहाँ की हवा की महक ही विशेष दिवसों-त्योहारों का आभास करवाने में समर्थ है। सितंबर माह के प्रथम सप्ताह में ‘गणपति बप्पा मोरिया’ की धुन हर गली में गूँजती रही और उसके साथ ही ‘मोदक’ की मनमोहक महक भी। गणेश चतुर्थी से लेकर अनंत चतुर्दशी तक के यह दस दिवसों को भारत के अधिकांश भाग में एक उत्सव की भाँति मनाया जाता है। ‘गणेश उत्सव’ को राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कराने में बाल गंगाधर तिलक का योगदान नहीं भुलाया जा सकता। यह त्योहार हमें एक होने और सबके साथ मिलकर सुख-दुख बाँटेने का, अपनी संस्कृति को समझने-समझाने का अवसर प्रदान करता है।

भारत वर्ष की पहचान ‘हिन्दी भाषा’ भारत में ही नहीं अपितु आज पूरे विश्वभर में अपनी छाप छोड़ चुकी है। 14 सितंबर को मनाया जाने वाला ‘हिन्दी दिवस’ हम भारतवासियों के लिए किसी उत्सव-पर्व से कम नहीं। ‘हिन्दी पर्व’ या यूँ कहिए ‘भाषा पर्व’ के रूप में यह विशेष दिवस हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है। ‘हिन्दी दिवस’ मनाने के पीछे की कहानी, ‘राजभाषा हिन्दी’ की महिमा-गरिमा से हम सभी भली-भाँति परिचित है। यह पर्व एक राष्ट्रीय पर्व है जो हमें अपनी भाषा-संस्कृति से जोड़े रखने का कार्य करता है। वैसे तो हमारे इस देश में प्रतिदिन ही हिन्दी के महत्त्व व उपयोगिता को देखा जा सकता है लेकिन 14 सितंबर के इस विशेष दिवस पर विभिन्न संस्थानों, कार्यालयों आदि में इसके निमित्त आयोजनों को देखा जा सकता है। हिन्दी के प्रयोग, हिन्दी के विकास में आने वाली चुनौतियों-बाधाओं को लेकर चिंतन के साथ-साथ चिंता प्रकट करने का यह विशेष दिन है। हिन्दी हमारी अपनी भाषा है, तो इस विशेष दिन के अवसर पर पूरे वर्षभर हिन्दी की सेवा करने का संकल्प ही सच्चे अर्थों में हिन्दी दिवस मनाना है।

भारतीय संस्कृति की एक और विशेषता है – सभी को मान-सम्मान देना। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, किसी भी धर्म-संप्रदाय-वर्ण आदि सभी के प्रति समान दृष्टि एवं उनको सम्मान देना हमारी परंपरा है। किसी भी धर्म-वर्ग अथवा पशु-पक्षियों को ही नहीं अपितु हम अपने मृतकों, अपने पूर्वजों के प्रति भी अपनी कृतज्ञता को प्रकट करने से भी पीछे नहीं हटते। वैसे तो हम पूरे वर्ष में कभी भी अपने पूर्वजों-पितरों के प्रति अपनी कृतज्ञता को ज्ञापित करते ही हैं लेकिन भारतीय संस्कृति में इस कार्य के लिए भाद्र की पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास कृष्ण पक्ष की अमावस्या (सर्व पितृ /महालया अमावस्या) तक के कुल विशेष सोलह दिन-तिथियों को तय किया गया है, इसे ‘श्राद्ध पक्ष’ कहा जाता है। ‘श्राद्ध पक्ष’ को ‘पितृ पक्ष’ भी कहा जाता है, इसके लिए एक लौकिक शब्द ‘कनागत’ भी प्रचलित है। कनागत अर्थात कन्या गत यानी सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है।

 औरंगज़ेब-शाहजहाँ की एक कथा का जिक्र यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा – इस बात से सभी भली-भाँति परिचित हैं कि औरंगज़ेब ने सत्ता के लालच में अपने भाइयों, अपने रिश्तेदारों को न केवल मौत के घाट उतार दिया बल्कि अपने पिता शाहजहाँ को जेल में बंद कर दिया था। औरंगज़ेब ने शाहजहाँ को जेल में जौ की भूसी वाली सूखी रोटी भेजी और उस सूखी रोटी के दो निवाले बड़ी मुश्किल से शाहजहाँ पानी के साथ जैसे-तैसे गटके, इसके पश्चात शाहजहाँ ने अपने पुत्र औरंगज़ेब को एक चिट्ठी लिखी, जिसमें लिखा –

तुमसे तो अहल-ए-हुंदुस अच्छे हैं

अर्थात तुमसे तो वह हिन्दू अच्छे हैं जो मरने के बाद भी अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर उन्हें तृप्त करते हैं और तुम तो अपने जीवित पिता को न खाने योग्य ऐसी सूखी रोटी भेज रहे हो।

‘श्राद्ध’ का अर्थ श्रद्धा से है। ‘श्रद्धा क्रियते इति श्राद्धम्’ – जो श्रद्धा पूर्वक ही किया जाता है। यानी अपने पितरों-पूर्वजों के प्रति आपकी सच्ची श्रद्धा ही श्राद्ध है। वैसे तो श्राद्ध पक्ष से संबंधित अनेक धार्मिक-पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं लेकिन यदि हम इस परंपरा को वैज्ञानिक अथवा तर्कपूर्ण ढंग से समझने का प्रयास करें तो हम पाएँगे कि हमारे पूर्वजों ने सोच-समझकर बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से परम्पराएँ बनाईं। इस बात को हम नकार नहीं सकते कि हमारा अस्तित्व कहीं न कहीं हमारे पूर्वजों की वजह से है और उनका डी. एन. ए. हमारे भीतर विद्यमान है। हो सकता है कि हमारे नाक-नक्श या हमारी बुद्धि, कोई कला-हुनर उनके तरह ही हो। दरअसल यह पितृपक्ष अथवा श्राद्ध पक्ष उन्हें याद करने का, उनके गुणगान करने का एक तरीका है। इस बहाने हम अपने पूर्वज जिन्हें हमने कभी नहीं देखा उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से हमारे चित्त को परम शांति प्राप्त होगी। इस तरह से श्राद्ध कार्य करते हुए जब हमारे परिवार के बच्चे आदि सभी सदस्य हमें देखेंगे तो सोचेंगे कि हमारे माता-पिता अपने दादा-दादी-अपने पूर्वजों आदि का कितना मान-सम्मान करते हैं। यह भी माना जाता है कि अपनी तीन पीढ़ियों के पूर्वजों का गुण-गान करने से हमारे कुल के गौरव में वृद्धि तो होगी ही साथ ही साथ इन परंपराओं का निर्वाह करने का उत्साह भी बढ़ेगा। विचारणीय बात यह है कि जब कोई वर्तमान में मृतक के प्रति इतना सम्मान दे रहा है तो जीवित के प्रति उनका कितना मान-सम्मान होगा।

श्राद्ध पक्ष में हव्य और कव्य को महत्त्व दिया गया है। हव्य अर्थात यज्ञ करना, इसके द्वारा यज्ञ में आहूति देने  से वातावरण शुद्ध होता है एवं कव्य यानी भोज्य पदार्थ देकर समाज को लाभान्वित करना, परोपकार करना है। यह भोज्य पदार्थ ब्राहमण के अतिरिक्त गाय-कुत्ते, कीट-पतंग-कौवे आदि को दिया जाता है। यहाँ ब्राह्मण शब्द से तात्पर्य है जो ब्रह्म ज्ञानी है, जिसमें सत्विकता है, जो विद्वान है, परोपकारी है, धार्मिक है एवं जीतेंद्रिय है। इसे भी यदि हम इस तरह से समझें कि आवश्यकतानुसार किसी भी जरुरतमन्द को कोई भी वस्तु देने अथवा भोज्य पदार्थ-प्रसाद को अपने पुरुषार्थ की कमाई से देकर परोपकार करना है। इसके अतिरिक्त पानी के साथ काले तिल लेकर तर्पण किए जाने का विधान भी मिलता है।  भारतीय संस्कृति में श्राद्ध में चावल की खीर बनाने का विधान है। अब यदि हम आयुर्वेद की दृष्टि से देखें तो खीर पित्त के शमन में सहायक है क्योंकि शरद ऋतु में पित्त बढ़ता है । शरद ऋतु को वैद्यों की माता कहा जाता है अर्थात इस समय सबसे ज्यादा रोग होने की संभावना होती है।  इस तरह देखा जाए तो इस ऋतु में खीर खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी है।

माना जाता है कि मरने के बाद जीवात्मा नया शरीर धारण कर लेती है तो फिर श्राद्ध क्यों? भोजन आदि का दान क्यों? दरअसल देखा जाए तो यह हम अपने लिए ही कर रहे हैं, यह हमारे पूर्वजों के प्रति सम्मान है अर्थात हमारा स्वयं का सम्मान है। ‘श्रद्धा चेतस संप्रसाधन’ – श्रद्धा से हमारे चित्त में परम सुख-शांति-तृप्ति मिलती है। श्राद्ध के पीछे यही उत्तम भाव है। सर्व पितृ अमावस्या का दिन श्राद्ध की सोलह तिथियों में से अंतिम तिथि मानी जाती है। इसके अगले दिन से शारदीय नवरात्र का आरंभ हो जाता है।

डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा 

 



3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर संपादकीय, हार्दिक शुभकामनाऍं।

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  2. त्यौहारों पर पहली बार संपादकीय पढ़ी।
    बधाई।

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  3. सुंदर अंक में बहुत सुंदर संपादकीय! हर्दिक बधाई पूर्वा जी।
    पत्रिका में मेरी लघुकथा 'हकीकत' को स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार!

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