शौचालय का रास्ता रोकती आचार संहिता!
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
चुनावी सरगर्मियों के बीच छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से सामने आई
यह खबर काश सच न होती कि दो प्रमुख महिला राजनेताओं को कथित रूप से चुनाव आचार
संहिता की आड़ में एक बुनियादी ज़रूरत - शौचालय - तक पहुँच से वंचित कर दिया गया!
इस घटना ने राजनीति में महिलाओं के सामने आने वाली लगातार
चुनौतियों और लिंग-समावेशी नीतियों की तत्काल ज़रूरत को तो उजागर किया ही है,
सामाजिक मानस में गहरे पैठी हुई स्त्री-द्वेषी प्रवत्ति को
भी एक बार फिर रेखांकित किया है। दरअसल, यह कोई तार्किक मुद्दा भर नहीं है,
बल्कि गहरे सामाजिक पूर्वग्रहों का प्रतिबिंब है। राजनीति
में महिलाओं को अक्सर प्रणालीगत भेदभाव से लेकर पूर्ण शत्रुता तक कई बाधाओं का
सामना करना पड़ता है। ऐसी घटनाएँ सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के बहिष्कार और
हाशियाकरण को बल देती हैं। इसलिए ओछी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर इनकी निंदा की जानी
चाहिए।
इस मामले में महिला नेताओं को परेशान करने के लिए चुनाव
आचार संहिता का बहाने की तरह इस्तेमाल किया गया, जो राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के अधिकारों की उपेक्षा का
जीता जागता सबूत है। बेशक, चुनाव के दौरान व्यवस्था बनाए रखने के लिए नियम ज़रूरी हैं। लेकिन उन्हें मौलिक
मानवाधिकारों का उल्लंघन करने के लिए हथियार नहीं बनाया जा सकता। शौचालय का
इस्तेमाल करने से रोकना न केवल इसमें शामिल व्यक्तियों की गरिमा को कमजोर करता है,
बल्कि हमारे सामाजिक-राजनीतिक सोच के भीतर लैंगिक भेदभाव के
व्यापक पैटर्न का भी प्रतीक है।
इसके अलावा, यह घटना लिंग और क्षेत्रीय असमानताओं के अंतरसंबंध को भी
रेखांकित करती है। भारत के कई अन्य राज्यों की तरह, छत्तीसगढ़ भी अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे और संसाधनों तक
असमान पहुँच जैसे प्रणालीगत मुद्दों से जूझ रहा है। महिलाएँ,
विशेष रूप से हाशिये पर रहने वाले समुदायों की महिलाएँ,
इन असमानताओं का खामियाजा भुगतती हैं और उन्हें राजनीतिक
प्रतिनिधित्व प्राप्त करने में अतिरिक्त बाधाओं का सामना करना पड़ता है। शौचालय तक
पहुँच से इनकार करना इस बात का एक मार्मिक उदाहरण है कि व्यवस्था में बैठे हुए लोग
किस हद तक असंवेदनशील हो चुके हैं - चाहे
वे किसी भी स्तर पर हों। इसका ‘श्रेय’ जितना राजनीति को जाता है,
उतना ही पुरुषवादी मानसिकता को भी। इसके चलते खुद को ‘छोटा’
कहने वाला कर्मचारी भी स्त्री की दृष्टि से नहीं सोच पाता और क्रूरता की हद तक
‘आदर्श आचार संहिता वादी’ बन जाता है!
कहना न होगा कि कुछ ‘बड़ों’ को बेहद छोटी प्रतीत होने वाली इस घटना से राजनीतिक
हलकों में लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए व्यापक सुधारों की तत्काल ज़रूरत का
पता चलता है। दुनिया भर में निर्णय लेने वाली संस्थाओं में महिलाओं का
प्रतिनिधित्व अभी भी कम है और इस तरह की घटनाएँ मौजूदा बाधाओं को और मजबूत करने का
ही काम करती हैं। इसलिए, समावेशिता और समानता के माहौल को बढ़ावा देने के लिए,
नीति निर्माताओं को कुछ बातों पर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत
है। जैसे,
राजनीति में महिलाओं की भागीदारी का समर्थन करने के लिए
शौचालय,
बाल देखभाल सेवा और सुरक्षित परिवहन जैसी सुविधाओं का
पर्याप्त प्रावधान किया जाए। बड़ी ज़रूरत इस बात की भी है कि चुनाव अधिकारियों और
पार्टी सदस्यों सहित राजनीति में शामिल तमाम लोगों को लैंगिक संवेदनशीलता और
समावेशिता का ‘विधिवत प्रशिक्षण’ दिया जाए। यह पहल रूढ़िवादिता को खत्म करने और
अधिक समावेशी राजनीतिक संस्कृति को बढ़ावा देने में मदद कर सकती है।
अंततः, यह
ज़रूरी है कि हम सामूहिक रूप से ऐसे भविष्य के लिए प्रयास करें जहाँ सभी व्यक्तियों
को,
चाहे वे स्त्री हों या पुरुष, भेदभाव के बिना राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होने और अपने
समुदाय और राष्ट्र की दिशा को आकार देने के समान अवसर उपलब्ध हों। पता नहीं,
स्त्री-पूजा का पाखंड करने वाले समाज को स्त्री-हितैषी समाज
बनने में अभी और कितना समय लगेगा!?
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा
हैदराबाद
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