बुधवार, 31 जुलाई 2024

आलेख

 


देशभक्ति का सवाल और प्रेमचंद के विचार

डॉ. मोती लाल

मनुष्य का यह स्वभाव है कि उसके जीवन में जिस चीज का अभाव रहता है, वह उसके प्रति अधिक चाहत रखता है। अंग्रेजों ने भारतीय राजाओं और जनता की भावनाओं का हरण करके सत्ता हासिल की थी और उन्हें आजादी की भावना से महरूम रखा था। अंग्रेजी सेना और भारतीय जनता के बीच हुए 1857 ई. के संघर्ष ने भारतीय जनता की आजादी की भावना को बल प्रदान किया था। लेकिन कई भारतीय राजाओं द्वारा अंग्रेजी सेना का साथ देने के कारण भारतीय जनता की आजादी पाने की भावना साकार न हो सकी थी। बल्कि  यह भावना निरंतर प्रबल से प्रबलतर होती चली गई। सन 1900 ई. तक आते-आते भारतीय राजाओं और जमींदारों ने भारतीय जनता की आजादी की भावना को राष्ट्रवादके रूप में प्रस्तुत किया। इस राष्ट्रवादका प्रभाव साहित्य और विचारधारा पर भी पड़ा।

यह भारतीय राष्ट्रवाद समय के साथ कई रूपों में हमारे सामने आता है। कभी यह भाषा-प्रेम के रूप में सामने आता है, तो कभी यह स्वदेशी आंदोलन के रूप में, तो कभी यह स्वराज प्राप्ति के रूप में ,और हम भारतीयों को अपने देश की जनता और प्रकृति से प्यार करना सिखाता है। भारतीय राष्ट्रवाद की दो मुख्य धाराएँ पहचान में आती हैं-  पहली धारा में, देश की गरीब जनता, मजदूर और किसान महत्वपूर्ण है। जबकि दूसरी धारा में जमींदर और जमीदारों के पीछे खड़े सत्ता के लोग महत्वपूर्ण हैं। जिसके मन में अंग्रेजों के चले जाने के बाद सत्ता हासिल करने की लालसा लपलपा रही थी। इसमें आजादी के बहाने सत्ता, वर्ण-व्यवस्था, धर्मशास्त्र, पूँजी और कुर्सी की रक्षा महत्वपूर्ण थी।

“प्रेमचंद का जन्म बनारस से लगभग चार मील दूर लमहीनामक गाँव में 31 जुलाई 1880 को हुआ। उनका कुल फटेहाल कायस्थों का कुल था। जिनके पास करीब छै बीघा जमीन थी और जिनका परिवार बड़ा था। प्रेमचंद के पितामह मुंशी गुरुसहाय लाल पटवारी थे। उनके पिता मुंशी अजायबलाल, डाकमुंशी थे।”1। साहित्य की दुनिया में प्रेमचंद का उदय सन 1900 ई. के आसपास हुआ। प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य की धारा को राजाओं, महाराजाओं के नायकत्व से बाहर निकालकर उसमें किसानों और मजदूरों को प्रवेश कराया। जहाँ एक ओर उनके उपन्यास और कहानी के नायक अधिकतर किसान और मजदूर हैं, जिनमें मानवता के लिए पर्याप्त जगह है,वहीं दूसरी ओर “ प्रेमचंद का साहित्य देशभक्ति की भावना में डूबा है। उनके साहित्यिक कृतित्व की पृष्ठभूमि में हम अनेक स्वरों की प्रतिध्वनि एक साथ सुनते हैं। ये स्वर हैं-  राजा राममोहनराय, विवेकानंद, दयानंद, गांधी, टैगोर, नेहरू भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के और मैजिनी, गैरीबाल्डी, कार्ल मार्क्स, लेनिन आदि के समान स्वतंत्रता और मानव-मुक्ति के लिए लड़ने वाले यूरोपीय वीरों के स्वर।”2 दरअसल देशभक्ति संबंधी प्रेमचंद के विचारों का निर्माण ऐसे महापुरुषों के विचारों से मिलकर हुआ है, जिनके जीवन में देश की जनता और देश के लोग बहुत महत्व रखते थे। यही कारण है कि प्रेमचंद ने अपने साहित्य में देशभक्ति के नाम पर वहाँ के निवासियों को बहुत महत्व प्रदान किया है। उनके उपन्यास और उनकी कहानियाँ इस बात को प्रमाणित करते हैं कि यदि हमें किसी देश से प्यार है,तो इसका मतलब यह है कि हमें वहाँ की जनता से प्यार है। बगैर जनता के किसी भी देश का निर्माण नहीं हो सकता। अर्थात देश के नागरिकों से समान रूप से प्यार न करनेवाला व्यक्ति कभी देशभक्त नहीं हो सकता।

आजकल प्रायः देखा जाता है कि देशभक्ति के नाम पर बहुत सारे लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि करते हैं और दूसरे को देशद्रोही बताकर उन्हें जेल में डाल देते हैं। जबकि सच यह है कि देशभक्त लोग कभी भी देश की जनता को जेल में डालना पसंद नहीं करते हैं। बल्कि उनकी माँगों पर पुनर्विचार करके उनकी समस्याओं का हल ढूँढते हैं। आजकल नकली देशभक्त , विदेशी कंपनियों को देश में बुलाकर देशी उद्योग धंधों को नष्ट कर रहे हैं और अपने देशभक्त बने फिर रहे हैं। प्रेमचंद, ऐसे नकली देशभक्तों की खबर लेते हुए लिखते हैं “आजकल इस सवाल पर बहस छिड़ती है कि हिंदुस्तानी उद्योग-धंधों की तरक़्क़ी क्यों नहीं होती तो आमतौर पर यह कहा जाता है कि अभी जनता में देश-प्रेम और क़ौमी हमदर्दी का ख़याल ऐसा नहीं फैला है कि वह निजी फ़ायदे को नज़र अंदाज़ करके अपने देश की चीज़ों को बावजूद उनकी ख़ामियों और बुराइयों के, दूसरे देशों की चीज़ों से बढ़कर जगह दे।”3 वास्तव में प्रेमचंद अपने जमाने में ही इस बात का अंदाजा लगा लिए थे कि आनेवाला युग नकली देशभक्तों का होगा। जो देशप्रेम के नाम पर कमीशन लेकर देश को विदेशी कंपनियों के हाथ सौंप देंगे या देशी कंपनियों को दो कौड़ी के भाव भेज देंगे।

प्रेमचंद देशभक्ति के सवाल पर विचार करते हुए देश के उच्च और मध्यवर्ग के दोगले जीवन को भी निशाने पर लेते हैं। उनका कहना है कि भारत के उच्चवर्ग और मध्यवर्ग के लोग विलायती सामानों पर बहुत गर्व महसूस करते हैं जबकि किसानों को उनका वास्तविक मूल्य देते हुए उनका दम निकल जाता है। ऐसो आराम पर करोड़ों रुपये इधर-उधर लूटानेवाले नकली देशभक्त, किसानों का लागत मूल्य देने में पसीना बहा देते हैं। भारतीय जनता की इस प्रवृत्ति को पहचानते हुए प्रेमचंद ने उसे पर करारा प्रहार करते हुए लिखा है – “अगर आप किसी गाँव में निकल जाइए तो बजाय इसके कि लोग गजी-गाढ़े पहने हुए नज़र आएँ, कोई तो इटली की बनी हुई बनियान पहने हुए दिखाई देता है, कोई अमरीका की बनी हुई चादर। वही चीज़, जो बाजार में मारी मारी फिरती है, देहात में जाकर हाथों-हाथ बिक जाती है और यह इसी वजह से कि किसानों को ख़रीदते वक़्त दान नहीं देना पड़ता। इन विलायतियों ने कितने ही जुलाहों को तबाह कर डाला और जुलाहों की तबाही से पूर्वी सूत की माँग जाती रही। इस तरह देसी रुई को मजबूरन इंगलिस्तान की खुशामद करनी पड़ी।”4 शादी ब्याह में करोड़ों रुपए पानी की तरह बहानेवाले भारतीय पूंजीपतियों को जनता के धन को लूटने में तनिक भी दर्द महसूस नहीं होता जबकि प्रेमचंद की विचार-दृष्टि में गरीब जनता को राहत देना सबसे बड़ी देशभक्ति है। जो लोग ऐसा नहीं करते हैं, वे प्रेमचंद की दृष्टि में देशभक्त नहीं हैं।

देशभक्ति के सवाल पर विचार करते हुए प्रेमचंद, मौर्य सम्राट अशोक को याद करते हैं। वे उनकी जनता सेवा की भावना को याद करते हैं। वे लिखते हैं – “महाराज अशोक के ज़माने में सिलोन के राजा ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और तब से तेरहवीं शताब्दी तक चिकित्सालयों का निर्माण, सड़कों की सफ़ाई और मरम्मत, अपाहिज़ों की देखभाल और दूसरे ऐसे ही लोकहितकारी कार्यों की तरफ़ उत्साह और संकल्प की कमी नहीं रही और मुफ़्त और सबको मिलने वाली शिक्षा की ऐसी चर्चा रही कि कोई बौद्ध मंदिर ऐसा न था, जहाँ पाठशाला न हो। आज भी वर्मा और सिलोन में शिक्षित व्यक्तियों की संख्या हिन्दोस्तान के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा है।”5

आजकल धर्म और धर्म से संबंधित पाखंड, जो चारों तरफ दिखाई दे रहा है, यह प्रेमचंद की जमाने में भी था। प्रेमचंद ने इस पाखंड की पहचान करते हुए इसे दूर करने के उपाय सुझाए थे। उन्होंने इस सच्चाई को पहचाना था कि पूंजीपतियों ने अपने लाभ के लिए धर्म को व्यापार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है और धर्म एक दिन व्यापारियों के हाथ का खिलौना बन जाएगा। उन्होंने देश का असली चेहरा रोती हुई स्त्री और असहाय मजदूरों की आंखों में देखा था। उन्होंने लिखा है-” आदम के बेशुमार बेटे बदबूदार, अँधेरी कोठारियों में ज़िंदगी बसर करने के लिए मजबूर हैं, जबकि लोग अपनी बिरादरी और पड़ोसियों की सीख न मानकर वासना के शिकार हो जाते हैं जबकि बड़े-बड़े व्यावसायिक नगरों में सतीत्व आवारा और परेशान रोता फिरता है (लंदन में चालीस हजार से ज्यादा वेश्याएँ हैं और कलकत्ता में सोलह हजार से ज्यादा) जबकि आजाद मेहनत की रोटी खाने वाले इंसान पूँजीपतियों के गुलाम होते जाते हैं और महज पैसे वाले व्यापारियों के नफे के लिए खूनी लड़ाईयों में कूदने से भी लोग बाज नहीं आते, बल्कि विद्या और कला और आध्यात्मिकता भी नफे और नुकसान के भँवर में फँसी हुई हैं, जबकि कुशल राजनीतिज्ञ का पाखंड और छल-कपट हंगामा बरपा किए हुए हैं और न्याय की सच्चाई का शोर सिर्फ जुल्म के मरे हुओं की कमजोर पुकार को दबाने के लिए मचाया जाता है।”6

दरअसल प्रेमचंद देशभक्ति के सहारे भारतीय समाज में जनवादी विचारों को स्थापित करने का सपना देख रहे थे। यही कारण है कि वे भारतीय समाज के निम्नवर्ग की सामाजिक गुलामी को विदेशी गुलामी से अधिक खतरनाक मानते थे।मैनेजर पांडेय लिखते हैं – “प्रेमचंद की राष्ट्रीय चेतना भारतीय समाज में समता चाहती थी। जिन्होंने 1934 में एक लेख - क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?’ - में जाति-व्यवस्था और राष्ट्रवाद को परस्पर विरोधी घोषित करते हुए कहा था कि “राष्ट्रीयता की पहली शर्त है - समाज में साम्यभाव का दृढ़ होना।” प्रेमचंद स्वराज के आंदोलन को समतामूलक समाज की रचना का आंदोलन बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने जोर देकर कहा था कि “हमारा स्वराज केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नहीं है, बल्कि सामाजिक जुए से भी, जो विदेशी शासन से कहीं अधिक घातक है।”7

प्रेमचंद, राष्ट्रवाद को सांप्रदायिकता की भाँति खतरनाक समझते थे। वे इसे रामराज्य से जोड़कर देखते थे। उनका कहना था कि जो राष्ट्रवादी है, वह सांप्रदायिकताकी भांति संकीर्ण मानसिकता का है और रामराज्यकी भाँति केवल कुछ लोगों को लाभ पहुँचाने की समझ रखता है। इसमें सबके लिए समान भाव से सुख का बँटवारा करने का हिसाब किताब नहीं है। मैनेजर पांडे ने प्रेमचंद के विचारों को स्पष्ट करते हुए लिखा है- “प्रेमचंद समाज और राजनीति में हर तरह की संकीर्णता के विरुद्ध थे, इसलिए वे संकीर्ण राष्ट्रवाद के आलोचक थे। उन्होंने 1933 में लिखा था, “राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ सांप्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। सांप्रदायिकता अपने घेरे के अंदर पूर्ण शांति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने परिचित क्षेत्र के अंदर रामराज्य का आयोजन करती है। उसके बाहर का संसार उसका शत्रु है।” यही वह दृष्टि है जो प्रेमचंद के कथ-साहित्य में एक ओर संकीर्ण राष्ट्रवाद का विरोध करती है तो दूसरी और सांप्रदायिकता का।”8 प्रेमचंद अपने जमाने के उन जमींदारों और पूँजीपतियों की भी पहचान करते है, जो राष्ट्रवादी बने फिर रहे थे और राष्ट्रवाद के नाम पर देश को धोखा दे रहे थे। एक तरफ वे स्वाधीनता आंदोलन के नेता बने फिर रहे थे तो दूसरी ओर वे जेल से छूटकर अंग्रेजों का साथ दे रहे थे। मैनेजर पांडेय ने लिखा है - “प्रेमचंद के उपन्यासों में भारतीय राष्ट्रवाद के वर्ग-चरित्र की पहचान है। उनके उपन्यासों में अनेक जमींदार और पूँजीपति राष्ट्रवादी हैं क्योंकि वही स्वाधीनता आंदोलन के नेता थे। प्रेमचंद ऐसे राष्ट्रवादियों की कथनी और करनी में दूरी, समझौता परस्ती, ढुलमुल, अंग्रेजी राज्य से साँठ-गाँठ और दिमागी की गुलामी की असलियत सामने लाते हैं।”9

प्रेमचंद, राष्ट्रीयता को अंतरराष्ट्रीयता के समक्ष रखकर भी देखते हैं। उनका मानना है कि राष्ट्रीयता हमें दूसरे देश के नागरिकों से दूर ले जाती है। राष्ट्रीयता की भावना हमारे हृदय को विस्तार देने से रोकती है।  ऐसे में उन्होंने राष्ट्रीयता को जकड़न से जोड़कर देखा जबकि अंतराष्ट्रीयता के समर्थकों को जागरुकआत्मा माना। उन्होंने लिखा है  “सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बँटा हुआ है, और सभी एक दूसरे को हिंसात्मक संदेह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अंत न होगा, संसार में शांति का होना असंभव है। जागरूक आत्माएँ संसार में अंतर्राष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती हैं और कर रही हैं, लेकिन राष्ट्रीयता के बंधन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेख़चिल्ली समझकर उनकी अपेक्षा करता है।”10

निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते हैं कि प्रेमचंद के राष्ट्रवाद संबंधी विचार देश और जनता के पक्ष में है। वे गरीब जनता के जीवन में सुधार को ही देशभक्ति का मूल आधार मानते थे। ये विचार उन्हें गांधी से प्रभावित होकर मिला है। गांधी जी भी यह बात मानते थे कि जब तक हमारी सेवा का लाभ गरीब जनता को नहीं मिलेगा, तब तक हम देश में सुधार नहीं ला सकते हैं। आज देशभक्तों को इस पर पुनर्विचार करना होगा कि क्या वे गरीबों के लिए कुछ कर पा रहे हैं या नहीं? इसी बात से उनकी देशभक्ति का मानक तय होगा।

संदर्भ सूची :

1- प्रेमचंद, प्रकाशचंद्र गुप्त, भारतीय साहित्य के निर्माता( मोनोग्राफ), साहित्य अकादमी, संस्करण 2008,पृष्ठ 9

2- प्रेमचंद, प्रकाशचंद्र गुप्त, भारतीय साहित्य के निर्माता( मोनोग्राफ), साहित्य अकादमी, संस्करण 2008,पृष्ठ 8

3- प्रेमचंद रचना-संचयन, संपादक निर्मल वर्मा और कमल किशोर गोयनका, साहित्य अकादमी नई दिल्ली, संस्करण 2012, पृष्ठ 643

4- प्रेमचंद रचना-संचयन, संपादक निर्मल वर्मा और कमल किशोर गोयनका, साहित्य अकादमी नई दिल्ली, संस्करण 2012, पृष्ठ 645

5- प्रेमचंद रचना-संचयन, संपादक निर्मल वर्मा और कमल किशोर गोयनका, साहित्य अकादमी नई दिल्ली, संस्करण 2012, पृष्ठ 653

6-प्रेमचंद: विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता,(लेखक- राजेन्द्र शर्मा), संपादक- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्थी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2008, पृष्ठ 68-69

7-प्रेमचंद: विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता,(लेखक- मैनेजर पांडेय) संपादक- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्थी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2008, पृष्ठ 255

8-प्रेमचंद: विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता,(लेखक- मैनेजर पांडेय) संपादक- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्थी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2008, पृष्ठ 257

9-प्रेमचंद: विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता,(लेखक- मैनेजर पांडेय) संपादक- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्थी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2008, पृष्ठ 257

10-प्रेमचंद रचना-संचयन, संपादक निर्मल वर्मा और कमल किशोर गोयनका, साहित्य अकादमी नई दिल्ली, संस्करण 2012, पृष्ठ 790

 

डॉ. मोती लाल

असिस्टेंट प्रोफेसर

हिंदी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय

रोनो हिल्स, दोईमुख, ईटानगर,

अरुणाचल प्रदेश-791112

 

 

           

3 टिप्‍पणियां:

  1. सुचिन्तित आलेख जिसमें कथाकार प्रेमचन्द को संक्षेप में ही सही जनपक्षधर दृष्टि से समझने का सार्थक प्रयत्न किया गया है।-वाचस्पति, वाराणसी

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  2. बहुत ही सटीक, स्पष्ट और सूचनाओं से पुष्ट जानकारी ।ऐसे ही मार्गदर्शन करते रहे । जय हो विजय हो ।

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  3. सारगर्भित लेख

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