‘बाबा
जी का भोग’ कहानी से गुजरते हुए…
सुशीला भूरिया
हिंदी कथा साहित्य में मुंशी प्रेमचंद का नाम
सामाजिक यथार्थवाद के अग्रदूत के रूप में सदा स्मरणीय रहेगा। उनके कथा साहित्य में
समाज के भीतर की करुणा,
नैतिकता तथा मानवीय मूल्यों की ध्वनि खुलकर सामने आती है। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम
से समाज के दबे-कुचले,
शोषित-वंचित वर्ग की आवाज
को स्वर दिया। प्रस्तुत कहानी ‘बाबा जी का भोग’ प्रेमचंद की ऐसी ही एक संक्षिप्त कहानी
है जो धर्म, श्रद्धा और गरीबी
के त्रिकोण में फंसे आम भारतीय कृषकों की करुण गाथा को व्यंग्य के माध्यम से प्रस्तुत
करती है। यह कहानी शोषण, गरीबी,
धार्मिक आस्था और सामाजिक दबाव के बीच फंसे एक साधारण ग्रामीण परिवार की संवेदनशील
झलक प्रस्तुत करती है। जो धार्मिक आडंबर और गरीब आत्मा की विवशता पर तीखा व्यंग्य करती
है।
इस कहानी में लेखक गरीबों की उस विवशता को उजागर
करते हैं, जहाँ धार्मिक आडंबर
और देवताओं के प्रति भय के कारण वे स्वयं भूखे रहकर भी साधु-संतो
की सेवा को अपना परम कर्तव्य मानते हैं। प्रेमचंद का यह व्यंग्यात्मक लेखन हमें सोचने
पर मजबूर करता है कि क्या वास्तव में साधु-संत
संन्यास की आड़ में छिपे अनेक तथाकथित ‘बाबा’ पुण्य के हकदार हैं ? प्रस्तुत कहानी
में ‘रामधन अहीर’ और उसकी ‘पत्नी’ के माध्यम
से प्रेमचंद एक ऐसे ही दारुण यथार्थ की तस्वीर खींचते हैं जहाँ भूख और आस्था
आमने-सामने खड़ी है और मनुष्य अपने भीतर की संवेदना को मरने नहीं देता भले ही पेट
खाली हो।
कहानी की शुरुआत उस दृश्य से होती है जब
रामधन और उसकी पत्नी चैत के महीने में भूख-
प्यास से जूझ रहे हैं। उनके पास अनाज भी लगभग खत्म हो चुका है। ऐसे में रामधन अहीर
के द्वार पर एक साधु (बाबाजी) आकर भिक्षा माँगता है। साधु के आने पर रामधन अपनी
स्त्री से कुछ देने को कहता है,
जबकि घर की स्थिति अत्यंत दयनीय है। स्त्री बर्तन माँजते हुए इस चिंता में डूबी है
कि आज घर में भोजन कैसे बनेगा क्योंकि अन्न का एक दाना तक घर में नहीं है। यह परिस्थिति
भारत के उस कृषक वर्ग की वास्तविक स्थिति को उजागर करती है जो धान उगाता है पर खुद
भूखा मरता है।
चैत का महीना जो सामान्यतः खेतों की
हरियाली और फसल कटाई का समय माना जाता है यहाँ विपत्ति और अंधकार का रूपक बन जाता
है और किसान के हिस्से में कुछ नहीं बचता। उपज सारी की सारी खलिहान से उठ गई। आधी महाजन
ने ले ली आधी जमींदार के लोगों ने वसूल ली। मन भर दाना निकले उतनी ही फ़सल रामधन के
हिस्से में आई। चैत माह के जाते जाते वह भी खत्म हो गई। रामधन अपने बैल भी भूसा
बेचकर छुड़ाता है, यह
किसान जीवन की विवशता कहे या कहानी की हास्यास्पद विडंबना। कहानी में प्रेमचंद
कहते हैं– “दोपहर ही को अंधकार छा गया था।”१ यह वाक्य केवल मौसम का
नहीं बल्कि किसान के जीवन में छाए निराशा और हताशा के अंधकार का संकेतक है। यहाँ
मानवीय करुणा और धार्मिक आस्था का द्वंद देखने को मिलता है। इस अंधकार में जब एक
साधु द्वार पर आकर भिक्षा मांगता है तो रामधन जैसे निर्धन व्यक्ति के मन में
धार्मिक भावनाएँ और करुणा हावी हो जाती हैं। स्वयं भूखा होते हुए भी वह साधु को
निराश नहीं करना चाहता क्योंकि उसका मन जानता है कि धर्म केवल बाह्य पूजा नहीं
बल्कि मन की सच्ची श्रद्धा और सेवा भावना है। यहाँ कहानी धार्मिक पाखंड की ही नहीं
बल्कि उस आंतरिक आस्था की बात करती है जो अभाव में भी उदारता सिखाती है। स्त्री का
भी यही द्वंद है– वह जानती है कि उनके पास साधु को देने को कुछ नहीं लेकिन फिर भी
वह साधु को खाली हाथ लौटाने में हिचकती है क्योंकि “द्वार पर साधु आ गया है,
उसे
निराश कैसे लौटायें, अपने
दिल में क्या कहेगा।”२ यह वाक्य प्रेमचंद के पात्रों की अंतर्द्धद्धात्मक
संवेदना को अभिव्यक्त करता है।
‘बाबा जी का भोग’ कहानी
की आगे की कथा को देखें तो,
बाबा के आने पर उनको देने के लिए रामधन के पास कुछ भी नहीं था बस उसके घर में आधा सेर
आटा बचा होता है जिसे उसकी पत्नी द्वारा देवताओं की पूजा के लिए बड़ी मेहनत से बचाया
गया था वही आटा कटोरे में भरकर वह साधु की झोली में डाल देता है। साधु आटा लेकर
रामधन के घर पर ही रहने की योजना बना लेता है। वह रामधन से कहता है “बच्चा अब तो
साधु आज यहीं रमेंगे। कुछ थोड़ी-सी
दाल दे, तो साधु का भोग
लग जाए।”३ संयोग से दाल घर में थी रामधन ने दाल,
नमक, उपले और पानी की
व्यवस्था साधु को करके दी। साधु ने यह सब सामग्री पाकर “बड़ी विधि से बाटियाँ बनायी,
दाल
पकायी और आलू झोली में से निकालकर भूरता बनाया। जब सब सामग्री तैयार हो गयी,
तो रामधन से बोले– बच्चा,
भगवान के भोग के लिए कौड़ी-
भर घी चाहिए। रसोई पवित्र ना होगी,
तो भोग कैसे लगेगा ?”४ साधु की इस फरमाइश पर रामधन ने घर में जो थोड़ी
सी दाल बची थी उसमें से थोड़ी निकाल कर उसे बनिये के यहाँ बेचकर घी लाकर साधु को
दिया। “साधु जी ने ठाकुर जी की पिंडी निकाली,
घंटी बजायी और भोग लगाने बैठे। खूब तन कर खाया,
फिर पेट पर हाथ फेरते हुए द्वार पर लेट गये।”५ वही रात,
साधु तो संतुष्ट होकर विश्राम करता है,
लेकिन रामधन के घर चूल्हा नहीं जलता और वे दोनों यानी रामधन और उसकी पत्नी सिर्फ दाल
पकाकर ही पीने को मजबूर होते हैं।
कहानी के अंत में
रामधन लेटे-लेटे खुद को
तसल्ली देते हुए सोचता है– “मुझसे तो यही अच्छे !” क्योंकि वे कम से कम
शांतिपूर्वक भोजन और विश्राम तो कर पाए। प्रस्तुत कहानी में बाबा जी स्वयं की भूख
या आत्मसम्मान खोने पर भी धार्मिक ढोंग में अव्वल रहते हैं। इस कहानी के माध्यम से
प्रेमचंद अंधविश्वास और धार्मिक दिखावे पर कटाक्ष करते हुए सवाल उठाते हैं कि यहाँ
गरीब को शांति और पुण्य के नाम पर खुद नुकसान उठाना पड़ता है। कहानी धर्म के नाम
पर फैलाए गए उस पाखंड की तीखी आलोचना करती है,
जहाँ साधु-सन्यासी केवल ‘श्रद्धा’
के नाम पर आमजन की मेहनत की कमाई हड़पते हैं। बाबा जी की मांगे धीरे-धीरे बढ़ती
जाती है पहले आटा,
फिर दाल और घी यह दिखाता है कि कैसे ढोंग बढ़ते लालच का ही एक रूप है।
कहानी में रामधन
एक आदर्श ग्रामीण व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। वह दयालु,
श्रद्धालु
और धार्मिक है लेकिन यही गुण उसकी व्यावहारिक विवेक-बुद्धि
को कुंठित कर देते हैं। रामधन और उसकी पत्नी की स्थिति दर्शाती है कि धार्मिक भय और
सामाजिक दबाव किस तरह गरीबों को अपनी भूख और जरूरतों को भूल जाने पर मजबूर कर देते
हैं। भले ही उनके घर में चूल्हा न जले पर उन्हें संतुष्टि है कि उन्होंने ‘बाबा जी’
को भोग लगा के प्रसन्न कर लिया। प्रस्तुत
कहानी पाठक को यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या ऐसा धर्म जिसकी कीमत इंसान की
भूख हो, वाकई धर्म है ?
‘बाबा जी का भोग’ कहानी
की भाषा और शैली की बात करें तो यहाँ प्रेमचंद की भाषा सहज लोकजीवन से जुड़ी हुई
और व्यंग्यात्मक दिखाई देती है। कथा में व्यर्थ का कोई शोर-शराबा
और कृत्रिमता नहीं।
छोटे वाक्य, लोक प्रचलित शब्द
और मर्मस्पर्शी संवाद इसे अत्यंत प्रभावशाली बनाते हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह है
कि प्रेमचंद उपदेश नहीं देते केवल एक दृश्य रचते हैं और पाठक को उसका अर्थ स्वयं
समझने का अवसर देते हैं। यह कहानी अत्यंत संक्षिप्त किंतु गहराई से भरी हुई रचना
है। इसमें प्रेमचंद ने बहुत ही सरल-सहज
लेखन शैली में हमारे समाज की दो बड़ी समस्याओं गरीबी और धार्मिक पाखंड को उजागर
किया है। साथ में महाजनों और जमींदारों द्वारा गरीब किसानों के शोषण की समस्या को भी
चित्रित किया है। यह कहानी धर्म और करुणा के वास्तविक अर्थ पर पुनर्विचार करने को मजबूर
करती है।
‘बाबा जी का भोग’
आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी प्रेमचंद के समय में थी। वर्तमान समय में भी कई
तथाकथित बाबाओं द्वारा अंधश्रद्धा, धर्म
का भय और दिखावे का धंधा जारी है। गरीब वर्ग आज भी इस भ्रम में जी रहा है कि पुण्य
करने से उसका भाग्य सुधर जाएगा,
चाहे इसके लिए उसे भूखा ही क्यों न सोना पड़े। यह कहानी सिर्फ अतीत का बयान नहीं
है बल्कि वर्तमान पर एक तीखा प्रश्नचिन्ह है।
संदर्भ
सूची:
१.
प्रेमचंद की 51 श्रेष्ठ
कहानियाँ, सं०डॉ०
लक्ष्मीकांत पांडेय,
पृष्ठ संख्या- 218
२.
वही,
पृष्ठ संख्या-218
३.
और ४.
वही,
पृष्ठ संख्या-219
सुशीला भूरिया
पीएच.डी.
शोध
छात्रा
हिंदी विभाग,
सरदार पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ विद्यानगर,
आणंद,
गुजरात
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