वाणी गूँगी हो आई
दुष्यंत कुमार व्यास
आँसू जब अधरों तक पहुँचें,नयनों की पीड़ा गाई।
कहा प्रेम का आधा अक्षर, वाणी
गूँगी हो आई।।
बाँह हो गई कमलनाल सी ,अमलतास सी देह हुई,
चंदा के आनन पर जैसे, काली
बदली ढेर हुई।
दुख की रातें काटी कितनी,करवट-करवट टीस उठी,
कितने तकिए आँसू भीगे, साँस-साँस
में रीस उठी।
अंतस में पीड़ा थी गहरी, सहज
बहे ऊपर पानी
सागर से मिलने की खातिर, हिमनद
से दौड़ी आई।।
महतारी के दिल का पत्थर, चूर-चूर
होकर बिखरा,
बाबुल की आँखों में जैसे, सोने
का सूरज निखरा।
जगमग-जगमग दीप जल रहे, आँगन में खुशियाँ
छाई।
दुख के सारे किले ढहे
, सखियों ने गारी गाई।
वर्षों तक थी बाट निहारी, सुख की अब बेला देखी,
की तैयारी घर जाने की, पी की अब पतिया पाई ।।
ढोल, नगारे ताशे, पुंगी, शहनाई की तान बड़ी,
सोने का टीका लेकर के, मामी
लेकर नेग खड़ी।
हर घर पर अक्षत भेजें है, हल्दी-कुंकुम
साथ धरे,
दिया निमंत्रण घर आने का, नज़रों
के सब दोष हरे।
माता पूजन ,हल्दी, पीठी, सारे ही व्यवहार करे।
मंदिर में गौरी पूजन को,संग पिया प्यारी
आई।।
***
दुष्यंत कुमार व्यास
रतलाम
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