प्रो. हसमुख परमार
भाषा मनुष्य के सामाजिक जीवन की एक बुनियादी तथा अनिवार्य
जरूरत है। अतः दुनिया भर का प्रत्येक मानव-समाज भाषा का व्यवहार करता ही है। मनुष्य
का यह भाषा-व्यवहार उसकी बोलने, सुनने, लिखने तथा पढ़ने की क्रियाओं से जुड़ा है। जो मनुष्य बोलने,
सुनने और देखने में असमर्थ है उनके लिए भी भाषा-प्रयोग के
अन्य विकल्प खोजे गए हैं, जो उनको उपलब्ध हैं। दूसरी एक बात यह कि भाषा-व्यवहार की जिन चार क्रियाओं का
(यानी कौशलों का) हमने ऊपर उल्लेख किया है, इन क्रियाओं से पहले मनुष्य के मस्तिष्क के सोच-विचार का
माध्यम भी भाषा ही है। परंतु वह भाषा मूक यानी अध्वन्यात्मक स्वरूप में होती है।
इसी के साथ-साथ एक और संदर्भ का भी संकेत करना चाहेंगे कि भाषाविज्ञान में अवाचिक
(नॉन वर्बल) संप्रेषण तथा आंगिक भाषा की अवधारणा भी रही है,
जिसमें मनुष्य के विविध शारीरिक अवयवों के संचालन तथा चेहरे
के विविध हाव-भाव व मुद्राओं के द्वारा होने वाले संप्रेषण पर विचार किया जाता है।
हम यह भी देखते हैं कि भाषावैज्ञानिक अध्ययन के इतिहास में समय समय पर कुछ
नई-पुरानी धारणाओं - मान्यताओं का विस्तार-विकास होता रहा है। भाषा-प्रयोक्ता के
मन और मस्तिष्क से भाषा के संबंध को लेकर विचार किया जाता है,
दो शाखाओं के अंतर्गत - मनोभाषाविज्ञान [Psycholinguistics]
और स्नायविक भाषाविज्ञान [Neurolinguistics]। भाषा के मानसिक स्वरूप का अध्ययन मनोभाषाविज्ञान में तथा भाषा
के जैविक स्वरूप का अध्ययन स्नायविक भाषाविज्ञान में किया जाता है। डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र ने अपने दो आलेखों - अवाचिक संप्रेषण तथा भाषा और मस्तिष्क में
उपर्युक्त संदर्भों पर विचार किया है। ये दोनों आलेख इस विशेषांक में शामिल हैं।
दरअसल भावों और विचारों को ध्वन्यात्मक रूप में प्रकट करना
भाषा है। भाषाविज्ञान का ध्यान ध्वन्यात्मक भाषा यानी वाचिक सम्प्रेषण पर ही
अधिक रहा है। भाषा का यही रूप भाषाविज्ञान का मुख्य अध्येय विषय है। पाश्चात्य
चिंतक प्लेटो ने विचार और भाषा के संबंध को लेकर कहा है कि विचार और भाषा में
थोड़ा ही अंतर है। इसी संदर्भ में वे भाषा को परिभाषित करते हैं- “विचार आत्मा की
मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है, पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे
भाषा की संज्ञा देते हैं।”
जहाँ भाषाविज्ञान की एक शाखा या भेद-प्रकार सैद्धांतिक
भाषाविज्ञान या संरचनात्मक भाषाविज्ञान [Structural Linguistics] जो मानव भाषा का शास्त्रीय - सैद्धांतिक अध्ययन करता है,
वहीं उसकी दूसरी शाखा या भेद-प्रकार अनुप्रयुक्त
भाषाविज्ञान [Applied Linguistics], जिसमें विशेषतः भाषा शिक्षण,
भाषा व्यवहार की उक्त चारों क्रियाओं को चार भाषाई कौशल -
भाषण,
श्रवण, लेखन और वाचन के अंतर्गत रखते हुए मनुष्य के भाषा प्रयोग
तथा भाषा उपयोग की क्षमता तथा उस क्षमता को विकसित करने के बारे में विचार करता
है। इस तरह सैद्धांतिक या संरचनात्मक भाषाविज्ञान भाषा के उद्भव- विकास-वर्गीकरण
तथा उसके रूप-संरचना का सैद्धांतिक अध्ययन तथा तत्संबंधी ब्यौरा प्रस्तुत करता है
और अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान खासकर भाषाशिक्षण मनुष्य की मातृभाषा तथा ज्यादा
विस्तार से उसकी अन्य भाषा या द्वितीय भाषा [मातृभाषा से इतर] के व्यावहारिक या
प्रयोग पक्ष को समझाता है।
हमारे पारिवारिक-सामाजिक जीवन में कुछ दैनिक तथा अन्य
साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एक-दूसरे के साथ किये जाने वाले सामान्य व्यवहार
के समय मौखिक या लिखित रूप में किये जाने वाले भाषा प्रयोग तक ही भाषा का उपयोग व
महत्व सीमित नहीं है, अपितु इससे आगे भाषा मनुष्य के व्यक्तित्व व उसकी सामाजिकता के विकास का,
सभ्यता और संस्कृति की पहचान का,
साथ ही समाज के निर्माण-विकास व अस्मिता का तथा
ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार तथा अर्जन का भी एक सर्वाधिक सशक्त माध्यम है। यह
बताने की जरूरत नहीं है कि समस्त जीव-सृष्टि में, सृष्टि के करोड़ों प्राणियों में,
श्रेष्ठ व सर्वाधिक ताकतवर प्राणी मनुष्य है,
कारण है उसकी बुद्धि। और बुद्धि का आधार ही भाषा है। मानव
जीवन की सारी उपलब्धियाँ भाषामय हैं- दर्शन, अध्यात्म, साहित्य, वाणिज्य, ज्योतिष, कला, शिक्षा, विधि,
राजनीति आदि आदि । सामाजिक संरचना का आधार ही भाषा है।
वैसे भाषा कभी कभी दोधारी तलवार का भी काम करती है। क्योंकि हमें और हमारे
समाज को जोड़ने वाली यह भाषा कभी कभी इसे तोड़ती भी है।
श्लोक-संस्कार-प्रार्थना-प्रशंसा-मानवता को प्रकट करने वाली यह भाषा अपने एक दूसरे
रूप में गाली-गलौज और मनुष्य की दुष्टता-धृष्टता को भी प्रस्तुत करती है। अतः अपने
विवेक से,
अपनी सभ्यता-संस्कृति - संस्कार का सदैव स्मरण रखते हुए
लोकहित हेतु संयमित रूप से भाषा का प्रयोग करना जरूरी है।
भाषा को सीखना या भाषा की औपचारिक शिक्षा के मुद्दे को एक
प्रश्न के रूप में जब हम देखते हैं, विशेषतः भाषा शिक्षण के अंतर्गत उस पर विचार करते हैं तो
सबसे पहले हमारा ध्यान उन भाषाओं की ओर जाता है जिनसे हम जुड़े हैं या जुड़ना चाहते
हैं। ये भाषाएँ हमारे लिए मूलत: दो प्रकार की होती हैं - मातृभाषा [Mother
tongue ] यानी प्रथम भाषा।
अंग्रेजी की Native language की अवधारणा को भी हम इस भाषारूप से जोड़ सकते हैं। दूसरी -
अन्य भाषा [other language] द्वितीय भाषा [Second Language ] यानी मातृभाषा से इतर भाषा ।
वैसे प्रत्येक व्यक्ति भाषा अर्जन और भाषा सीखने की क्षमता
को लेकर जन्म लेता है। जहाँ तक मातृभाषा की बात है तो प्रत्येक बालक परिवार के
बीच रहकर सहज और स्वाभाविक रूप से मातृभाषा सीखता है। असल में मातृभाषा के इस
सहज-स्वाभाविक रूप से व्यक्ति अपनी सामान्य दैनिक-व्यवहार संबंधी आवश्यकताओं की
पूर्ति तो कर लेता है, परंतु मातृभाषा का भी एक मानक रूप जिसे जानने तथा उससे कुछ विशिष्ट
उद्देश्यों की पूर्ति हेतु मातृभाषा की भी विधिवत् - औपचारिक शिक्षा जरूरी है।
दरअसल भाषा बहुआयामी, बहुस्तरीय तथा जटिल संप्रेषण व्यवस्था है। शिक्षण के संदर्भ
में भाषा चाहे मातृभाषा हो या अन्य-द्वितीय भाषा, और अन्य-द्वितीय भाषा में भी चाहे देशी भाषा हो या विदेशी,
विविध विषय-क्षेत्रों में होने वाले प्रयोग के आधार पर हर
भाषा की एकाधिक प्रयुक्तियाँ होती हैं। विविध रूप होते हैं। मातृभाषा तथा अन्य
भाषा,
दोनों की विविध प्रयुक्तियों के मानक रूप को जानने-समझने
तथा उनका प्रयोग - उपयोग हेतु औपचारिक शिक्षा आवश्यक है। सामान्य व्यवहार तथा
निरंतर अभ्यास से श्रवण और भाषण को तो विकसित कर सकते हैं,
परंतु वाचन और लेखन कौशल को विकसित करने के लिए तो औपचारिक
शिक्षण अनिवार्य है। “आधुनिक युग की वैज्ञानिक तकनीकी और औद्योगिक आवश्यकताओं ने
मनुष्य को एकाधिक भाषाओं का व्यवहार करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए बाध्य-सा
कर दिया है। भारत प्राचीन काल से ही एक बहुभाषी देश रहा है और भारतीय एकाधिक भाषा
के व्यवहार में बराबर दक्षता प्राप्त करते आये हैं। यह दक्षता सामाजिक परिवेश से
भी प्राप्त की जाती है और औपचारिक शिक्षण पद्धति से भी । इस प्रकार अन्य भाषा
शिक्षण भी प्रशिक्षण का एक महत्वपूर्ण आयाम बन जाता है।” ['आमुख' से, भाषा शिक्षण : सिद्धांत और प्रविधियाँ, मनोरमा गुप्त, पृ.05]
भाषा का विशेष ज्ञान क्या और क्यों?
भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन- विश्लेषण क्या और किसलिए?
इन प्रश्नों और इनके उत्तर पर सोदाहरण विचार ही भाषाविज्ञान
का मूल प्रतिपाद्य है। सामान्यतः भाषा की बनावट को समझने के लिए,
भाषा कैसे काम करती है - काम करने की उसकी पद्धति को जानने
के लिए भाषा का विशेष ज्ञान या उसका वैज्ञानिक अध्ययन - विश्लेषण जरूरी है,
जिससे कि अधिक प्रभावशाली ढंग से हम भाषा का व्यवहार कर
सकें। भाषाविज्ञान में हम भाषा के माध्यम से भाषा का अध्ययन करते हैं। इसमें भाषा
ही विषय है और साधन भी। इस संदर्भ में एक अच्छा कथन पढ़ने को मिला - भाषा विज्ञान
भाषा की आत्मकथा है। भाषा का अर्थ - स्वरूप, उसका उद्भव-विकास-वर्गीकरण, उसकी बनावट तथा इसके ह्रास का भी परिचय, उसका विवेचन-विश्लेषण भाषाविज्ञान का विषय-क्षेत्र है। भाषा के
वैज्ञानिक अध्ययन के परिणाम हैं - भाषा संबंधी समस्त समस्याओं – प्रश्नों -
जिज्ञासाओं का तर्क संगत उत्तर, भाषा के शुद्ध व व्यवस्थित प्रयोग - उपयोग का ज्ञान,
भाषा की प्रकृति, उसके गठन व उसके व्यवहार की जानकारी।
'साधुत्व ज्ञानविषया सैषा व्याकरण स्मृति:'
(वाक्यपदीय)। हमारे भाषा व्यवहार
में शुद्ध - अशुद्ध प्रयोग का अच्छी तरह से ज्ञान कराने का काम व्याकरण का है।
अर्थात भाषा में कहाँ कैसा प्रयोग होना चाहिए, कैसा प्रयोग शुद्ध और कैसा प्रयोग अशुद्ध,
इस पर ध्यान रखने वाला, बताने वाला शास्त्र यानी व्याकरण। व्याकरण के अर्थ और
स्वरूप को लेकर आज वैयाकरणों ने बहुत ही विस्तार से विचार किया है। बहुत ही
संक्षेप में और सरल शब्दों में कहना हो तो - भाषा जिन नियमों से काम करती है उन
नियमों का समुच्चय व्याकरण है। इस तरह व्याकरण भाषा से कोई अलग विषय नहीं है।
भाषा-भाषाविज्ञान,
व्याकरण तथा अनुवाद डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र
केअध्ययन-अध्यापन का मुख्य विषय-क्षेत्र होने के कारण विगत लगभग चार-साढ़े चार
दशकों से इस दिशा में चिंतन-लेखन को लेकर इनकी विशेष गति-प्रगति रही है। ग्राम-
गोरया,
जि - देवरिया [उत्तर प्रदेश] में जन्मे (1953)
और वहीं पले-पढ़े मिश्र जी ने
पिछले लगभग छत्तीस वर्षों से गुजरात (वल्लभ विद्यानगर,
जिला - आणंद) को ही अपनी कर्मभूमि बनाया है। आज सिर्फ
गुजरात तक ही सीमित नहीं बल्कि देश के दूसरे प्रदेशों के एक बड़े छात्र समुदाय व
अध्यापक वर्ग में वे बतौर एक प्रबुद्ध भाषा चिंतक जाने-पहचाने जाते हैं। असल
में भाषा एवं हिन्दी व्याकरण पर मिश्र जी की मजबूत पकड़ तथा उसका गंभीर व तर्कसंगत
विवेचन-विश्लेषण उनके इस दिशा में विशेष रुझान तथा दीर्घकालीन विचार-विमर्श,
चिंतन-मनन व अध्ययन की ही देन है।
डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र ने अपनी पीएच.डी. उपाधि हेतु ‘संदेश
रासक का भाषावैज्ञानिक अध्ययन' विषय पर एक स्तरीय शोध कार्य प्रस्तुत किया। इस शोध कार्य
में संदेश रासक की भाषा के अध्ययन द्वारा हिन्दी भाषा के विकास के कुछ महत्वपूर्ण
सूत्रों को खोलने की कोशिश की गई है। यह कार्य अपने आपमें 'संदेश रासक' का व्याकरण है। इस ग्रंथ में प्रयुक्त लगभग 90 प्रतिशत शब्दों की व्युत्पत्ति शोध-प्रबंध में दे दी गई
है। हिन्दी तथा गुजराती के बीच ऐतिहासिक संबंध स्थापित करने में इस कार्य के
द्वारा मदद मिल सकती है।
पीएच. डी. शोध कार्य के उपरांत मिश्र जी ने भाषा से ही
संबंधी कुछेक शोध परियोजनाओं - स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यासों में कोड मिश्रण
तथा कोड परिवर्तन, हिन्दी-गुजराती का तुलनात्मक एवं व्यतिरेकी अध्ययन तथा आधुनिक हिन्दी
गद्य-भाषा: विकास के सोपान - में शोध विषय की शोधपरक व समीक्षात्मक
व्याख्या-विवेचन के साथ तत्संबंधी अपनी कुछ नवीन मान्यताओं को भी सामने रखा। अपने
विषय क्षेत्र को लेकर ही मिश्रजी द्वारा लिखे अनेक शोध आलेखों का विविध
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन। एक अच्छे अनुवादक के रूप में भी इनकी अच्छी - ख़ासी
पहचान रही है। इस क्षेत्र में मिश्र जी का अवदान है इनकी लगभग बारह-पंद्रह
अनूदित[गुजराती से हिन्दी] पुस्तकें। उनके अध्यापन के प्रमुख विषय भी व्याकरण,
भाषाविज्ञान, प्रयोजनमूलक हिन्दी और अनुवाद ही रहे। विशेष उल्लेखनीय बात
यह है कि महाविद्यालय तथा स्नातकोत्तर विभाग में अपनी अध्यापकीय सेवाओं से अवकाश
प्राप्त करने के पश्चात भी मिश्र जी केंद्रीय हिन्दी संस्थान के विविध केंद्रों
द्वारा अहिंदी भाषी राज्यों के हिन्दी शिक्षकों के लिए आयोजित नवीकरण कार्यक्रमों
में हिन्दी व्याकरण के अध्यापन से जुड़े हुए हैं।
गूगल और इंटरनेट के अत्यधिक वर्चस्व के इस दौर में सोशल
मीडिया आज दुनिया भर की जानकारियों के प्रचार-प्रसार तथा हमारे विचारों की
अभिव्यक्ति का एक बहुत ही सशक्त एवं व्यापक माध्यम बना हुआ है। ब्लॉगिंग,
वेब पत्रकारिता, फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप, इन्स्टाग्राम, यूट्यूब आदि के माध्यम से हम अपनी रुचि के
विषयों को लेकर अपने विचारों व जानकारियों का आदान- प्रदान करते रहते हैं।
सम्प्रति जिस 'शब्दसृष्टि' के
माध्यम से हम डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र के विचारों को आप पाठकों तक पहुँचा रहे हैं
वह भी इसी सोशल मीडिया के मंच से जुडी हुई है। यहाँ सोशल मीडिया का उल्लेख करना
इसलिए आवश्यक है कि मिश्र जी का भाषा -चिंतन एवं व्याकरण - विमर्श उनके शोध प्रबंध
तथा विविध पत्र-पत्रिकाओं तथा पुस्तकों में प्रकाशित शोध आलेखों के साथ साथ,
बल्कि उससे कहीं ज्यादा इसी 'सोशल मीडिया' के मंच से प्रस्तुत व प्रचारित हुआ है। विविध ब्लॉग,
ई - पत्रिकाएँ, फेसबुक, वेब पेज, हिन्दी छात्रों व अध्यापकों के व्हाट्सएप – ग्रुप के जरिए
उनका चिंतन-विवेचन पाठकों तक पहुँचता रहता है। साथ ही सोशल मीडिया के इस खुले व
सार्वजनिक मंच से भाषा, भाषाविज्ञान, व्याकरण, अनुवाद,
भाषा शिक्षण, शैलीविज्ञान प्रभृति विषयों को लेकर अनेक पाठक अपनी
जिज्ञासाएँ व प्रश्न मिश्र जी के समक्ष रखते हैं और मिश्र जी का यह प्रयास रहता है
कि पाठकों के प्रश्नों का सटीक व तर्कसंगत समाधान हो,
जिसके लिए वे सदैव तैयार रहते हैं।
असल में बहुत से छात्रों के लिए और कभी कभी तो कुछ
अध्यापकों के लिए भी कविता, कहानी, उपन्यास,
नाटक जैसी विधाओं से संबद्ध सृजन तथा तत्सबंधी विवेचन के
सामने भाषाविज्ञान, काव्यशास्त्र, व्याकरण जैसे विषय कुछ ज्यादा ही गूढ, गंभीर, दुरूह व नीरस रहे हैं। ऐसी बात नहीं है कि इन विषयों के
अधिकारी विद्वान व गंभीर अध्येताओं का अभाव है।विद्वान-लेखक कई हैं। उक्त विषय
संबंधी पुस्तकों-आलेखों की संख्या भी कम नहीं है। परंतु हम देखते हैं कि कुछ
अपवादों को छोडकर इन विद्वानों का एक वर्ग ऐसा है जो अपने चिंतन-लेखन के द्वारा
विषय की एक सामान्य व सतही जानकारी देने तक ही सीमित है,
इससे आगे वे बढ़े ही नहीं। जबकि विद्वानों का दूसरा एक वर्ग
ऐसा है जो विषय को इतना क्लिष्ट बना देता है कि सामान्य विद्यार्थी व कुछ अन्य
जिज्ञासु पाठकों के लिए उसे समझना मुश्किल हो जाता है। इन दोनों तरह के लेखकों से
अलग विद्वानों का एक वर्ग ऐसा है, जो कि ऐसे विद्वानों की संख्या थोड़ी कम ही कही जा सकती है
जो भाषाविज्ञान व व्याकरण जैसे गंभीर विषय को बड़ी गहराई व विस्तार से सरल सुबोध
शैली में रखते हैं। ये इन शास्त्रीय गूढ विषयों की शुष्कता का परित्याग करके
सरल-सहज भाषा में इस विषय का प्रतिपादन करते हैं। इनका उद्देश्य ही यह होता है कि
इस विषय से संबंधी कुछ उपयोगी पक्षों से जिज्ञासु पाठक सुस्पष्ट रूप से परिचित हो
सकें। डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र को भी हम इस तरह के भाषा विद्वान लेखकों में रख सकते
हैं,
जो बतौर एक विद्यानुरागी गंभीर अध्येता सहज - सरल भाषा-
शैली में प्रस्तुत विषय ( भाषा व व्याकरण) पर लेखनी चलाकर इसे समृद्ध कर रहे
हैं।
सोशल मीडिया में मिश्र जी व्याकरण तथा भाषा संबंधी पोस्ट
नियमित लिखते रहते हैं, जिसमें खासकर व्याकरण की सैद्धांतिक गुत्थियों-उलझनों को बहुत ही अच्छी तरह से
समझाते हैं। मिश्र जी द्वारा लिखी गई इस तरह की पोस्ट की संख्या काफी बड़ी है।
गुणवत्ता व परिमाण उभयदृष्टि से महत्वपूर्ण उनका यह लेखन यदि हम एकत्र करें तो इस
तरह के तो दसियों-बीसियों विशेषांक तैयार हो सकते हैं।
हमें इंतजार है मिश्र जी के इस चिंतन-लेखन को पुस्तकाकार में देखने का। संभव है कि, और पूरा विश्वास भी है कि निकट भविष्य में हमारा यह इंतजार खत्म होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि आने वाले समय में आनेवाला मिश्र जी का व्याकरण - ग्रंथ छात्र समुदाय विशेषतः विश्वविद्यालयों के स्नातक एवं स्नातकोत्तर कक्षाओं के छात्रों के लिए, साथ ही अध्यापकों तथा भाषा-व्याकरण के अन्य जिज्ञासुओं के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा ।
प्रो.
हसमुख परमार
स्नातकोत्तर
हिन्दी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ
विद्यानगर
(गुजरात)
ज्ञानवर्धक..... बहुत उपयोगी ।
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सभी जन के हित में सुंदर लेखन प्रस्तुत किया । भाषा ही मनुष्य को बेहतर बनाती है ये मनुष्य पर निर्भर करता है कि कब , कहाँ, किस तरह भाषा का उपयोग करना चाहिए । सुंदर है ये 🌻
जवाब देंहटाएंसंपादक प्रोफेसर हसमुख परमार जी ने भाषा विज्ञान पर एवं भाषाविज्ञान, व्याकरण तथा अनुवाद डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र के अध्ययन-अध्यापन में योगदान पर प्रकाश डाला है साथ ही भाषा विज्ञान जो एक कठिन विषय माना जाता है उसे सरलतम रूप में प्रस्तुत किया करने पर शुक्रिया
जवाब देंहटाएंमुकेश चौधरी, शोधार्थी हिंदी
बहुत सुंदर, उपयोगी,महत्वपूर्ण आलेख।सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंअनुपम ! प्रथम आलेख से ही 'शब्दसृष्टि' के इस विशेषांक की विशिष्टता एवम् उपादेयता ज्ञात हो रही है । बहुत आभार और सादर नमन सर 🙏
जवाब देंहटाएंज्ञान की पराकाष्ठा का मानदंड है भाषा । डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र के भाषा-भाषाविज्ञान के पीयूष स्रोत को बखूबी अभिव्यक्त किया गया है । डॉ.परमार जी ने अपनी विलक्षण लेखन प्रतिभा के माध्यम से भली-भांति भाषा के अनेक पहलुओं को उकेरा है जिसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई ।🙏
जवाब देंहटाएंभाषा के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हुए डॉ. योगेंद्रनाथ मिश्र के भाषा विज्ञान संबंधित लेखन को सरल भाषा में एवं उपयोगिता के दृष्टिकोण से उकेरा गया है । बहुत ही ज्ञानवर्धक एवं भाषा की दृष्टि से महत्वपूर्ण आलेख ।
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