बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

खण्ड-1



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जैन और बौद्ध दर्शन : कतिपय तथ्य

जैन और बौद्ध धर्म का दर्शन व उपदेश भी भारतीय ज्ञान परंपरा का एक बहुत ही महत्वपूर्ण सोपान रहा है जिसका प्रचार-प्रसार व प्रभाव आज भी उतना ही है। कई विद्वानों ने जैनधर्म को बौद्धधर्म से काफी पहले का बताया है।

अहिंसा, तप और अभय का महत्च, साथ ही जीव, पुद्‌गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इन तत्त्वों की सृष्टि के निर्माण में महत्ता की बात जैनधर्म-दर्शन में बताई गई है। जीवित प्राणियों के अनुशासन, अहिंसा के मार्ग की सर्वोपरिता, धार्मिक-आध्यात्मिक शुद्धता, अपरिग्रह- आस्तेय - आत्मज्ञान जैसी कई विशेषताओं को जैनधर्म में हम देखते हैं। हम यह तो जानते ही हैं, कि जैनधर्म में 24 तीर्थकर का उल्लेख है जिनमें अंतिम भगवान महावीर थे।

बौद्धधर्म का दर्शन एवं उपदेश जितना ज्ञान से जुड़ा है, उतना ही उसका सामाजिक सरोकार भी । सत्य का ज्ञान होने के पश्चात बुद्ध ने लोककल्याण की भावना से प्रेरित होकर अपने संदेश को जनता तक पहुँचाने का संकल्प किया। इस उद्देश्य से उन्होंने घूम घूम कर जनता को उपदेश देना आरम्भ किया।  “मगध के कस्सपनाम के प्रसिद्ध साधु महात्मा बुद्ध के शिष्य थे। उनका कथन है- निर्मल अकथ अनादि ज्ञान जिसने है पाया। उसी ज्योति-भगवान बुद्ध को बनाया।” (महापुरुषों के अविस्मरणीय जीवन-प्रसंग, पं. श्रीराम शर्मा, पृ. 1.3)

भगवान बुद्ध के विचार से प्रकृति ही ईश्वर है। विज्ञान ही सत्य है। मानवता ही धर्म है। कर्म ही पूजा है। मानव की सेवा ही श्रेष्ठ धर्म है। दरअसल बुद्ध की वाणी में मानवता व समाजसुधार की भावना प्रबल रही। इनके क्रांतिकारी विचारों में तथा मानवता के संदेश में सभी वर्ग-वर्ण चाहे ब्राह्मण हो या शूद्र, स्त्री हो या पुरुष सभी का धर्म पर तथा ज्ञान प्राप्त करने पर समान अधिकारी थे । “बुद्ध एक समाजसुधारक थे, दार्शनिक नहीं। दार्शनिक उसे कहा जाता है जो ईश्वर, आत्मा, जगत जैसे विषयों का चिंतन करता हो। जब हम बुद्ध की शिक्षाओं का सिंहावलोकन करते हैं तो उसमें आचार शास्त्र, मनोविज्ञान, तर्कशास्त्र आदि पाते हैं, परंतु तत्वदर्शन का वहाँ पूर्णत: अभाव दीख पड़ता है।” (भारतीय दर्शन की रूपरेखा, प्रो. हरेन्द्रप्रसाद सिंहा, पृ. 105-106)

बुद्ध की वाणी या बुद्ध उपदेश-दर्शन विशेषतः पालि भाषा में उपलब्ध है। ‘त्रिपिटक’ बौद्ध दर्शन का प्रमुख ग्रंथ है।

नैतिक चरित्र के साथ-साथ ज्ञान के विकास पर जोर देने के बावजूद बुद्धदर्शन या बुद्धिइज्म में ज्ञान और भक्ति की अपेक्षा कर्म की महत्ता को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है। “बुद्धदेव ने ज्ञान और भक्ति इन दोनों को छोडकर केवल कर्म को पकड़ा और जीवनभर वे उसीका उपदेश देते रहे। कर्म है भी बहुत बड़ी चीज । ज्ञान मार्ग एक कठिन मार्ग है, मन के ऊहापोह से भरा मार्ग; उस पर भी अगर ज्ञानी के कर्म वैसे ही नहीं रहे जैसे उसके विश्वास है तो हम कहने लगते हैं कि ज्ञानी पतित हो गया, क्योंकि यह जो कहता है, सो करता नहीं। .....इसलिए मानना पड़ेगा कि बुद्ध ने कर्म को बहुत सोच-समझकर अपना धर्म मार्ग बनाया था। गाँधी और बुद्धदेव में जो समानता है, वह सिर्फ इस कारण नहीं कि दोनों ही सुधारक अहिंसा और मैत्री के पूजारी थे, बल्कि मुख्यत: इसलिए कि दोनों का विश्वास ज्ञान की अपेक्षा कर्म में अधिक था।” (संस्कृति की चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, पृ. 126)

• संसार दुःखों से परिपूर्ण है • दुःखों का कारण भी है • दुःखों का अंत संभव है • दुःखों के अंत का मार्ग है जैसी बातें बुद्धदर्शन में सन्निहित हैं।

आगे चलकर बौद्धदर्शन की कुछेक अलग-अलग शाखाएँ विकसित हुईं।

अप्प दीपो भवः गौतम बुद्ध और लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व उनके द्वारा दिया गया यह मंत्र अप्प दीपो भव: अर्थात् अपना दीपक स्वयं बनो। अपना प्रकाश स्वयं बनो। किसी और से आशा-उम्मीद रखे बगैर, दूसरों पर निर्भर रहे बगैर अपना प्रकाश स्वयं बनो, और स्वयं के साथ-साथ औरों को भी प्रकाशित करें। न ज्यादा अनुकूल स्थिति न वातावरण, न कोई मार्गदर्शन, न प्रोत्साहन फिर भी अपनी लीक बनाने वाले इस अप्प दीपो भवः की परंपरा के कई दीपक हमार समाज में, हमारे इतिहास में, हमारी भारतीय ज्ञान परंपरा में जगमगा रहे हैं। और ये दीपक अपने प्रकाश से, अपने ज्ञान से दूसरों का मार्ग भी प्रशस्त कर रहे हैं।

‘मध्यकालीन हिन्दी साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव विषय पर स्तरीय शोधकार्य करने वाली विदुषी डॉ. सरला त्रिगुणायत अपने इस शोध में भारत के धार्मिक इतिहास में बौद्ध धर्म का स्थान और महत्त्व’ को लेकर अपने विचार रखती हैं – “भारत के धार्मिक इतिहास में बौद्ध धर्म का महत्त्व कई दृष्टियों में अतुलनीय हैं। जिस समय बौद्ध धर्म का उद‌य हुआ था, उस समय की धार्मिक स्थिति बड़ी विश्रृंखल थी । वैदिक धर्म रूढ़िग्रस्त हो गया था। पुरोहितवाद की प्रवृत्ति ने उसको सर्वथा पंगु बना दिया था। श्रद्धा के नाम पर अनाचार की वृद्धि होने लगी थी। पंडितों और पुरोहितों ने तर्क करने का अधिकार किसी को नहीं दिया था। बौद्धधर्म में बुद्धिवादिता की प्रतिष्ठा की गई। बौद्ध धर्म के प्रवर्तकों ने वैदिक सिद्धांतों को उस बुद्धिवादिता की दृढ़ भूमि पर अपनी प्रतिभा का पुट देकर नास्तिक मतों में सामंजस्य स्थापित करते हुए एक मौलिक रूप दिया जो आगे चलकर विश्व‌ग्राह्य हो सका। अपनी इसी विशेषता के कारण उसे विश्वधर्म बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। विश्व के धार्मिक इतिहास में भारत का गौरवपूर्ण स्थान दिलाने का श्रेय इसी धर्म की कुछ विशेषताओं – बुद्धिवादित्ता, व्यावहारिकता, अनीश्वरवाद, अभौतिकवाद, ब्राह्मणवाद का खंडन, शिक्षात्रय, अनात्मवाद, पंचस्कन्ध आदि को भी हैं।” [ दृष्टव्य - मध्यकालीन हिन्दी साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव, डॉ. सरला त्रिगुणायत. पृ. 32 से 38]

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1 टिप्पणी:

  1. वास्तव मे बुद्ध का मार्ग कर्म की शुद्धता को लेकर ही है.'गुरू',अवतार, कृपा आशीर्वाद ये सब कल्पनातीत हैं. मैने दो विप्पशना शिवीर मे यही सरीखा है.अष्टांग मार्ग पर ही यह दर्शन आधारित है.

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