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साहित्यकारों और विचारकों की दृष्टि में श्रीराम
प्रो. पुनीत बिसारिया
राम आदर्श के सुमेरु हैं, भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण के जाज्वल्यमान
प्रतीक हैं, मर्यादित
आचरण के विग्रह हैं तथा धर्माचरण के संवाहक हैं। यही
कारण है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की पावन जीवनगाथा देशकाल का अतिक्रमण
करते हुए देश देशान्तर तक युगों-युगों से व्याप्त होकर मानवता को यथेष्ट आचरण की
सीख दे रही है। अस्तु, स्वाभाविक है कि राम कथा के विविध दृष्टान्तों का देश-विदेश के विचारकों एवं
कवि-लेखकों पर भी प्रभाव पड़े। इंडोनेशिया,
थाईलैंड, रूस, मॉरीशस, कंबोडिया,
फिजी, सूरीनाम, श्रीलंका आदि देशों में राम कथा की व्याप्ति तथा उनके
आदर्शों से प्रेरणा लेने का भाव राम को वैश्विक फलक पर भारतीय संस्कृति के प्रतीक
के रूप में सुस्थापित करता है। स्पष्ट
है कि राम का नाम राम में रमण का हेतु है क्योंकि राम नाम रूपी सागर में जाने के
पश्चात बाहर निकलने की अपेक्षा तरने की भावना बलवती हो जाती है और इस प्रकार
मनुष्य का मन राम में रमकर अतीन्द्रिय सुखों की प्राप्ति करता है।
यदि भारतीय वाङ्मय में राम के स्वरूप का निदर्शन करें तो
रामकथा की प्राचीनतम उपस्थिति ‘ऋग्वेद’ के दशम मण्डल के तृतीय सूक्त के तृतीय
मंत्र
‘भद्रोभद्रयासचमानआगात्स्वसारंजारोअभ्येतिपश्चात्।
प्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभिराममस्थात्॥’
में राम का अर्थ रात्रि के अंधकार में प्रकाश के संदर्भ में
प्रयुक्त हुआ है, जबकि ऋग्वेद के ही दशम मण्डल के तिरानवेवें सूक्त के चौदहवें मंत्र
‘प्रतद्दु:शीमेपृथवानेवेनेप्ररामेवोचमसुरे मघवत्सु।
येयुक्त्वायपञ्चशतास्मयुपथाविश्राव्येषाम्॥’
में राम का अभिप्राय ‘रमे हुए’ लिया गया है। ऋग्वेद
के चतुर्थ मण्डल के सत्तावनवें मंत्र
“सीतेवन्दामहेत्वर्याचीसुमगे भव।
यथानःसुमनाअसोयथानःसुफजाभुवः॥”
में सीता की स्तुति वर्णित है। दूसरी
महत्त्वपूर्ण बात यह कि वेदों में अनेक स्थलों पर सीता वर्णिक छंद का प्रयोग हुआ
है। ‘अथर्ववेद’
की शाखा के अंतर्गत ‘रामरहस्य उपनिषद’, ‘श्रीरामपूर्वतापनीयोपनिषद’ तथा ‘श्रीरामउत्तरतापनीयोपनिषद’
में भगवान राम की आराधना की विविध विधियों का उल्लेख मिलता है। इसके
अतिरिक्त ‘वाजसिनेय संहिता’, ‘अगस्त्य संहिता’, ‘बृहद्ब्रह्मसंहिता’, ‘याज्ञवल्क्य संहिता’ आदि पुरातन ग्रंथों में भगवान श्रीराम
के उल्लेख मिलते हैं। ‘श्रीयोगवाशिष्ठमहारामायण’ में महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम की
कथा वर्णित की है, जो वाल्मीकि रामायण से पूर्व लिखित ग्रंथ है और जिसमें वशिष्ठ-राम वार्ता है। ‘श्रीमद्भागवत
पुराण’ के नवम स्कन्ध के दशम अध्याय के 56 श्लोकों में राम की सम्पूर्ण कथा अति संक्षिप्त रूप में
वर्णित है। ‘पद्मपुराण’ के उत्तर खंड एवं पाताल खंड में राम की कथा का
वर्णन है। इसके अतिरिक्त ‘हरिवंश पुराण’,
‘वायु पुराण’,
‘विष्णु पुराण’,
‘कूर्म पुराण’’,
‘अग्नि पुराण’,
‘स्कन्द पुराण’,
‘ब्रह्म पुराण’,
‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’,
‘नृसिंह पुराण’,
‘विष्णुधर्मोत्तरपुराण’,
‘शिवमहापुराण’,
‘श्रीमद्देवीभागवतपुराण’ और
‘कालिका पुराण’ में भी रामकथा न्यूनाधिक रूप में वर्णित है। वाल्मीकि
विरचित ‘रामायण’ (शोक रामायण तथा आनंद रामायण) से रामकथा का विस्तृत वर्णन मिलना
प्रारंभ हो जाता है।
हिंदी साहित्य में
जैन और बौद्ध साहित्य से राम कथा का श्रीगणेश होता है। जैन
साहित्य में रामकथा के अंतर्गत विमल सूरि कृत ‘पउम चरिउ’,
गुणभद्र कृत ‘उत्तर पुराण’, भुवनतुंग सूरि कृत ‘रामचरियम’ और ‘सियाचरियम’,
हरिषेण कृत ‘सीता कथानकम’ और ‘कथाकोष मर रामायण कथानकम’,
पुष्पदन्त कृत ‘महापुराण’ तथा रविषेण कृत ‘जैन पद्म पुराण’
प्रमुख हैं। बौद्ध साहित्य में ‘दशरथ जातक’,
‘अनामर्क जातक’, ‘वेशांतर’
तथा ‘जयद्दिशा’ में रामकथा का भव्य वर्णन हुआ है।
उर्दू, जो हिंदी की ही एक उपभाषा है, में मुंशी जगन्नाथ खुशतार कृत ‘उर्दू रामायण’,
नवल सिंह कायस्थ कृत “उर्दू रामायण’,
द्वारका प्रसाद उफुक लखनवी कृत ‘रामायण यक काफिया’,
पंडित ब्रजनारायण ‘चकबस्त’ की ‘रामायण’,
महात्मा शिवव्रत लाल द्वारा उर्दू में अनूदित ‘रामचरितमानस’,
मौलवी बादशाह हुसैन राणा लखनवी कृत ‘उर्दू रामायण’ और अभी
हाल ही में कानपुर की विदुषी डॉ. माहे तलत सिद्दीकी द्वारा उर्दू में अनूदित
‘रामायण’ प्रमुख हैं।
हिन्दी में नाभा दास के गुरु माधुर्य भाव के प्रवर्तक अग्रदास
कृत ‘ध्यान मंजरी’ और ‘राम भजन मंजरी’, ईश्वरदास कृत अवधी में विरचित ‘रामजन्म’,
‘अंगद पैज’ एवं ‘भरत विलाप’ तथा
नाभादास कृत ‘अष्टयाम’ रामकथा पर आधारित प्रारम्भिक ग्रंथ हैं।
गुरु
नानक ने मदीना की यात्रा करते हुए वहाँ जाकर पीर बहाव को अपना परिचय देते हुए कहा
था कि मैं उन श्रीराम का वंशज हूँ, जिन्होंने रघु वंश में जन्म लिया और जिनके लव और कुश दो
पुत्र थे और जो युगों में अवतार लेते रहते हैं–
सूरज कुल ते रघु भया, रघवंस होआ राम ।
राम चन्द को दोई सुत, लवी कुसू तिह नाम ।
एह हमाते बड़े हैं, जुगह जुगह अवतार ।
इन्हीं के घर उपजू नानक कल अवतार ।।
कबीर के दीक्षा गुरु रामानंद ने उत्तर भारत में रामभक्ति की
भाव विह्वल मंदाकिनी प्रवाहित की और ‘वैष्णव मताब्ज भास्कर’,
‘श्रीरामार्चन पद्धति’ तथा ‘राम
रक्षास्तोत्र’ जैसे ग्रंथ लिखे। उन्होंने
रामावत संप्रदाय का प्रवर्तन किया। इस
संप्रदाय में जाति धर्म के बंधन नहीं थे, इसीलिए इस संप्रदाय में स्त्री अवर्ण,
सवर्ण, मुसलमान आदि सभी दीक्षित हुए। इस
संप्रदाय का मंत्र था- रं रामाय नमः। कालांतर
में कृष्णदास पयहारी ने रामावत संप्रदाय की गद्दी गलता जी,
राजस्थान में स्थापित की।
संत कबीर को निर्गुण भक्ति परंपरा के कवि के रूप में सीमित
कर उनकी रामभक्ति के साथ अन्याय किया जाता रहा है, जबकि वे राम के सगुण स्वरूप को भी महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वस्तुतः
संत कबीर के राम निर्गुण निराकार हैं तो सगुण साकार भी। इसीलिए
वे चार प्रकार के राम का वर्णन करते हुए कहते हैं-
चार राम हैं जगत में, तीन राम व्यवहार।
चौथ राम सो सार है, ताका करो विचार।।
एक राम दसरथ घर डोलै, एक राम घट घट में बोलै,
एक राम का सकल पसारा, एक
राम है सबसे न्यारा।। ’
गोस्वामी
तुलसीदास प्रणीत ‘रामचरितमानस’ से सामान्य जन में रामकथा की जो अबाध मंदाकिनी
प्रवाहित हुई, उसने
सम्पूर्ण राम भक्ति को जन-जन का कंठहार ग्रंथ उपलब्ध कराने का कार्य किया। इसके
अतिरिक्त उन्होंने ‘कवितावली’, ‘विनयपत्रिका’, ‘रामाज्ञा प्रश्न’, ‘रामलला नहछू’, ‘बरवै रामायण’ आदि रामकथा विषयक ग्रंथों का भी प्रणयन किया। वे
‘रामचरितमानस’ में अपने आराध्य प्रभु श्रीराम के स्वरूप के विषय में व्याप्त
सगुण-निर्गुण संबंधी भ्रांति का उन्मूलन करते हुए लिखते हैं-
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।
अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें।।
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा।।
गोस्वामी जी के समकालीन ओरछा के राजकवि केशवदास कृत
‘रामचंद्रिका’ अपने उत्कृष्ट साहित्यिक प्रयोगों के कारण रामचरितमानस के बाद
सर्वाधिक लोकप्रिय हिंदी ग्रंथ के रूप में मान्य है। केशव
रामचंद्रिका में श्रीराम की वंदना करते हुए उनकी प्रशस्ति में कह उठते हैं-
पूरण पुराण अरु पुरुष पुराण परि-पूरण बतावैं न बतावैं और
उक्ति को।
दरसन देत, जिन्हें दरसन समुझैं न, ‘नेति नेति’ कहै वेद छाँड़ि आन युक्ति को।
जानि यह केशोदास अनुदिन राम राम,
रटत रहत न डरत पुनरुक्ति को।
रूप देहि अणिमाहि, गुण देहि गरिमाहि, भक्ति देहि महिमाहि, नाम देहि मुक्ति को।।
अष्टछाप के सर्वप्रमुख कवि सूरदास तथा अन्य अष्टछाप के
कवियों नन्ददास और परमानन्द दास ने ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ के नवम स्कन्ध के दशम
अध्याय के आधार पर रामकथा का वर्णन किया है। सूरदास
सखा भाव की भक्ति का प्रदर्शन करते हुए आराध्य प्रभु राम को उपालंभ देते हुए कहते
हैं कि कि आप सदा ही इतने व्यस्त रहते हैं कि मेरी प्रार्थना आपको कब सुनाऊँ?
क्या ऐसा नहीं हो सकता
कि मैं आपको अर्जी लिख कर भेज दूं और आप अपनी सुविधानुसार उसे बाँच लें-
विनती केहि विधि प्रभुहि सुनाऊँ।
महाराज रघुबीर धीर को, समय ना कबहुं पाऊँ।
जाम रहति जामिनी के बीतें, तिही अवसर उठि धाऊँ।
सकुच होत सुकुमार नींद तें, कैसे प्रभुहि जगाऊँ।
एक उपाय करौ कमलापति, कहौ तो कहि समझाऊँ।
पतित उधारण ‘सूर’ नाम प्रभु लिखि कागद पहुँचाऊँ।
अष्टछाप के दूसरे सबसे महत्त्वपूर्ण
कवि नन्ददास राम कृष्ण की अभेदता की चर्चा करते हुए कहते हैं-
रामकृष्ण कहिए उठि भोर।
ये अवधेस धनुष कर धारे, ए ब्रज-जीवन साखनचोर॥
उनके छत्न, चँवर, सिंहासन, भरत, सत्रुघन, लछमन
जोर।
इनके लकुट, मुकुट, पीताम्बर, नित गायन संग नंदकिसोर॥
उन सागर में सिला तराई, इन राख्यो गिरि नख की कोर।
'नंददास' प्रभु सब तजि भजिये, जैसे निरतत चंद-चकोर॥
इसी प्रकार अष्टछाप के एक अन्य
महत्त्वपूर्ण कवि परमानन्द दास जी भी राम कृष्ण को एक मानते हुए कहते हैं-
हमारे मदन गोपाल हैं राम।
धनुषबान विमल वेनुकर पीत बसन और रतन धन स्याम॥
अपनो भुज जिन जल निधि बांध्यो रासरच्यौ जिन कोटिक काम।
दस सिर हति जिन असुर संघारे गोवर्धन राख्यौ कर वाम॥
वे रघुवर यह जदुवर मोहन लीला ललित विमल बहुनाम॥
संत रविदास उपाख्य रैदास कर्म फल से
राम को प्राप्त करने की बात करते हुए कहते हैं-
जिह्वा सों ओंकार जप, हत्थन सों कर कार।
राम मिलिहि घर आइ कर, कहि रैदास विचार॥
मीरा के राम रत्न के समान हैं,
जिन्हें उनके गुरु ने कृपा करके उन्हें प्रदान किया है। वे
कहती हैं-
पायो जी मैने राम रतन धन पायो,
वस्तु अमोलिक दी मेरे सत्गुरु,
किरपा कर अपनायो।
जनम जनम की पुंजी पायी, जग मे साखोवायो
पायो जी मैने राम रतन धन पायो,
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हर्ष हर्ष जस गायो।
दशम गुरु गुरु गोविंद सिंह जी एक
अप्रतिम योद्धा होने के साथ-साथ एक महान कवि भी थे। उन्होंने
‘रामावतार’ नामक ग्रंथ का प्रणयन किया, जिसमें वे श्रीराम के अवतरण का उद्देश्य वर्णित करते हुए
लिखते हैं-
राम परम पवित्र हैं, रघुवंश के अवतार।
दुस्ट दैतन के संघारक, संत प्रान आधार।।
उपर्युक्त के अतिरिक्त प्राणचंद्र चौहान कृत ‘रामायण
महानाटक’,
सेनापति कृत ‘कवित्त रत्नाकर’,
सुंदर दास कृत ‘हनुमान चरित’, भगवंत राय खीची कृत ‘रामायण’ और ‘हनुमत पचीसी’ रामकथा के
गौरव ग्रंथ हैं। अन्य प्रमुख राम आधारित काव्य सर्जकों में कबीर के पुत्र
कमाल,
दूलन दास, दादू, पीपा, मलूकदास, सेन भगत, छत्रसाल, ईसुरी, हरिदास निरंजनी, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, निराला (राम की शक्ति पूजा, तुलसीदास), महाकवि अवधेश (शबरी : श्रमणा के राम),
डॉ. रवींद्र शुक्ल ‘रवि’ (शत्रुघ्न चरित) समेत पाँच सौ से
अधिक कवियों तथा संतों ने अलग-अलग भाषाओं में राम तथा रामायण के दूसरे पात्रों के
बारे में काव्य ग्रंथों तथा असंख्य रामभक्त कवियों ने कविताओं की रचना की है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की प्रखर रामभक्ति का पता इस बात से चलता है कि
उन्होंने अपने प्रत्येक काव्य ग्रंथ में राम का मंगलाचरण किया है। इधर
उद्भ्रांत का त्रेता महाकाव्य हाल में काफी चर्चित रहा है।
यदि गद्य की ओर दृष्टि डालें तो आचार्य चतुरसेन ने ‘वयं
रक्षामः’ उपन्यास लिखकर रामकथा के नए संदर्भ उद्घाटित किए। इसी
प्रकार नरेंद्र कोहली ने ‘अभ्युदय रामकथा’ का प्रणयन कर रामकथा के प्रसंगों में
तार्किकता और वैज्ञानिकता का समावेशन किया। अन्य
रामकथा आधारित उपन्यासों में भगवतीशरण मिश्र का ‘पवनपुत्र’,
गुरुदत्त का त्रयी ‘अमृत मंथन’,
‘परंपरा’ और ‘अग्नि परीक्षा’,
श्री गणेश दत्त किरण का भोजपुरी उपन्यास ‘रावन उवाच’,
मृदुला सिन्हा का ‘परितप्त लंकेश्वरी’ और ‘अहल्या उवाच’,
डॉ. विनय का ‘महाबली रावण’, ए. अरविंदाक्षन का ‘राम की यात्रा’,
रामकिशोर मेहता का ‘पराजिता का आत्मकथ्य’,
डॉ ममतामयी चौधरी का ‘वैश्रवणी’,
मनोरमा रानी भारद्वाज का ‘राम आ वन रावण’,
भगवान सिंह का ‘अपने अपने राम’,
डॉ. अशोक शर्मा का ‘सीता सोचती थी’,
अनामिका का ‘तृन धरि ओट’, स्नेह ठाकुर का ‘लोकनायक राम’,
डॉ. मोहन गुप्त का ‘अराज राज’,
अशोक मिजाज का ‘श्रीराम कहानी’,
पूनम गुप्ता का ‘जल समाधि’, डॉ. यतेंद्र शर्मा का ‘शबरी : महान रामभक्त की कथा’,
मदनमोहन शर्मा ‘राही’ का ‘लंकेश्वर’,
आशुतोष राना लिखित ‘राम राज्य’,
सुशील स्वतंत्र का ‘त्रिलोकपति रावण’,
शंकर प्रसाद दीक्षित उदयन का ‘रक्षेन्द्र पतन’,
ईशान महेश का शूर्पनखा को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास ‘बिन
राम सब सून’, दिनकर
जोशी का ‘अयोध्या का रावण लंका के राम’, डॉ. डी. एस. शुक्ला का ‘श्यामल काया गोरी छाया’ और हेमू यदु
द्वारा कोरोना काल में लिखित ‘यशोदा की रामायण’ के नाम लिए जा सकते हैं। प्रो.
सुरेन्द्र दुबे का नाटक ‘उठो अहल्या’ अपने अनूठे नाट्य शिल्प के कारण अनायास हमारा
ध्यान आकृष्ट करता है।
अंग्रेजी तथा भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनूदित रचनाओं में
अमीश त्रिपाठी ने ‘इक्ष्वाकु के वंशज’, ‘वायु पुत्रों की शपथ’ और ‘सीता : मिथिला की योद्धा’ लिखकर
रामकथा को नए संदर्भ दिए। इनके
अतिरिक्त आनंद नीलकांतन का ‘वानर’ और ‘असुर’, देवदत्त पटनायक कृत ‘सीता’, अशोक के. बैंकर का ‘अयोध्या के राजकुमार’,
वोल्गा का ‘सीता की मुक्ति’, चित्रा बनर्जी दिवाकरुनी का ‘जादू का जंगल’,
कविता केन का ‘सीता की बहन’, संहिता
अरनी का ‘सीता की रामायण’, आशीष कौल का ‘रानी का नाटक’, डॉ. रमानाथ त्रिपाठी का ‘रामगाथा’ और ‘दंडकारण्य’,
शरद तंदले का ‘रावण : राजा राक्षसों का’ और अक्षय बावडा का
‘रावण’ प्रमुख हैं।
यदि रामकथा पर आधारित चिंतनपरक गद्य की ओर देखें तो पाते
हैं कि स्वामी करपात्री जी महाराज ने 'रामायण मीमांसा' की रचना करके रामगाथा को एक वैज्ञानिक आयामाधारित विवेचन
दिया। वे रामकथा के आधार पर निष्कर्ष निकालते हुए लिखते हैं-
“जैसे
स्वामी के द्वारा प्रदान की गई वस्तु का सेवक स्वामी होता है,
उसी तरह अपने कर्मों द्वारा और वैध मार्ग दाय,
जय, क्रय आदि द्वारा प्राप्त वस्तुओं का स्वामी जीव भी होता है।”
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने ‘श्रीराम चिंतन’ ग्रंथ लिखकर
श्रीरामचरितमानस को सच्चा इतिहास सिद्ध किया। वे लिखते
हैं-
“श्रीरामचरितमानस सत्य घटनाओं से पूर्ण इतिहास है,
इसमें महाकाव्य का रस भरा है, यह इसकी विशेषता है और तमाम दुखों का नाश करके परमानन्द और
परम शांति की प्राप्ति के साथ ही परात्पर श्रीभगवान के ज्ञान,
दर्शन और प्रेम को अनायास ही प्राप्त करा देना इसका सुंदर
फल है।”
अपनी बात के समर्थन में वे गोस्वामी तुलसीदास विरचित
‘रामचरितमानस’ की निम्नांकित चौपाई संदर्भित करते हैं,
जिसमें तुलसीदास जी ने स्वयं रामचरितमानस को इतिहास माना
है-
कहेउँ परम पुनीत इतिहासा,सुनत श्रवन छूटहि भव पासा।
प्रनत कल्पतरु
करुना पुंजा,
उपजइ प्रीति राम पद
कंजा।।
फादर
कामिल बुल्के ने भी वाल्मीकि रामायण के आधार पर रामकथा को इतिहास माना है। वे
लिखते हैं –
“राम वाल्मीकि कथा के मिथकीय पात्र नहीं हैं,
बल्कि इतिहास पुरुष हैं, जिनकी व्याप्ति सिर्फ भारत में ही नहीं,
बल्कि पूरी दुनिया में है। “
अन्य भारतीय विचारकों की दृष्टि से यदि रामकथा को देखें तो
पाते हैं कि रामकृष्ण परमहंस ने स्वयं को हनुमान मानकर प्रभु श्रीराम को अपना
स्वामी स्वीकार किया है। इससे
स्पष्ट है कि दक्षिणेश्वर काली के भक्त होने के बावजूद वे राम को अपना सर्वस्व
स्वीकार करते हैं और उनके आदर्शों के अनुगामी हैं।
रामकृष्ण परमहंस के अनन्य शिष्य स्वामी विवेकानंद मर्यादा
पुरुषोत्तम श्रीराम के गुणों की चर्चा करते हुए लिखते हैं-
“राम वीर युग की प्राचीन मूर्ति,
सत्य, नैतिकता, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श पिता और सबसे बढ़कर सभी आदर्शों में सर्वश्रेष्ठ आदर्श
राजा के अवतार हैं।”
इस प्रकार स्वामी जी संकेतों में आदर्श पुरुष और आदर्श राजा
की परिभाषा देकर राजा और प्रजा दोनों के आदर्श के लिए राम के चरित्र को
सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। वे
यहाँ तक कहते हैं-
“जहाँ
राम हैं,
वहाँ काम नहीं है, जहाँ काम है, वहाँ राम नहीं हैं क्योंकि रात और दिन कभी एक साथ नहीं रह
सकते।”
कवीन्द्र रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी कविता 'भास ओ चंदा’ में तमसा नदी के तट पर एक टोपावन में
विष्णुभक्त नारद और कवि वाल्मीकि के बीच वार्ता का वर्णन किया है,
जिसमें महर्षि वाल्मीकि संकोचपूर्वक नारद से पूछते हैं,
“मैं राम की जीवन कहानी कैसे लिख
सकता हूँ?
मुझे सच्चाई से भटकने का डर है।” इस पर देवर्षि नारद उत्तर
देते हैं,
“आप जो भी लिखते हैं वह सत्य है
क्योंकि सभी घटनाएं हमेशा सत्य नहीं होतीं।”
इस
प्रकार कवीन्द्र भी राम कथा को इतिहास स्वीकारते हैं।
महात्मा गाँधी पर बाल्यकाल से राम,
गोस्वामी तुलसीदास और ‘रामचरितमानस’ का प्रभाव था,
इसे स्वीकार करते हुए वे 18 मार्च, सन 1933 को ‘हरिजन’ पत्रिका में लिखते हैं-
“हालाँकि मेरी बुद्धि और हृदय ने बहुत पहले ही ईश्वर के
सर्वोच्च गुण और नाम को सत्य के रूप में जान लिया था,
मैं सत्य को राम के नाम से पहचानता हूँ। मेरे परीक्षण के
सबसे बुरे समय में, उस एक नाम ने मुझे बचाया है और अब भी बचा रहा है। यह बचपन का साथ हो सकता है,
यह वह आकर्षण हो सकता है जो तुलसीदास ने मुझ पर पैदा किया
है।”
गाँधी जी राम के आचरण को मात्र वाणी में ही नहीं वरन
व्यवहार में भी अपनाने के हिमायती थे। वे 23 जून, सन 1946 के हरिजन पत्र में लिखते हैं-
“राम
नाम दोहराना और व्यवहार में रावण के रास्ते पर चलना बेकार से भी बदतर है। यह सरासर
पाखण्ड है, कोई
स्वयं को या दुनिया को धोखा दे सकता है, लेकिन कोई सर्वशक्तिमान को धोखा नहीं दे सकता।”
प्रखर समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने राम,
कृष्ण और शिव को भारत के तीन महान स्वप्नों की संज्ञा दी है,
जिनके आदर्शों के परिपूर्ण होने से श्रेष्ठ भारत की सर्जना
की जा सकती है। भारतमाता से प्रार्थना करते हुए वे लिखते हैं-
“भारतमाता!
हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो और राम का कर्म एवं वचन दो। हमें
असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो। “
पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी प्रखर रामभक्त थे,
रामचरित मानस उनका प्रेरक ग्रंथ था। उन्होंने
स्वयं कहा था, “रामचरितमानस
तो मेरी प्रेरणा का स्रोत रहा है। जीवन की समग्रता का जो वर्णन गोस्वामी तुलसीदास
ने किया है, वैसा
विश्व-साहित्य में नहीं हुआ है। भारत का सबसे पवित्र ग्रंथ रामचरितमानस सभी के लिए
प्रेरणा स्रोत है, एक बेहतर जीवन जीने के लिए हमें रामचरितमानस से बहुत कुछ सीखने को मिलता है।”
उन्होंने लोकसभा में अपनी सरकार के विश्वास प्रस्ताव पर
अभिभाषण देते हुए कहा था, “भगवान राम ने कहा था कि मैं मृत्यु से नहीं डरता,
बदनामी और लोकापवाद से डरता हूँ। “
इस कथन से स्वयं अटल जी के व्यक्तित्व का परिचय भी मिल जाता
है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 09 नंबर, सन 2023 को मध्य प्रदेश की एक जनसभा में अपने कार्यकाल के उद्देश्य
को स्पष्टतः अभिव्यक्त करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी की एक अर्द्धाली का संदर्भ
देते हुए कहा था, ‘रामकाज कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम’, इससे उनकी शासन व्यवस्था का संचालन सूत्र स्पष्ट हो जाता है।
उन्होंने
23 अक्तूबर, सन 2022 को अयोध्या में भगवान श्रीराम के प्रतीक स्वरूप का
राज्याभिषेक करते हुए कामना की थी, “आज़ादी के इस अमृत काल में श्री भगवान राम जैसी संकल्प शक्ति
देश को नई ऊँचाई पर ले जाएगी।”
आज 528 वर्षों की सुदीर्घ प्रतीक्षा के पश्चात मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम
अपने भव्य-दिव्य मंदिर में प्रतिष्ठित हो रहे हैं, ऐसे में इन महान कवियों, लेखकों, विचारकों एवं राजनेताओं के श्रीराम विषयक उद्गार निस्संदेह
भारत को विश्व गुरु की पदवी पर स्थापित करने में सहायक होंगे,
ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। अंत
में यही कहना चाहूँगा कि हिंदी जगत में भगवान राम के चरित्र तथा उनके चरित्र
गायकों के विषय में यही अंतिम सत्य और पूर्ण नहीं है क्योंकि ‘हरि अनंत,
हरि कथा अनंता’, अस्तु, यहीं पर लेखनी को विराम देता हूँ। जय
श्रीराम।
प्रो. पुनीत बिसारिया
आचार्य एवं पूर्व अध्यक्ष-हिंदी विभाग,
बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय,
झाँसी, उत्तर प्रदेश
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