शनिवार, 16 जुलाई 2022

निबंध

 



हँसी

प्रेमचंद

एक प्रसिद्ध दार्शनिक का कथन है कि मनुष्य हँसने वाला प्राणी है और यह बिलकुल ठीक बात है क्योंकि श्रेणियों का विभाजन विशेषताओं पर ही आधारित होता है और हँसी मनुष्य की विशेषता है। यों तो मानव हृदय की भावनाएँ अनेक प्रकार की होती हैं मगर आनंद और शोक का स्थान इनमें सबसे प्रधान हैं। अन्य भावनाएँ इन्हीं दोनों के अंतर्गत आ जाती हैं। उदाहरण के लिए निराशा, लज्जा, दुख, क्रोध, घृणा ये सब शोक के अंतर्गत आ जायेंगे। उसी प्रकार अहंकार, वीरता, प्रेम आदि आनंद की श्रेणी में। मनुष्य का जीवन इन्हीं दो प्रतिकूल भावनाओं में विभाजित है। आनंद का प्रकट लक्षण हँसी है, शोक का रोना। हँसने और खुश रहने की इच्छा सर्वसामान्य है। रोने और शोक से हर व्यक्ति बचता है। हँसना और रोना मनुष्य के जन्मजात गुण हैं, अर्जित गुण नहीं। बच्चा पैदा होते ही रोता है और उसके थोड़े ही दिनों बाद एक ख़ामोश-सी मुस्कराहट उसके चेहरे पर दिखाई देने लगती है। अन्य भावनाएँ समझ बढ़ने के साथ-साथ पैदा होती जाती हैं।

कुछ विद्वानों ने यह पता लगाने का प्रयत्न किया है कि कुछ जानवर भी हँसने में आदमियों के साथीदार हैं। वे यह तो स्वीकार करते हैं कि जानवरों की हँसी स्वतः नहीं होती मगर जो प्रेरणाएँ मनुष्य के हृदय में हँसी उत्पन्न करती हैं उनमें किसी न किसी हद तक वह भी ज़रूर शरीक हैं। कुत्ता अपने मालिक को जब कई दिन के बाद देखता है तो दुम हिलाता हुआ उसके पास चला जाता है बल्कि उसके बदन पर चढ़ने की कोशिश करता है और एक क़िस्म की आवाज़ उसके मुँह से निकलने लगती है। जिन कुत्तों को गेंद उठा लाने की शिक्षा दी जाती है वे गेंद उठाते समय कभी-कभी खुद भी अपने पैरों से गेंद को और आगे ढकेल देते हैं। जब कई कुत्ते साथ खेलने लगते हैं तो उनकी चुहल और शरारत की कोई सीमा नहीं रहती। जिन लोगों ने इन कुत्तों के चेहरों को ध्यान से देखा है वे कहते हैं कि आँखों में एक शरारत-भरी झलक, गालों का सिकुड़ना और दाँतों का बाहर निकल आना, जो हँसी के अनिवार्य लक्षण हैं, वे सभी एक बहुत हल्की-सी शक्ल में कुत्तों के चेहरे पर भी दिखाई देने लगते हैं।  कभी-कभी कुत्ते मुर्गियों को सिर्फ़ डराने के लिए दौड़ाया करते हैं। बिल्ली एक बहुत गंभीर जानवर है मगर वह भी चूहों को खिलाते वक़्त अपनी जन्मजात हास्यप्रियता का परिचय देती हैं। और बंदरों के बारे में तो कितने ही पशु-विज्ञान के विद्वानों का विश्वास है कि वे हँसते भी हैं और मज़ाक समझते भी हैं। अगर बंदर को मुँह चिढ़ाओं तो वह कितना झल्लाता है। अगर उसे छेड़ने के लिए उसके साथ दिल्लगी करो तो वह नाराज़ हो जाता है। उसे यह पसंद नहीं कि कोई उसका मज़ाक़ उड़ाए। कहने का मतलब यह कि कुत्ते, बिल्ली, बंदर की हँसी खामोश और बेआवाज़ होती हैं मगर उनमें हँसी-दिल्लगी की चेतना होती हैं।

बच्चे की हँसी भी शुरू में बेआवाज़ और किसी क़दर जानवरों से मिलती हुई होती हैं। मगर उम्र के दूसरे महीने में उसमें फैलाव और तीसरे महीने में आवाज़ पैदा हो जाती है। तब उसे गुदगुदाओगे तो खिलखिलाता है और दूसरों को देख कर हँसता है। गुदगुदाने से हँसी क्‍यों आती है, कुछ विद्वानों ने इसकी भी व्याख्या की है। एक प्रोफ़ेसर का ख्याल है कि जब मनुष्य विकास की आरंभिक स्थिति में था उस समय माँ बच्चे के शरीर पर से मक्खियाँ उड़ाने या दूसरे कीड़े को भगाने के लिए उसी तरह हाथ फेरती थी जिस तरह आजकल गायें अपने बच्चों को चाटती हैं। इसी तरह हाथ फेरने से बच्चे को बहुत कुछ आराम मिलता है। लिहाजा आजकल भी जब नर्मी से शरीर पर हाथ फेरा जाता है तो उसी तरह इंसान को वही आराम याद आता है और वह हँसने लगता है। यह खयाल सही हो या ग़लत मगर आदमी की हँसी का विकास उसकी इंसानियत के साथ ही होता है। एक मज़ेदार बात है कि होंठ या शरीर की एक जरा-सी हरकत इंसान को घंटों हँसाती हैं।

वहशी क़ौमें भावनाओं की प्रौढ़ता की दृष्टि से बहुत कुछ बच्चों से मिलती हैं। यही कारण है कि उनको हँसी भी बच्चों की हँसी से मिलती-जुलती होती है। बच्चे कभी-कभी ख़ामखाह हँसते हैं। उनकी हँसी लाज-संकोच की परवाह नहीं करती। वहशियों की भी यही हालत है.। सभ्य लोग अपनी हँसी पर बहुत संयम करते हैं लेकिन बर्बरों में यह संयम कहाँ। वह जब हँसते हैं तो खूब खुल-कर। खूब क़हक़हे लगाते हैं, तालियाँ बजाते हैं, चूतड़ पीटने लगते हैं और नाचते हैं, यहाँ तक कि कभी-कभी उनको आँखों से आँसू बहने लगते हैं। हँसते-हँसते मर जाना इससे चाहें एक क़दम और आगे बढ़ा होता हो। कोई अपरिचित चीज़ देखकर वह खूब हँसते हैं। बोर्नियो द्वीप में एक मिशनरी को पियानो बजाते देख कर वहाँ के बर्बर निवासी हँसने लगते हैं। सभ्य लोगों की एक-एक हरकत उन बरबरों की हँसी का सामान हैं। उनके कपड़े, उनका मुँह-हाथ धोना, यह सब बातें उन्हें अजीब मालूम होती हैं और यह अजीब मालूम होना हँसी की मुख्य प्रेरणाओं में से एक है। एक बार एक हब्शी सरदार इंगलिस्तान में पहुँचा और एक कारखाने की सैर करने के लिए चला। मैनेजर ने मेहरबानी से उसे कारखाना दिखाना शुरू किया। संयोग से एक जगह मैनेजर का कोट किसी चर्खी की पकड़ में आ गया और बेचारे मैनेजर साहब कोट के साथ दो-तीन चक्कर खा गये। कर्मचारियों ने दौड़कर किसी तरह उनकी जान बचायी मगर हब्शी सरदार हँसते-हँसते लोट गया। उसने समझा कि मैनेजर साहब ने उसे तमाशा दिखाने के लिए क़लाबाज़ियाँ खायीं और इस घटना के बाद वह जब तक इंगलिस्तान में रहा उसने कई बार मैनेजर साहब से वही दिलचस्प तमाशा दिखाने का तक़ाज़ा किया। कुछ असभ्य जातियों में रईसों के दरबार में अब भी मसख़रे या विदूषक रक्‍खे जाते हैं।

पुराने ज़माने में दरबारी विदूषकों का रिवाज हिन्दुस्तान और योरप में प्रचलित था। यहाँ तक कि वे दरबार का आभूषण समझे जाते थे। उनके बगैर दरबार सूना रहता था। इस सभ्यता के युग में भी वही रिवाज एक दूसरी शकल में मौजूद है जिसे थियेटरों में देख सकते हैं। एस्किमो एक जंगली क़ौम है। उनके यहाँ रिवाज है कि जब किसी मुक़दमे का फ़ैसला होने लगता है तो दोनों विरोधी पक्ष के लोग एक-दूसरे को गंदी-गंदी गालियाँ सुनाना शुरू करते हैं। कभी-कभी पद्य-बद्ध गालियाँ दी जाती हैं। हाकिम इजलास और दूसरे तमाशाई इन तुकबंदियों पर खूब हँसते हैं और आखिरकार उसी पक्ष की विजय होती है जो गालियों की गंदगी और बेशर्मी के लिहाज़ से तमाशांइयों को ज्यादा खुश कर दे। न्याय की अच्छी कसौटी निकाली है। ऐसे देश में गालियाँ बकना निश्चय ही कानूनदानी से अच्छा और फ़ायदेमन्द घन्धा है और काश हमारे देश के कुंजड़े और भटियारे वहाँ पहुँच जायें तो यकीनन है कि उन्हें किसी अदालत में हार न हो। अभी पशु-विज्ञान के किसी पंडित ने यह छानबीन नहीं की लेकिन हँसी और निर्लज्जता में कोई कार्य-कारण संबंध अवश्य है। हिन्दुस्तान में शादी- ब्याह में, दावतों में गंदी और शर्मनाक गालियाँ गाने का रिवाज कितना बुरा मगर सब तरफ़ कितना प्रचलित और लोकप्रिय हैं। यहाँ तक कि कितने ही लोगों को गालियों के बगैर ब्याह का मज़ा ही नहीं आता और जब तक कानों में गंदी-गंदी गालियों की पुकारें नहीं आती खाने की तरफ़ तबियत नहीं झुकती।

हर एक देश या जाति का साहित्य उस देश की सर्वोतम भावनाओं और विचारों का संग्रह होता है और हालाँकि किसी जाति के साहित्य में हँसी-दिल्लगी को वह स्थान नहीं दिया जायगा जिसका उसे सर्वसाधारण में अपने प्रचलन की दृष्टि से अधिकार है और प्रेम की भावनाओं को उससे ऊँचा स्थान दिया जाता है जो एक सीमाबद्ध भावना है और जिसका प्रभाव मानव जीवन के एक विशेष अंग तक सीमित है, तब भी यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि उनका प्रभाव हर एक साहित्य पर स्पष्ट है और चूँकि हँसने-हँसाने की इच्छा हर दिल में रहती है, हास्य-कृतियाँ पसंद भी की जाती हैं। अंग्रेज़ी में शेक्सपियर का मसखरा फ़ॉल्स्टाफ़, स्पेनी लिटरेंचर का डॉन कुइक्ज़ोट और उर्दू लिटरेचर का खोजी कैसे ग़म भुला देनेवाले हैं। कितने रंज और ग़म के सताये हुए दिल उनके एहसानमंद हैं। यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं कि गद्य हो या पद्य, हँसी-दिल्लगी उसकी आत्मा है और उसके बगैर वह रूखी-सुखी और बेमज़ा रहती है।

हँसी के अनेक उद्दीपक हैं। संस्कृत में हँसी के प्रकारों, उनकी व्याख्या और उनके उद्दीपकों आदि को बड़े विशद और विस्तृत ढंग से बयान किया गया है। अंग्रजी में ऐसी विशद सैद्धान्तिक चर्चा इस विषय पर नहीं हैं। इन उद्दीपकों में विशेष ये हैं।

१--किसी चीज़ का अनोखापन जैसे बंदर का कोट-पतलून पहनना।

२—किसी अच्छी चीज़ का फ़ौरन किसी बुरी सूरत में जाहिर होना जैसे मुँह चिढ़ाना।

३--कोई शारीरिक दोष जैसे कानापन या लंगड़ाकर चलना।

४--मानव विशेषताओं में कोई असाधारण बात जैसे शेखी मारना या भोलापन।

५--किसी चीज़ का अपने साधारण रूप से अलग हटना जैसे मुंह में कालिख लगना।

६—अशिष्टता।

७--छोटी-मोटी दुर्घटनाएँ जैसे किसी का लड़खड़ाकर गिर पड़ना।

८—निर्ल्लज शब्दों का प्रयोग।

--हर तरह की अतिशयोक्ति या हद से आगे बढ़ जाना जैसे भारी-भरकम पेट या बहुत  ऊँचा क़द।

१०--गुप-चुप बातें।

११--चीज़ों की तरह आवाज़ में भी अजनबीपन, अनोखापन जैसे बेसुरा गीत।

१२--दूसरों की नक़ल करना।

१३--कोई द्वयर्थक वाक्य।

उपरोक्त वर्गीकरण को ध्यान से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि हँसी का उद्दीपन विशेषतः किन्‍हीं दो वस्तुओं के विरोध पर आधारित है। एक लड़का अपने बाप का ढीलाढाला कोट पहन लेता हैं और उसे देखते ही फ़ौरन हँसी आती है। अफ़ीमचियों की कहानियाँ हँसी का एक न चुकनेवाला खज़ाना हैं। अकबर और बीरबल के चुटकुले भी दिलों को गरमाने के लिए आज़माए हुए नुस्खे हैं और ख्वाजा बदीउज़्ज़माँ उफ़ खोजी ( खुदा की उन पर रहमत हो ! ) को तो उर्दू लिटरेचर का सबसे बड़ा शोकसंहारक कहना चाहिए। हाजी बगलोल भी उन्हीं के मुरीदों में शामिल हैं। शायरी के दोषों और त्रुटियों को सरशार ने हँसी-दिल्लगी का कैसा फड़कता हुआ लिबास पहनाया है। ख्वाज़ा साहब की गँवई बातचीत, उनका शेर पढ़ना, डींग मारना, ये सब हंसने के अक्सीर नुस्खे हैं। छन्द-शास्त्र की भूलें, स्त्रीलिंग और पुल्लिंग की ग़लतियाँ जो शायरी में ऐब समझी जाती हैं वे पढ़े-लिखे आदमियों के लिए हँसी का सामान हैं। उर्दू कवियों की सौन्दर्य की अतिशयोक्ति भी मजाक़ की हद तक जा पहुँचती है। नाभी की गहराई को अगर बरेली का कुआँ कहें तो ख़ामखाह हँसी आयेगी।

विद्वानों ने हँसी को छ श्रेणियों में विभाजित किया है :

१--होंठों ही होंठों मे मुस्कराना। २--खुलकर मुस्कराना। ३--खिल- खिलाना ४--जोर से हँसना ५--कहक़हे लगाना ६--हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाना और आँखों से आँसू बहने लगना।

इनमें पहली और दूसरी किस्मों का स्थान सबसे ऊँचा है, तीसरी और चौथी को मध्यम और पाँचवी और छठीं किस्में सबसे निकृष्ट समझी जाती हैं और उनकी गिनती अशिष्टता में होती हैं। जिस समय गालों पर हल्की-सी शिकन पड़ती है, नीचे के होंठ फैल जाते हैं, दाँत नहीं दिखाई देते हैं, आँखें चमकने लगती हैं, उसे होंठों ही होंठों में मुस्कराना कहते हैं। जिस हँसी में मूँह, गाल और आँखें फूली हुई नज़र आती हैं और दाँतों को लड़ियाँ किसी क़दर दिखाई देने लगती हैं उसे खुलकर मुस्कराना कहते हैं। खिलखिलाने की व्याख्या करने की ज़रूरत नहीं। इसमें आँख कुछ सिकुड़ जाती है। क़हक़हा लगाना अशिष्टता है, खासतौर पर बड़े-बूढ़ों के सामने ज़ोर से हँसना बुरी बात है। डाक्टरी दृष्टि से क़हक़हा तंदुरस्ती के लिए बहुत अच्छा माना गया है। इससे सीने और फेफड़ों को ताक़त पहुँचती है और तबीयत खिल उठती है। मनोविज्ञान के पंडितों का विचार है कि हँसी खुली हुई तबीयत की पहचान है और जिस आदमी के इरादे नेक न हो और जिसके हृदय को शांति और इत्मीनान हासिल न हो वह कभी खुलकर नहीं हँस सकता।

हम ऊपर लिख आये हैं कि संस्कृत साहित्य में हँसी-दिल्‍लगी के बारे में बड़ी गहरी छान-बीन के साथ विचार किया गया है। उपरोक्त विचार बड़ी हद तक उसी के हैं। अब हम कुछ हास्य-रस के संस्कृत श्लोकों का अनुवाद लिख कर इस लेख को समाप्त करेंगे। उर्दू हास्य की शैली से हम परिचित हैं, संस्कृत साहित्य के भी कुछ उदाहरण देखिए :

१-यह देखिए कुक्कुट मिश्र आए। आपने अपने गुरू से कुल पाँच दिन शिक्षा पाई। सारा वेदांत तीन दिन में पढ़ा है और न्याय को तो फूल की तरह सूँघ डाला है।

२--विष्णु शर्मा नामक किसी दुश्चरित्र विद्वान की बुराईयों की गई है--- विष्णु शर्मा हाय-हाय करके रोते और कहते थे कि मेरे जिस मस्तक पर मन्त्रों से पवित्र किया गया पानी छिड़का गया था उसी पर प्रेमिका के पवित्र हाथों ने तड़ातड़ चपत लगाई।

३--एक कोमल भावनाओं से अपरिचित ब्राह्मण अपनी प्रेमिका से कहता हैं--ऐ देवी, मेरे यह होंठ सामवेद गाते-गाते बहुत पवित्र हो गये हैं। इन्हें तुम जूठा मत करो। अगर तुमसे किसी तरह नहीं रहा जाता तो मेरे बाये कान को ही मुँह में लेकर चुबलाओ।

४---ज़बान कट नहीं जाती, सर फट नहीं जाता, तब फिर जो कुछ मुँह में आये कह डालने में हर्ज ही क्या है। निर्ल्लज व्यक्ति विद्वान बनने में आगा-पीछा क्‍यों करे।

५—दो औरतों वाले मर्द की हालत उस चूहें की सी होती है जिसके बिल में साँप है और बिल के बाहर बिल्ली।

६---दामाद दसवाँ ग्रह है। वह हमेशा टेढ़ा और तीखा रहता है, हरदम पूजा की माँग किया करता है और हमेशा कन्याराशि पर चढ़ा रहता है।

७--जैनियों का मज़ाक़ उड़ाते हुए एक लेखक कहता है कि ये लोग एकांत में भी सुन्दरी के लाल-लाल होंठों से बचते रहते हैं क्योंकि होंठ में दाँत लगने से उन्हें मांसाहार का आरोप लगने का भय हैं।

८--एक ज़िन्दादिल बुड्ढा कहता है--क्या करें सिर के बाल सफ़ेद हो गये हैं, गालों पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं, दाँत टूट गये हैं पर इन सब बातों का मुझे कुछ दुख नहीं। हाँ, जब रास्ते में मृगनयनी सुन्दरियाँ मुझे देखकर पूछती हैं, “बाबा किधर चले ?” तो उनका यह पूछना मेरे दिल पर बिजलियाँ गिरा देता है।

-        ज़माना, फरवरी १६१६

(‘विविध प्रसंग’ से साभार)

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