बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

खण्ड-1

 

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भारतीय ज्ञान परंपरा

विश्व के समक्ष अपने उदात्त विचार व उदार भाव से वसुधैव कुटुंबकम्’ के महामंत्र को रखकर, और उसे अपने सद् व्यवहार से चरितार्थ करने वाला भारतवर्ष अपनी सहज और उत्पाद्य प्रतिभा को लेकर भी पूरे विश्व में अपनी एक खास पहचान रखना है। कहते-देखते हैं कि भारत ज्ञान की भूमि । ज्ञान ही यहाँ सर्वोपरि अतः ज्ञानार्जन ही यहाँ श्रेष्ठ कर्म । इसका प्रमाण है कि यहाँ जीवन व्यवहार के हर क्षेत्र में बुद्धि-प्रतिभा ने अपार महत ग्रंथों की रचना की है।

कोई भी ज्ञान-स्पर्शित भारतीय मस्तिष्क इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं होगा कि भारतीय ज्ञान की परंपरा बड़ी सुदीर्घ, सुदृढ़ एवं विषयगत वैविध्य से काफ़ी संपन्न -समृद्ध रही है। प्रारंभ से ही इस परंपरा का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का सर्वांगी विकास करते हुए उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सही समझ देना रहा है।

भारतीय ज्ञान परंपरा में वेद, उपनिषद, पुराण, ब्राह्मणग्रंथ, रामायण, महाभारत, भगवद‌गीता जैसे धार्मिक-आध्यात्मिक व दर्शन ग्रंथों को सबसे पहले देखा जाता है जो भारतीय संस्कृति की अनमोल धरोहर है। “भारतीय संस्कृति का दार्शनिक पक्ष धर्म ग्रंथों में उपलब्ध होता है। वेद, शास्त्र, दर्शन, उपनिषद, ब्राहमणग्रंथ, अरण्यक, पुराण, नीति, धर्म आदि अनेक धर्म ग्रंथ हमें उस विचारधारा का अनुयायी बनाते हैं जो मानवप्राणी को आदर्शवादी, निर्मल चरित्र, कर्तव्यपरायण, सहृदय एवं संयमी बनाने में पूर्णतया समर्थ है।” (भारतीय संस्कृति के आधरभूत तत्त्व, पं. श्रीराम शर्मा, पृ. 3.135)

उक्त ग्रंथों के अतिरिक्त ज्ञान-विज्ञान के अन्य विषयों – योग, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष, साहित्य, व्याकरण, विज्ञान, वाणिज्य, कलाएँ प्रभृति से संबंधी ज्ञान  व तत्संबंधी ग्रंथों तथा इनकी महत्ता-उपयोगिता को हम बराबर देखते हैं। प्राचीन भारतीय ज्ञान की आज के संदर्भ में प्रासंगिकता व महत्ता अधिक रही है। आज प्राचीन ज्ञान की आवश्कता, खासकर उस ज्ञान की जो हमें धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक संद‌र्भों से जोड़े, आदर्श-उज्ज्वल चरित्र निर्मित करें, भारतीयता, राष्ट्रीयता की भावना से भरपूर रखें। तिब्बती धर्मगुरु दलाईलामा के विचार से – “तकनीकी और विज्ञान का इस्तेमाल आज हिंसा के लिए हो रहा है जो गलत है। आज की 21वीं सदी को शांत व संवाद की सदी प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा से ही बनाया जा सकता है। इस निधि का समावेश हमें आज की आधुनिक शिक्षा में करना होगा।” ” (राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की गंगोत्री भारतीय ज्ञान परंपरा, सं. अनिल कुमार राय, पृ. 48-49)

यह ज्ञान परंपरा जैनिज़्म, बुद्धइज़्म, प्राचीन ज्ञान ग्रंथों की व्याख्याएँ-व्याख्याता, मध्यकालीन एवं आधुनिक अनेक चिंतकों-सर्जकों-शास्त्रों-ग्रंथों-पंथों-संप्रदायों-अनुसंधानों आविष्कारों से बहुआयामी रूप में अग्रसर होती रही और इसकी ख्याति-प्रसिद्धि भारत तक ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर प्रचारित होती रही है।

हम सब जानते ही हैं कि ज्ञानार्जन तथा ज्ञान के प्रचार-प्रसार का प्रमुख माध्यम व मंच शिक्षा और शैक्षिक संस्थाएँ हैं। ज्ञान परंपरा की तरह ही भारतीय शिक्षा प्रणाली भी बहुत ही गौरवशाली रही। “ऋग्वेद के समय से ही शिक्षा प्रणाली जीवन को नैतिक, भौतिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक मूल्यों पर केंद्रित होकर विनम्रता, सत्यता, अनुशासन, आत्मनिर्भरता और सभी के लिए सम्मान जैसे मूल्यों पर जोर देती है।”

संक्षेप में, भारतीय ज्ञान परंपरा हमारे धार्मिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक ज्ञान की बड़ी ही मूल्यवान संपदा है, जो लौकिक-अलौकिक जगत, आत्मा-परमात्मा, भौतिक-अध्यात्मिक जीवन, सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों इत्यादि से हमें अवगत कराते हुए हमारी समस्याओं के समाधान के उपाय सुझाते हुए विकासपथ पर अग्रसर होने में बड़ी ही सहायक भूमिका का निर्वाह करती है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान के विकास-क्रम को लेकर एक मत देखिए – “मानव ने आदिम युग [पाषाण युग] से लेकर 21 वीं सदी के हाइपर-इलेक्ट्रोनिक युग तक निरंतर आगे बढ़ते रहने के लिए अपने द्वारा अर्जित नवीनतर ज्ञान के आधार पर, हर दिशा-क्षेत्र में उत्तरोत्तर नई/नए दिशाओं/रास्तों की खोज की। अतः मानय ने अपने विभिन्न ज्ञानानुशासनों यथा – दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, औद्योगिक, शैक्षिक, वैज्ञानिक आदि क्षेत्रों को लेकर, जटिल से जटिल समस्याओं को एक नवीन / परिशोधित, परिष्कृत वर्तमान की ओर ले जाने हेतु नाना दिशाएँ चिह्नित की तथा शोध एवं गहन विमर्श को आगे ले जाने के उद्देश्य से लगातार नए संप्रेषणीय माध्यमों का, जिससे ज्ञान पुनुरुत्थान को गति मिली और नवीन ज्ञान परंपरा का आगाज हुआ।” ” (राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की गंगोत्री भारतीय ज्ञान परंपरा,सं. अनिल कुमार राय, पृ. 47-48)

वैसे भारतीय ज्ञान की शिष्ट व अभिजात्य संदर्भों से संबद्ध लिखित और शास्त्रीय-साहित्यिक परंपरा बड़ी ही प्रबुद्ध व प्रभावशाली रही है, परंतु इसी के समानांतर लोककी और लोक में मौखिक-कंठस्थ ज्ञानपरंपरा भी अबाधित रूप से प्रवाहित रही है जो शास्त्रों-ग्रंथों-सिद्धांतों के एक विशेष अनुशासन से मुक्त और ज्यादा व्यावहारिक ज्ञान पर, अनुभवों पर आधारित रही। इस संदर्भ में हम लोकको एक पारिभाषिक शब्द के रूप में ही देख सकते हैं, जो समाज का एक ऐसा विशिष्ट अंग या वर्ग है जो तथाकथित अशिक्षित या अर्धशिक्षित और घोर परंपराप्रिय होते हुए भी वह ज्ञान से, विशेषतः व्यावहारिक ज्ञान से शून्य नहीं होता। शिक्षा-प्रशिक्षा, शास्त्रों-पुस्तकों के ज्ञान से भले ही वह दूर हो लेकिन व्यावहरिक-अनुभवजन्य ज्ञान से वह लोक’ बड़ा ही समृद्ध । पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस संबंध में बड़ी ही मायने की बात कही है “लोक का अर्थ केवल गाँव या जनपद नहीं किन्तु गाँवों और नगरों में बसी वह समस्त जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं है।

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