डॉ.
अनिल कुमार बाजपेई ‘काव्यांश’
1
नारी
देवी रूप...
(रोला छंद)
नारी देवी
रूप, कभी
सीता कहलाती।
कभी
शीत की धूप, मातु बन मन सहलाती।।
कभी बने भगवती, दुष्टजन को
संहारे।
कभी
अहिल्या बनी, राम की राह निहारे।।
कभी
बने वो नीर, आँख से अविरल बहती।
चुभते
कंटक नित्य, मौन होकर सब सहती।।
कभी
उर्मिला बनी, विरह में जलती रहती।
कभी राम
के संग, वनों में चलती रहती।।
नेह–बदरिया बनी, कभी साजन
पर बरसे।
ममता
की है खान, कभी ममता को तरसे।।
थक
जाती कर काम, सँजोती सुंदर सपने।
पल
में जाते रूठ, कभी थे उसके अपने।।
***
2
दूरदर्शन
(हास्य
रचना-गीतिका छंद)
हाय
देखो दूरदर्शन,
को
भला क्या हो गया ।
गीत
बढ़िया आ रहा था,
क्यों
न जाने खो गया ।।
नायिका
के थी थिरकती,
दामिनी
सी अंग में ।
यूँ
लगे जैसे किसी ने,
रंग
डाला भंग में ।।
चढ़
जरा बेटा चला जा,
देख
तो क्या बात है ।
बिंदु
से क्यों दिख रहे हैं,
क्या
हुई बरसात है?
अल्प
एंटीना घुमा बस,
वाह
अब सब साफ है ।
पर
कभी ऐसे न चढ़ना,
आज
बस ये माफ़ है ।।
डॉ. अनिल कुमार बाजपेई काव्यांश
जबलपुर



दूरदर्शन पर आपकी हास्य कविता बहुत अच्छा लगा, भले मैं आकाशवाणी का कर्मचारी रहा । दूरदर्शन के कार्यक्रम आपको पसंद भी थे, ये भी आपने जाहिर किया, ये बात भी सच है । इसके लिए धन्यवाद और आभार ।
जवाब देंहटाएंएंटना तो अब इतिहास बन गया
अच्छे प्रोग्राम अब परिहास बन गया
जो दर्शन चाहें सब अब देख रहे
दूर दर्शन अब पास (pass) बन गया
सुन्दर रचनाएँ।
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