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ज्ञान साहित्य
सामान्यतः हम देखते हैं कि संस्कृत में साहित्य के लिए ‘वाङ्मय’
शब्द का,
और अंग्रेजी में ‘लिटरेचर’ शब्द का प्रयोग होता है। इन दोनों का शाब्दिक और सीधा अर्थ,
यानी सामान्य अर्थ क्रमशः जो भी वाणीमय है वह वाङ्मय, और जो
भी अक्षरमय-शब्दमय वह सब साहित्य। असल में यहाँ ‘साहित्य’ शब्द एक व्यापक व
सामान्य अर्थ में, और इस अर्थ में तो इसके पूर्व के प्रकरणों-मुद्दों जिसमें
भारतीय ज्ञान परंपरा को निरूपित किया है, उस परंपरा का हर पक्ष-पहलू ज्ञान साहित्य
कहलाएगा। किंतु दूसरी ओर हम जिसे साहित्य कहते हैं, यानी कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि विधाएँ, जिसमें ‘साहित्य’ शब्द एक रूढ़ अर्थ में है। “आंग्ल विवेचक डिक्वेन्सी ने इन
दोनों के अंतर को समझने के लिए साहित्य को दो वर्गों में विभाजित किया है – 1. लिटरेचर
ऑफ नालेज तथा 2. लिटरेचर ऑफ पावर। ‘लिटरेचर ऑफ नालेज’
हमारा शास्त्र है, और ‘लिटरेचर ऑफ पावर’
हमारा काव्य अर्थात साहित्य । प्रथम के अंतर्गत संसार के
तमाम शास्त्र और विषय आ जाते हैं। और दूसरे में रूढ़ अर्थ में प्रयुक्त साहित्य।” (समीक्षायण,
डॉ. पारूकान्त देसाई, पृ. 10)
उपलब्ध ग्रंथों तथा विविध क्षेत्रों में मनुष्य के बौद्धिक
विकास के प्रमाणों के आधार पर वेदों से लेकर चंद्रयान-3 तक की हजारों
वर्षों की भारतीय ज्ञान-विज्ञान की परंपरा में ‘ज्ञान साहित्य’
पर विचार करें तो प्रथम तो रूढ़ अर्थ में जिसे साहित्य कहा
जाता है उसमें ज्ञान के संदर्भ व केन्द्रीयता तो दूसरी ओर ‘साहित्येतर’
विषय यानी ज्ञान विज्ञान के विविध क्षेत्रों में उपलब्ध
सामग्री को भी साहित्य के व्यापक अर्थ में ‘ज्ञान साहित्य’ के अंतर्गत देखा जा
सकता है। जैसे प्रथम में वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, जातक कथाएँ-बौद्ध कथाएँ, जैन साहित्य, मध्यकाल में संतों भक्तों का कव्य,
आधुनिक लेखक-कवियों का लेखन-सृजन जिसमें भारतीय ज्ञान,
चिंतन, दर्शन का आलेखन हुआ है, ये सभी रचनाएँ । दूसरी श्रेणी में बाकी बचा तमाम ज्ञान जो शब्दमय
है,
वाणीमय है, उसे भी साहित्य के व्यापक अर्थ में ज्ञान साहित्य कह ही
सकते हैं।
कुछ अपवाद को छोडकर यह कहना न अनुचित होगा न अत्युक्ति कि
साहित्य विचार शून्य नहीं होता। मतलब साहित्य भी विचार,
चिंतन, ज्ञान से बहुत ही सम्पन्न-समृद्ध होता है और यदि कोई
साहित्य ज्ञान से समृद्ध संपन्न नहीं-ज्ञान केन्द्रित न भी हो तो संस्पर्शित तो
होगा ही। साहित्य में जो ज्ञान या कहिए विचार-मान्यताएँ हैं वह लगभग दो स्रोतों से
आते हैं। एक स्वयं सर्जक का किसी विषय को लेकर अपना चिंतन-मान्यताएँ-स्थापनाएँ।
दूसरा – ज्ञान-विज्ञान के अन्य स्रोतों, जिनमें अन्य के शास्त्रों, विविध ग्रंथों, विचारकों, ज्ञान-साधकों, लोक आदि से प्राप्त
ज्ञान का अनुसरण व प्रभाव। हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला ही नहीं बल्कि किसी भी भारतीय भाषा जिसमें साहित्य
सृजन की मजबूत परंपरा मिलती है, मतलब भारतीय साहित्य परंपरा और इस परंपरा पर दृष्टिपात करने
पर सबसे पहले इस तथ्य से परिचित होते हैं कि इस परंपरा में भारतीय ज्ञान की गंगोत्री
अबाधित प्रवाहित होती रही है। जो सर्जक की निजी सोच के साथ-साथ वेद,
उपनिषद, पुराण, भगवद्गीता, रामायण, महाभारत, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन, भक्ति आंदोलन, शंकराचार्य, दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, ओशो, गाँधी, अंबेडकर, लोहिया, विविध धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं,
संप्रदायों-संस्थाओं, साथ ही ज्ञान-विज्ञान के अन्य अनुशासनों तथा इनके
अनुसंधानों-आविष्कारों से हमारी ज्ञान परंपरा और ज्ञानसाहित्य परंपरा प्रभावित रही
है।
हिन्दी में गोरखनाथ, सरहपा, विद्यापति, खुसरो, कबीर, दादू, रैदास, जायसी, तुलसी, सूर, बिहारी, जयशंकर प्रसाद, पंत, अज्ञेय साथ ही सामाजिक यथार्थ व समाज के व्यावहारिक ज्ञान को लेकर प्रेमचंद,
निराला, मोहन राकेश, शैलेश मटियानी और इस सूची में और भी ऐसे अनेकों नाम जुड़
सकते हैं,
जिनका सृजन, साहित्य के अंतर्गत ज्ञान को लेकर भी महत्वपूर्ण रहा।
असल में आज साहित्य इस अर्थ में दर्पण और दीपक की भूमिका का
अच्छी तरह निर्वाह कर रहा है कि वह हमें धर्म, दर्शन, भक्ति, समाज, संस्कृत्ति, व्यावहारिक-सैद्धांतिक-शास्त्रीय ज्ञान,
राष्ट्रीयता, सनातन धर्म, भारतीयता, हिन्दुत्व, सामाजिक चेतना, मनुष्यता, विविध सामाजिक
आंदोलनों-विमर्शों, सत्य, करुणा, अहिंसा जैसे विषयों व आदर्शों-मूल्यों को दिखाते हुए हमें
हमारी ज्ञान परंपरा से जोड़े रखते हुए, साथ ही एक उपदेशक ‘कान्तासम्मितोपदेशयुजे’
के रूप में हमारा उचित दिशा निर्देश कर रहा है। हाँ,
ये बात जरूर है कि साहित्य एक कला है,
ललित कला है। आनंद-मनोरंजन इसका एक प्रमुख प्रयोजन है,
अतः ज्ञान, दर्शन, शास्त्रीय सिद्धांतों-मान्यताओं को प्रस्तुत करने का इसका
अपना एक अलग ढंग होता है। कहते हैं कि “संसार का कोई भी ऐसा शास्त्र या विषय नहीं
है कि जिसका उपयोग कव्य में न होता हो। कवि या लेखक जो कुछ भी पढ़ते-जानते हैं,
वह रस रूप में सुपाच्य होकर काव्य में आता है। ......
तात्पर्य यह कि काव्य या साहित्य में सभी विषय
आ सकते हैं। इसलिए हमारे यहाँ शास्त्रों को काव्य की योनियाँ माना गया हैं। परंतु
शास्त्र जहाँ ठोस या कोरा ज्ञान देता है वहाँ साहित्य उसे सुन्दर रूप में प्रस्तुत
करता है। कदाचित इसीलिए बाबू जयशंकर प्रसाद ने काव्य के संबंध में लिखा है – “वह (साहित्य) एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञानधारा
है।” (समीक्षायण, डॉ. पारूकान्त देसाई, पृ. 15)
धर्म, ज्ञान का एक मुख्य स्रोत व क्षेत्र रहा है। भारतीय साहित्य का
यहाँ के धर्म से भी अटूट और गहरा संबंध रहा है। अतः धार्मिक भावनाओं और मान्यताओं
को लेकर चलने वाला भारतीय साहित्य भी भारतीय ज्ञान को अपने माध्यम से,
अपनी शैली में पाठकों तक पहुँचा रहा है। “धर्म और साहित्य
में एक अविच्छिन्न सम्बन्ध है। साहित्य को धर्म से अलग करके देखना ठीक वैसा ही है
जैसा शरीर को प्राण से अलग करके देखना । जिस प्रकार प्राण से रहित शरीर शव मात्र
कहलाता है। उसी प्रकार धर्म से विरहित साहित्य निर्जीव कहलाएगा। सच तो यह है कि
धर्म साहित्य का प्राणदायक तत्त्व है। धर्मपरायण देश भारत में धर्म और साहित्य का
यह संबंध और भी अधिक गहराई और दृढ़ता के साथ स्वीकार किया गया है। यहाँ का किसी भी
काल का साहित्य तत्कालीन धार्मिक भावनाओं से प्रभावित और अनुप्राणित हुए बिना नहीं
रह सका। भारतीय साहित्य का सही अध्ययन तभी हो सकेगा जब हम उनका अध्ययन मार्मिक
धारणाओं के प्रकाश में करेंगे।” [ मध्यकालीन हिन्दी साहित्य पर बौद्ध धर्म का
प्रभाव,
डॉ. सरला त्रिगुणायत. पृ. 30]
आधुनिक काल में, विशेषतः हिन्दी साहित्य के अंतर्गत हम देखते हैं कि विविध
साहित्यिक विधाओं में ज्ञान विषयक वस्तु है तो उसके साथ-साथ वैचारिक
लेखों-पुस्तकों-टिका-टिप्पणियों के माध्यम से भी ज्ञान लेखन की परंपरा का विकास
बराबर होता रहा है, इसे भी ज्ञान साहित्य में समाविष्ट कर सकते हैं। कहने का
आशय है कि साहित्य के अपने एक मूल स्वभाव, शैली व शिल्प-ढाँचे में कई बार सर्जक ज्ञान-विज्ञान के अन्य
क्षेत्रों- शास्त्रों के विविध संदर्भ प्रस्तुत करता है। हाँ,
यह प्रस्तुति होती है कलात्मक-साहित्यिक । लेकिन इन
निर्धारित साहित्यरूपों के बाहर भी स्वतंत्र रूप से ज्ञान साहित्य लेखन हुआ जो
स्वतंत्र पुस्तकों, तत्संबंधी पत्रिकाओं के साथ साथ साहित्यिक पत्रिकाओं में भी
एक अलग स्तंभ में प्रकाशित होता रहा है। इस संदर्भ में एक विद्वान का मत देखिए – “उक्त विषय में साहित्य की दो पत्रिकाओं – ‘सरस्वती’ और ‘नागरी प्रचारिणी’ का नाम लेना चाहेंगे। ‘सरस्वती’ पत्रिका की भूमिका को जब हम याद करते हैं तो ज्ञान विज्ञान
के लेखन-प्रकाशन की एक मजबूत व्यवस्था उपलब्ध कराई। इस तरह ज्ञान साहित्य लेखन,
प्रकाशन व प्रचार-प्रसार की दृष्टि में इन दोनों पत्रिकाओं
का विशेष योगदान रहा है। इन दोनों पत्रिकाओं ने साहित्य और हिन्दी भाषा के साथ-साथ खगोल,
ज्योतिषशास्त्र, दर्शन शास्त्र, इतिहास, कला, राजनीति, विज्ञान जैसे विषयों पर लिखने का मार्ग प्रशस्त किया।” (डॉ.
पी. सी. टंडन, यू ट्यूब वीडियो से)
उक्त संदर्भ में आधुनिक हिन्दी साहित्य को लेकर डॉ.
नगेन्द्र संपादित ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ पुस्तक से भी एक मत देखिए – “आधुनिक युग में
ज्ञान विज्ञान के असंख्य ग्रंथों की रचना निरंतर हो रही है।.... आधुनिक काल के
प्रारंभ में स्वामी दयानंद सरस्वती का सत्यार्थ प्रकाश
..... वर्तमान युग में भी ज्ञान के साहित्यिक ऐसे अनेक गौरव
ग्रंथ हैं जिनका उल्लेख इतिहास में करना अनिवार्य है। एक ओर भाषाविज्ञान,
राजनीतिशास्त्र आदि के क्षेत्रों की उपलब्धियाँ कथ्य की
दृष्टि से साहित्य के अंतर्गत भले ही नहीं आती, किन्तु वे प्रकारान्तर से गद्य- शैली के विकास में योगदान
करती है;
इसका निषेध नहीं किया जा सकता है। अत: इतिहासकार को यहाँ भी
विवेकपूर्ण, प्रमुख और गौण कर भेद करके चलना चाहिए। अर्थात् रस के साहित्य को प्रधान विषय
बनाकर उसके पोषक रूप में ज्ञान के साहित्य का आकलन करना चाहिए।” हिन्दी साहित्य का
इतिहास, सं. नगेन्द्र, पृ. 19)
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