प्रेमचंद
जी की कला और उनका मनुष्यत्व
श्री
इलाचन्द्र जोशी
जब
प्रेमचंद जी ने पहले-पहल हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया था तब मैं एक स्कूली लड़का
था पर तत्कालीन हिन्दी साहित्य की सभी सामयिक बातों के सम्बन्ध में खासी जानकारी
रखता था। उन दिनों प्रेमचंद जी की कहानियाँ अक्सर ‘सरस्वती’ में निकला करती थीं। उस युग में हिन्दी में
कहानियों की जो मिट्टी खराब की जा रही थी उसे देखते हुए मेरे आश्चर्य और हर्ष का
ठिकाना न रहा। जब मैंने देखा कि अकस्मात् एक ऐसे लेखक का आविर्भाव हुआ है जिसके
भाव,
भाषा और शैली में निरालापन और चमत्कार के अतिरिक्त एक ऐसी विशेषता
वर्तमान है जो अपनी सहृदयता से बरबस पाठक के हृदय को मोह लेती है तब से मैं जिस
किसी भी पत्र में प्रेमचंद जी की कहानी छपी हुई पाता उस पर भुक्खड़ की तरह झपट
पड़ता।
शीघ्र
ही प्रेमचंद जी की कहानियों के दो संग्रह निकले- ‘नवनिधि’
और सप्तसरोज। जहाँ तक मुझे याद है, ‘नवनिधि’
की कहानियाँ अधिकांशत: ऐतिहासिक थीं। तथापि उनका विषय- निरूपण ऐसा
सुन्दर था कि लेखक का रचना-कौशल देखकर वास्तव में चकित रह जाना पड़ता था और उनमें
भावों को खूबियाँ ऐसे अच्छे ढंग से व्यक्त की गई थीं, कि कोई
भी पढ़कर मुग्ध हुए बिना न रह सकता था। मैंने इस पुस्तक को अपनी स्कूली अवस्था में
कम-से-कम बारह बार पढ़ा होगा। इसके बाद ‘सप्तसरोज’ नामक संग्रह मेरे देखने में आया। इस संग्रह ने हिन्दी के कहानी-साहित्य
में एक पूर्णत: अभिनूतन युग की सूचना दी। इसमें आधुनिक विश्व-साहित्य की कहानी-कला
के ‘टेकनिक’ के
पूर्ण प्रदर्शन के अतिरिक्त अन्तस्तल में प्रवेश करने वाली मार्मिक गहनता तथा सरल
स्पष्ट वास्तविकता के ‘बैकग्राउण्ड’ में प्रतिफलित होने वाली स्निग्ध सुन्दर सहदयता
की अपूर्व मनोहर अभिव्यंजना हृदय में एक मधुर वेदना की गुदगुदी-सी पैदा करती थी।
प्राय: बीस वर्ष पहले मैंने ‘सप्तसरोज’ की कहानियाँ पढ़ी थीं और एक ही बार उन्हें पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ था,
तथापि अभी तक उसकी कुछ कहानियाँ मेरे स्मृति- पटल में अत्यन्त उज्जवल
तथा सुस्पष्ट रूप से अंकित हैं। ‘सौत’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘पञ्च परमेश्वर’ आदि कहानियाँ
साहित्य संसार में सदा अमर होकर रहेंगी। ऐसी सुन्दर छोटी कहानियाँ हिन्दी में न उस
युग के पहले कभी लिखी गई थीं, न उसके बाद ही कोई ऐसी कहानी
मुझे पढ़ने को मिली जिनमें ‘टेकनिक’ और
सहृदयता का ऐसा सामञ्जस्य पाया जाता हो।
इसके
बाद ‘सेवासदन’ प्रकाशित हुआ। हिन्दी के उपन्यास-साहित्य में यह निर्विवाद रूप में
युगान्तरकारी रचना थी। इसमें पात्रों के सुन्दर मनोवैज्ञानिक चरित्र-चित्रण के
अतिरिक्त एक नवीन आदर्श को अवतारणा कलाकार की आन्तरिक समवेदना के साथ अभिव्यक्ति
की गई थी। इस उपन्यास ने मेरे मन में एक नई अनुभूति और अनोखी प्रेरणा उत्पन्न कर
दी।
‘सेवासदन’ प्रकाशित होने के शायद
तीन-चार वर्ष बाद ‘प्रेमाश्रम’ प्रकाशित हुआ। इस बीच साहित्य
ओर कला के सम्बन्ध में मेरे विचारों में बहुत कुछ परिवर्तन और विवर्तन हो गया था।
प्राच्य तथा पाश्चात्य कला के प्राचीन तथा नवीन भावों के अध्ययन और मनन के बाद
मेरे विचारों की धारा एक विचित्र उलटी-सीधी गति से तरंगित हो रही थी। अतएव मेरी
ऐसी मानसिक अवस्था में जब प्रेमचंद जी का प्रेमा श्रम दीर्घ छ: सौ पृष्ठव्यापी
विस्तृत तथा विशालकाय आकार में प्रकाशित होकर सामने आया तो मैं अपने ‘फेवरिट’ लेखक की इस नई कृति को अत्यन्त उत्सुकता से
पढ़ने लगा। पर मुझे खेद हुआ जब मैंने उक्त रचना अपने मन की आशाओं के अनुरूप न पाई।
इस रचना से मुझे लेखक की प्रतिभा के विराट् रूप से परिचय अवश्य हुआ, पर उसमें कला का निर्वाह मैंने अपने मन के अनुरूप न पाया। उन दिनों मेरी
रगों में कच्ची उम्र का नया खून जोश मार रहा था। ‘प्रेमाश्रम’
के सम्बन्ध में तत्कालीन साहित्यलोचकों से मेरा मतभेद होने पर मैं रह न सका और
अत्यन्त प्रबल आक्रोश के साथ परिपूर्ण शक्ति से मैं उन पर बरस पड़ा। इस पर आलोचना-प्रत्यालोचना
का जो लम्बा चक्कर चला, उससे तत्कालीन साहित्य के ऐतिहासिक
गगन में जो क्रांतिकारी बवण्डर मचा था, उससे उस युग के पाठक
भली-भाँति परिचित हैं। आज मैं अपनी उस असहनशीलता के कारण लज्जित हूँ। पर यदि
विचारपूर्वक उदार दृष्टि से देखा जाय, तो हमारे साहित्य के
उस नवीन क्रांतिकारी युग में मेरे भीतर कला-सम्बन्धी प्राच्य तथा पाश्चात्य भावों
के विचित्र सम्मिश्रण से रासायनिक क्रिया-प्रतिक्रिया ने जो तहलका मचा रखा था उसके
फलस्वरूप मेरे विचारों में उग्रता तथा असहनशीलता आनी अनिवार्य थी।
प्रेमचंद
जी की कला के सम्बन्ध में यह कड़वी धारणा मेरे मन में कुछ समय तक रही। पर मैं उनकी
प्रतिभा के बृहद रूप पर बराबर जोर देता चला आया- मैंने उसे कभी अस्वीकार नहीं
किया। 1927 में जब प्रेमचंद जी ‘माधुरी’ का सम्पादन कर रहे थे तो उनसे मैं लखनऊ में प्रथम बार मिला। उनके दर्शन
मात्र से ही मैं सहम-सा गया। उनका चमकता हुआ विस्तृत ललाट, अन्तर्भेंदिनी
तथा सुगंभीर और शान्त आँखों, मोटी भौंहें और बडी-बड़ी मूँछें
मिलकर एक ऐसे विचित्र व्यक्तित्व को व्यक्त करती थीं जो पूर्णतः भारतीय होने पर भी
अपने भावलोक के एकाकीपन में एक निराली वैदेशिक विशेषता रखता था। जहाँ तक मुझे याद
है, रवीन्द्रनाथ ने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के सम्बन्ध में
कहा था कि यद्यपि वह अपने बाल्य-जीवन में पूरे बंगाली थे और बंगालियों के प्रति
उनके मन में पूर्ण सहानुभूति थी तथापि अपने अन्तर्जीवन में वह एकदम अ-बंगाली थे और
अपने सतेज व्यक्तित्व तथा उदार सदाशय स्वभाव के कारण वे स्वजातियों से पूर्णत:
भिन्न जान पड़ते थे। प्रेमचंद जी को देखते ही मेरे मन में वही धारणा जम गई। मैंने
युक्तप्रान्त में अपेन परिचित प्रतिष्ठित मित्रों से उनमें एक विशिष्ट विभिन्नता
पाई। जार के युग में नाना कड़वे अनुभवों से निष्पेषित, प्रताड़ित
तथा प्रपीड़ित रूस के प्रतिभाशाली मनीषियों के अतल व्यापी अव्यक्त विक्षोप की सघन
गहनता उनके व्यक्त्वि में लक्षित होती थी। यदि गौर किया जाय तो प्रेमचंद जी तथा
मैक्सिम गोर्की की बाह्याकृतियों में भी एक आश्चर्यजनक साम्य दिखाई पडता है। दोनों
के फोटो उठाकर दोनों का व्यक्तित्व मिलाकर देखिये। आप हैरत में पड़ जायेंगे कि
दोनों देशों की भौगोलिक परिस्थिति, सभ्यता तथा संस्कृति में मूलत:
भिन्नता हाने पर भी दोनों देशों के आधुनिक साहित्य के दो विशिष्ट प्रतिनिधियों की
मुखाकृतियों में प्रकट होने वाले व्यक्तित्व में इतनी अधिक समानता पाई जाती है।
केवल
बाह्य समता ही नहीं, गोर्की और प्रेमचंद
जी के भीतरी व्यक्तित्व में भी कुछ कम समता नहीं पाई जाती। जिस प्रकार गोर्की ने
दलित मानवता के सुख-दु:ख की वास्तविकता अनुभव प्राप्त करके अपनी उस सच्ची सहृदयतापूर्ण
तथा संवेदनामुलक अनुभूति का अपनी क्रियात्मक रचनाओं में अत्यन्त सुन्दर रूप से
कलात्मक परिपूर्णता के साथ अभिव्यक्त किया उसी प्रकार प्रेमचंद जी ने भी भारत की पीड़ित
शोषित तथा उपेक्षित ग्रामीण जनता की आत्मा से अपनी अंतररात्मा का पूर्ण संयोग संघटित
करके उनका यथार्थ चरित्र चित्रित करके अपनी कलामयी अनुभूति का परिचय दिया है।
यद्यपि
सामयिक पत्रों में प्रेमचंद जी की कला-सम्बन्धी धारणा से मेरा मतभेद कुछ कड़वे रूप
में व्यक्त हो चुका था, पर जब मैं उनसे मिला
तो उन्होंने अपनी बातों में किसी सामान्य संकेत से भी यह बात प्रकट न होने दी कि मेरे
विचारों से मतभेद होने के कारण मेरे प्रति उनके मन में किसी प्रकार का द्वेषभाव
उत्पन्न हुआ है। प्रारम्भ में उन्होंने कुछ संकोच के साथ बात अवश्य कीं, पर कुछ ही देर बाद वह ऐसे खुले कि दोनों को ऐसा अनुभव होने लगा जैसे हम
लोगों की बड़ी पुरानी मैत्री हो। यह बात प्रेमचंद जी के हृदय की असाधारण उदारता के
कारण ही सम्भव हुईं थी। उस दिन से मेरा हृदय प्रेमचंद जी के प्रति श्रद्धा और
सम्भ्रम के भाव से झुक गया। हिन्दी के बहुसंख्यक साहित्यिकों में विचार-विभिन्नता
के कारण जो पारस्परिक असहनशीलता व्यक्तिगत रागद्वेष के रूप में अत्यन्त
संकीर्णतापूर्वक व्यक्त होती रहती है , उसका लेश भी मैंने
प्रेमचंद जी में नहीं पाया। उनके साथ घण्टे भर की बातचीत से मैं समझ गया कि हम
दोनों को कलात्मक अभिव्यक्ति की अन्तर्धाराएँ दो विभिन्न दिशाओं की ओर प्रवाहित
हुई हैं। प्रेमचंद जी वास्तविक और व्यक्त जीवन की कठोरता के भीतर आदर्शवाद के मूल
प्राण की खोज करके उसे जनता के सम्मुख रखना चाहते हैं, और
में अव्यक्त की अज्ञात माया की मोहिनी के फेर में पड़कर, वास्तविक
जीवन के अन्तराल में छिपी छायात्मिका प्रकृति के रहस्य की ओर निरुद्देश्य दौड़ा
चला जा रहा हूँ। तथापि इस कारण मैं हम दानों की मूलात्माओं के सम्पूर्ण सहयोग तथा संवेदनात्मक
अनुभूति के मार्ग में किसी प्रकार की बाधा पड़ने का कोई कारण मुझे नहीं दिखाई
दिया।
इसके
बाद प्रेमचंद जी से मैं केवल एक बार थोड़े समय क लिए मिल पाया था। पर उनके प्रति
श्रद्धा का जो भाव मेरे मन में एक बार जम गया था वह स्थिर रहा और सदा अमिट होकर
रहेगा।
जनता
प्रेमचंद जी को केवल एक ऊँचे दर्जे के कलाकार के रूप में जानती है,
पर कला के अतिरक्त उनमें मनुष्यत्व कितना अधिक था, इस बात से बहुत कम लोग परिचित हैं। अपनी रचनाओं में उन्होंने जिन
दलितात्माओं के निर्यातन का निदर्शन किया है उनके प्रति उनकी केवल मौखिक सहानुभूति
नहीं थी, बह अपनी उस सहानुभूति को अनेक बार वास्तविक जीवन
में व्यावहारिक रूप में प्रकट करके हमारे कलाकारों के लिए एक महत् आदर्श छोड़ गये
हैं। कला की मार्मिक अनुभूति का वास्तविक मूल्य यहीं पर है। उन्होंने अपने जीवन
में जिन कष्टों का अनुभव किया उसे एक तरह से पीड़ितों को यथार्थ रूप में समझने मे
सहायता पाई, और केवल समझ कर ही वह चुप नहीं रहे, बल्कि अपनी घोर आर्थिक सकंट की दशा में भी वह समय-समय पर संकटापन्न
परिस्थिति में पड़े हुए परिचित अथवा अपरिचित व्यक्तियों को यथासामर्थ्य व्यावहारिक
सहायता पहुँचाने के लिए सदा उद्यत रहते थे। हिन्दी की साहित्यिक मण्डलियों के घोर
स्वार्थपूर्ण वातावरण की संकीण मनोवृत्ति को ध्यान में रखते हुए जब मैं प्रेमचंद
जी के इस उदार मनुष्यत्व की सदाशयता पर विचार करता हूँ तो मेरे हृदय में विव्हल श्रद्धा
गदगद होकर उमड़ उठती है।
(प्रेमचंद
रचनावली-20 से साभार)
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