गुड
मॉर्निंग
डॉ.
कुँवर दिनेश सिंह
“ओस की बूँद-सा है ज़िंदगी का सफ़र / कभी
फूल में तो कभी धूल में!” ― सुभाष व्हट्सआप पर शुभ प्रभात या
गुड मॉर्निंग के संदेश भेज रहा था। साथ ही कोई न कोई ज्ञान वाली बात भी चिपका
देता।
उसका ठेकेदारी का
काम था। दो साल पहले,
जब उसका कारोबार मंदी में चल रहा था। उन दिनों वह लगभग रोज़ ही मुझे
फ़ोन कर देता और बाज़ार बुलाता। रेस्तराँ में बैठे बातों-बातों में थोड़ी-थोड़ी देर
बाद वह अपनी कड़की की बात बोलने लगता और आख़िर में चाय-कॉफ़ी का बिल अक्सर मुझे ही
चुकाना पड़ता।
दो-तीन महीनों में
ही उसने आत्मीयता बढ़ा दी थी। मैंने उसकी हालत देख कर उसे अपने एक-दो मित्रों के
यहाँ चल रहे गृह-निर्माण सम्बन्धी कुछ काम दिला दिया, लेकिन
फिर भी उसका रोना बंद न होता। वह यही कहता, “भाई साहब,
क़र्ज़ में फँसा हुआ हूँ . . . कई जगहों पर मेरी पेमेंट्स रुकी पड़ी
हैं . . . पता नहीं पैसा कब तक रिलीज़ होगा . . . बस आप जैसे दोस्तों से मदद लेकर
गुज़ारा कर रहा हूँ।”
उसने व्हट्सआप पर
संदेश भेजा था: “ताबीज़ जैसे होते हैं कुछ लोग / बस गले लगते ही सुकून मिलता है।”
मैं संदेश सूक्ति के एक-एक शब्द को बड़े ध्यान से पढ़ता और गहन मंथन करता था। पढ़कर
मुझे लगा वह बेचारा सच में निन्यान्वे के फेर में फँसा हुआ है।
फिर एक दिन उसने
मेरे समक्ष भी पैसे की माँग रख दी। पूरे पचास हज़ार . . . मैं घबरा गया . . . मुझे
उस पर संदेह होने लगा कि पता नहीं वह पैसा लौटाएगा भी या नहीं . . .। मैंने उसे
हफ़्ता-भर तो टाला कि इतना पैसा तो अभी तो मेरे पास भी नहीं है . . . थोड़ा इंतज़ाम
करना पड़ेगा। मगर वह कहाँ हटने वाला था। उसने फिर से माँग की यह कहकर कि उसका एक
टेंडर निकलने वाला है,
उसमें औपचारिकता के लिए पचास हज़ार रुपए अर्नेस्ट मनी भरनी होगी . .
. टेंडर पास होते ही सब ठीक-ठाक हो जाएगा और वह मुझे मेरे पैसे भी छ: महीनों के
अन्दर लौटा देगा।
मैंने सुभाष को
अपनी सेविंग्ज़ में से पचास हज़ार रुपए दे दिए। उसके बाद उसका मिलना-जुलना कम होता
गया। छ: महीने बीत रहे थे। उसके व्हट्सआप संदेश आते रहते थे। इस बार उसने यह संदेश
फ़ॉर्वर्ड किया: “अगर मैं सोचूँ कि मुझे किसी की भी ज़रूरत नहीं, तो
यह मेरा अहम् है / और अगर मैं सोचूँ कि सबको मेरी ज़रूरत है, तो
यह मेरा वहम है; / सच तो यह है: हम तुम से, तुम हम से, हम सब एक दूजे से हैं, / यही जीवन का सच है।”
मुझे भी बात ठीक
लगी कि वाक़ई सहजीविता ही जीवन का आधार है। लेकिन मुझे अब चिन्ता होने लगी थी। छ:
महीने बीत चुके थे,
मगर उसने मेरे पैसे नहीं लौटाए थे। अब वह बाज़ार में भी कहीं नज़र
नहीं आता था। मैं कभी उसे फ़ोन करता तो वह कहता कि वह काम में व्यस्त है . . . फ़्री
होकर मुझे वापिस कॉल करेगा . . . मगर कोई कॉल नहीं आती। उधर व्हट्सआप पर अभी शुभ
प्रभात और ज्ञान-भरे संदेशों का सिलसिला जारी था: “ख़ुशी का
सिर्फ़ एक उपाय: / पुरानी बातों को / ज़्यादा न सोचा जाए।” मैं शब्दों में उलझा जा
रहा था।
मैंने एक दिन फ़ोन
करके उसे याद दिलाई कि छ: महीने क्या अब तो साल होने वाला है . . .” मगर उसने पैसे
नहीं लौटाए। जल्द ही लौटाएगा, बस फिर यही वायदा किया। अब संदेश भी
कुछ अजीब-से आने लगे थे: “जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता, उन्हें
मुआफ़ कर दो, / और जिन्हें मुआफ़ नहीं कर सकते, उन्हें भूल जाओ!”
मेरी चिन्ता और बढ़
गई थी। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उससे पैसे वापिस कैसे लिए जाएँ। फिर एक दिन
उसने गूड मॉर्निंग संदेश चिपकाया, तो मैंने उसे लिख डाला: “सुभाष जी,
अब डेढ़ साल बीत गए हैं . . . आपका काम भी ठीक चल पड़ा है . . . अब तो
आप इतने व्यस्त हो गए हो कि अब हमारे साथ एक प्याली चाय पीने का वक्त भी नहीं है आपके पास . . . कृपया
अब तो मेरे पैसे लौटा दीजिए . . . इस समय मुझे बहुत ज़रूरत है . . .” उसने फिर यही
लिखा कि बस शीघ्र ही लौटा देगा।
अब सुभाष के
सुभाषित भी हफ़्ते में एक-आध बार ही आता था। मैं कुछ दिन उसे सुप्रभात लिखता रहा, मगर
वह कभी-कभार ही उत्तर देता।
फिर एक दिन उसने
यह अटपटा-सा संदेश चिपका दिया: “कितना अजीब है ना? साहब चौरासी लाख
जीवों में एक मानव ही धन कमाता है। / अन्य कोई जीव कभी भूखा नहीं मरा और मानव का
कभी पेट नहीं भरा!”
मैं उसकी मंशा समझ गया था। वह पैसा लौटाने वाला नहीं था। अपना आक्रोश ज्ञापित करने के लिए मैंने उसे ब्लॉक कर दिया।
डॉ.
कुँवर दिनेश सिंह
कवि, कथाकार,
समीक्षक, अनुवादक
प्राध्यापक
(अँग्रेज़ी) एवं सम्पादक: हाइफ़न
#३, सिसिल क्वार्टर्ज़, चौड़ा
मैदान,
शिमला:
171004, हिमाचल प्रदेश
व्यवहारिक होना बड़ा मुश्किल है
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी।सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएं