“शिक्षा
शेरनी का दूध है,
जो पियेगा
वो दहाड़ेगा ।”
- डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर
शिक्षा या पढ़ाई-लिखाई का उद्देश्य सिर्फ
विविध उपाधियों तथा रोजी-रोजगार तक ही मर्यादित नहीं है, और न ही इसका अधिकार व
योग्यता किसी विशेष वर्ग, जाति और अवस्था तक सीमित । हमारी शैक्षिक योग्यता हमें
एक उपाधिधारक की पहचान देने के साथ उसी के अनुरूप रोजगारलक्षी सुविधाएँ तो उपलब्ध कराती है, पर इसकी सार्थकता यहाँ पर
ही पूरी नहीं होती, बल्कि इसके आगे वह हमारे ‘स्व’ के साथ-साथ हमें हमारे समाज,
हमारे राष्ट्र तथा हमारे बंधु-बांधव के विकास हेतु प्रेरित करने, शोषित-पीड़ित
वर्ग का उत्थान करने,
सामाजिक-राष्ट्रीय-सांस्कृतिक-मानवीय मूल्यों की रक्षा व विकास करने, सद्
विचारों को प्रचारित व क्रियान्वित करने आदि में हमारी उपयोगी भूमिका को ज्यादा से
ज्यादा ऊर्जावान व तेजस्वि बनाने से भी संबद्ध है । शिक्षा का यही महत् व मुख्य
उद्देश्य है और शिक्षित होने के सही मायने । दूसरी बात यह कि शिक्षा और शिक्षा से
अर्जित व विकसित काबिलियत मनुष्य मात्र के लिए है न कि किसी जाति-वर्ग व प्रदेश तक सीमित ।
भारत रत्न, भारतीय संविधान के निर्माता,
दलित उत्थान के महानायक, समाजसुधारक, कुशल राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्र व विधि के
प्रकाण्ड विद्वान, प्रबुद्ध लेखक-चिंतक, उच्च और स्तरीय शैक्षिक योग्यता के धनी
प्रभृति डॉ. बाबासाहब अंबेडकर के व्यक्तित्व तथा उनकी वैश्विक ख्याति के पहलू रहे
हैं । बाबासाहब के ज्ञान, समझ, साहस, दलित व स्त्री वर्ग के अधिकार हेतु दृढ़
संकल्प, समाजसुधार एवं राष्ट्र के गौरव गरिमा के प्रति प्रतिबद्धता आदि से संबंधित
उनके ऐतिहासिक कार्यों का मूल आधार उनका बौद्धिक बल रहा है जो शिक्षा से ही संभव
था । अछूतोद्धार के कार्य तथा भारतीय संविधान निर्माण में अहम भूमिका के साथ अपनी
शिक्षा-अपनी शैक्षिक योग्यता भी बाबासाहब अंबेडकर की वैश्विक ख्याति का एक प्रमुख
कारण रहा है ।
संक्षेप में, शिक्षा से मिलती है उपाधि और
रोजगार के अवसर । शिक्षा सिखाती है समता, संघर्ष व भाईचारे का पाठ । शिक्षा से
मिलती है संगठन की प्रेरणा । शिक्षा देती
है अन्याय-अत्याचार-शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने की ताकत । शिक्षा जागाती है विवेक,
चेतना और मनुष्यता । शिक्षा पैदा करती है समाज में हो रहे कुछ अनुचित व अवांछित को
दूर करने, उसे बदलने की बेचैनी । ऐसी शिक्षा को अपने जीवन में सार्थक करने वाला शिक्षित सदैव और सब जगह सम्माननीय ही होता है,
चाहे वह किसी भी जाति-वर्ग का क्यों न हो ।
“जाति न पूछो साधो की, पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।।”
- कबीरदास
किसी व्यक्ति का किसी ऊँची
या नीची जाति से होना यह समाज व्यवस्था की दृष्टि से एक अलग विषय है , परंतु किसी
ऐसे व्यक्ति को जिन्होंने अपनी शिक्षा व ज्ञान-योग्यता के बल पर अपने जीवन को अपने
समाज के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया हो और पूरे समाज की स्थिति को बदली हो, उसे
उसकी जाति विशेष के खाने में ही रखकर देखना हमारी संकीर्णता ही कही जाएगी । असल
में ऐसी व्यक्ति की पहचान उसकी जाति से
नहीं, उसकी मेहनत और योग्यता से ही होनी चाहिए ।
समाज में, सामाजिकों में संगठन और संघर्ष
के लिए एक ठोस जमीन तैयार करने में भी शिक्षा की महती भूमिका रहती है । अंबेडकर के विचार से – “समाज में शिक्षा ही समानता ला सकती है । जब मनुष्य शिक्षित हो जाता
है, तब उसमें विवेक-सोच की शक्ति पैदा हो
जाती है, जिससे उसमें अच्छे बुरे का ज्ञान और निर्णय लेने की क्षमता आ जाती है । शिक्षित व्यक्ति ही एकता के सूत्र में आबद्ध होकर,
संगठन कर निर्माण कर सकते हैं । संगठन में
ही शक्ति है और संघर्ष करने की क्षमता भी ।”
बाबासाहब अंबेडकर ने अपने जीवन तथा दर्शन
में शिक्षा को सर्वाधिक अहमियत दी । उनके विचार से व्यक्ति व समाज के विकास के लिए सबसे जरूरी शिक्षा है । ‘प्रगतिपथ’
के इस आधार ‘शिक्षा’ को उन्होंने स्त्री-पुरुष व हर वर्ग-वर्ण के समाज के लिए
आवश्यक बताया । उन्होंने स्पष्ट कहा कि पीड़ित व वंचित समाज के लिए अपनी स्थिति
में सुधार लाने का सबसे सशक्त साधन शिक्षा ही है । रोजगार के साथ-साथ हमारे नैतिक व चारित्रिक
विकास के लिए, अन्याय-शोषण के विरुद्ध अपनी चेतना को जाग्रत करने की शक्ति शिक्षा
से ही मिलती है । शिक्षा की इस उपयोगिता तथा उसके महत् उद्देश्यों को स्वयं बाबासाहब ने अपने जीवन
में सार्थक किया तथा समाज को इस दिशा में प्रेरित भी किया ।
भारत एवं विदेश के विविध शिक्षा -संस्थानों
में पढ़ाई कर अंबेडकर ने कई डिग्रियाँ प्राप्त की । उनकी शिक्षा तथा इससे अर्जित किया उनका बौद्धिक बल भारतीय समाज और
राजनीति के विविध पहलुओं में विशेष उपयोगी रहा ।
अपने देश, समाज, राजनीति के विकास के साथ साथ अपने दलित वर्ग के
उद्धार हेतु अपनी शिक्षा का उपयोग बाबासाहब का एक मुख्य उद्देश्य था । अपनी बी.ए. की पढ़ाई के बाद बड़ौदा के महाराज
के साथ अपनी एक मुलाकात के दरमियान पढ़ाई को लेकर हुई बातचीत में भी बाबासाहब ने
अपने इस उद्देश्य को स्पष्ट रूप से सामने रखा ।
“ बड़ौदा के महाराज के मन में इस तरह का विचार चल रहा था कि कुछ छात्रों को
बड़ौदा रियासत की ओर से उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका भेजा जाए । ...... महाराज ने
आम्बेडकर को दूसरे दिन आने के लिए कहा । दूसरी
मुलाकात में उन्होंने पूछा- “तुम आगे किस विषय की पढ़ाई करना चाहते हो ?” भीमराव ने कहा- “मैं समाजशास्त्र,
अर्थशास्त्र और विशेष रूप से पब्लिक फायनान्स की पढ़ाई करना चाहता हूँ । ” महाराज
का अगला सवाल था- “इस विषय की पढ़ाई करके तुम आगे क्या करना चाहते हो ?” अम्बेडकर ने उत्तर दिया- “इस विषय के अध्ययन से
मुझे इस प्रकार के रास्ते दिखाई देंगे, जिससे कि मैं अपने समाज की पतनावस्था को
सुधार सकूँ ।” आंबेडकर के व्यक्तित्व और बातचीत से बड़ौदा नरेश प्रभावित हुए बिना
न रह सके । उसी पल जैसे आंबेडकर को विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करने की स्वीकृति
मिल गई थी ।” (महानायक बाबा साहेब डॉ. आम्बेडकर (उपन्यास) मोहनदास नैमिशराय, पृ-
19)
दलित समाज से होने के कारण बाबासाहब ने
बचपन से जातिगत भेदभाव के दंश को झेला था । स्कूली जीवन के दौरान ऐसे सवर्ण
तत्त्वों, जो अस्पृश्यता को लेकर ज्यादा कट्टर थे, जिनके द्वारा बाबासाहब के साथ
काफी बुरा और अपमानजनक बर्ताव होता था । छुआछूत के इस रोग को समाज से दूर करने का
एक ही उपाय बाबासाहब को दिखाई दिया और वह था शिक्षा ।
बचपन में स्कूली शिक्षा के समय ही माँ
भीमाबाई बालक अंबेडकर से कहा करती थीं कि पढ़ाई ही एक वो रास्ता है जिस पर चलकर
कुछ कर पाओगे । “अन्य बालकों की उपेक्षा
तथा अपमानजनक व्यवहार ने उनके मन में पढ़ लिखकर ऐसा विद्वान बनने का संकल्प जगा दिया
जिसके बाद वे लोगों को मनवा सकें कि वे भी अन्य लोगों की तरह मनुष्य हैं । उन्हें समानता
का पूरापूरा अधिकार है । वे उसे लेकर ही रहेंगे । इस संकल्प व उनकी कठोर साधना का परिणाम यह होता
है कि वह सवर्ण कहे जाने वाले विद्यार्थियों से सदा आगे रहते । इसी प्रकार
उन्होंने शैक्षणिक योग्यता बढ़ाई ।” (महापुरुषों के अविस्मरणीय जीवन प्रसंग, पं.
श्रीराम शर्मा, पृ- 4.24)
पढ़ाई व डिग्रियों के मामले में अम्बेडकर अपने समय में सबसे आगे ही रहे । 1912 में बाबासाहब ने बंबई के एल्फिंस्टन कॉलेज
से बी.ए. की पढ़ाई पूर्ण की । तत्पश्चात आगे की पढ़ाई के लिए विदेश गए । इंग्लैंड,
अमेरिका तथा जर्मनी से अर्थशास्त्र, विधि, राजनीतिविज्ञान आदि विषय में पढ़ाई व शोधकार्य
कर एम.ए., पीएच.डी., एम.एससी., बैरिस्टर
एट लॉज, डी.एससी., एल.एल.डी. आदि उच्च उपाधियों से विभूषित हुए । वे घण्टों लाइब्रेरी
में पुस्तकों के अंदर ही खोये रहते । पुस्तकालय के अधिकारी भी उनकी यह
लगन,जिज्ञासावृत्ति व ज्ञानपिपासा देखकर आश्चर्य करते । “अमेरिका में भीमराव
अंबेडकर के प्रवास को उनके चरित्रकार धनंजय कीर ने ‘ज्ञानयज्ञ’ ठीक ही
कहा है । वे दिन रात ग्रंथो में डूबे रहते
।” ( गाँधी और अंबेडकर, गणेश मंत्री,पृ-129)
12 जनवरी, 1953 को उस्मानिया विश्वविद्यालय,
हैदराबाद ने डॉ. अंबेडकर को डी.लिट्. की डिग्री दी । आज विश्वस्तर के विद्वानों
में अंबेडकर की गिनती होती है । जान ग्रन्थर ने अपनी पुस्तक ‘ एशिया के भीतर’ में
बाबासाहब अंबेडकर के बारे में लिखा है- “मैं उनके दादर स्थित निवास पर गया तो उनके
पुस्तकालय को देखकर चकित रह गया । उसमें 35000 दुर्लभ पुस्तकें थीं । जिनके लिए
उन्होंने पृथक भवन बना रखा था । उनकी बातों से पांडित्य रस टपकता था और व्यवहार
में शालीनता ।
बाबासाहब अंबेडकर का जीवन समाज के लिए,
सामान्य जन के लिए बहुत ही प्रेरक रहा है । एक साधारण स्थिति व परिवेश से आया हुआ
यह व्यक्ति, जिन्होंने अपने जीवन में जातिगत अपमान व तिरस्कार को सहते हुए भी एक
आदर्श और सशक्त व्यक्तित्व की ऊँचाइयों को छूआ । और यह संभव हुआ सिर्फ और सिर्फ
शिक्षा से ही । पश्चिम के कोलंबिया विश्वविद्यालय तथा लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स, जहाँ बाबासाहब ने पढ़ाई की, स्तरीय
रिसर्च किया, आज भी उन शैक्षिक संस्थानों को भी इस बात का गौरव है कि उनके आज तक
के सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली छात्रों में से बाबासाहब अंबेडकर भी एक थे ।
अपनी शैक्षिक योग्यता तथा बौद्धिक बल के ही चलते
अंबेडकर को भारतीय संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष बनाया गया ।
संविधान निर्माण में उनका विशेष योगदान रहा । भारत के प्रथम विधि मंत्री के
रूप में उनका चयन हुआ । इसी ज्ञान-शिक्षा तथा नैतिक बल व सामाजिक समानता के आग्रह
ने उन्हें दलितों-स्त्रियों-पीड़ितो के अधिकारों के लिए आगे आने के लिए प्रेरित
किया ।
बाबासाहब अंबेडकर का लेखन हो या भाषण या फिर उनके तमाम सामाजिक-राजनीतिक कार्य, सबमें उनकी विद्वता, बहुज्ञता और अध्ययन की गहरी छाप को देश-दुनिया ने बखूबी देखा है । दलितों की आजादी उनका मुख्य लक्ष्य था । इसलिए दलितों के संगठन और शिक्षा पर वे सबसे ज्यादा तवज्जो देते हैं । उनका सूत्र ही है- “ शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो । ” ज्ञान और शिक्षा से हमें शक्ति और सम्मान प्राप्त होता है और इसीलिए बाबासाहब डॉ.अंबेडकर ने इसे शेरनी के दूध की संज्ञा दी है । ‘शेरनी के दूध’ के प्रताप से डॉ.अंबेडकर ने जो एक निश्चित समय में दलित समाज तथा हमारे देश के लिए जो अपनी अहम भूमिका अदा की वह मानवता, आधुनिक भारतीय समाज व राजनीति, तीनों के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से अंकित है ।
प्रो.
हसमुख परमार
स्नातकोत्तर
हिन्दी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर
गुजरात
– 388120
ज्ञानवर्धक । सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंसुन्दर, संक्षिप्त ,ज्ञानवर्धक जानकारी 👌🙏
जवाब देंहटाएंबाबा साहब अंबेडकर जी का जीवन परिचय , उनके विचार , कार्य , सामाजिक परिस्थितियों से संघर्ष , उनकी शिक्षा , आदि पर सारगर्भित , ज्ञानात्मक आलेख के लिए लेखक प्रो. हँसमुख परमार जी को हार्दिक बधाई ।
जवाब देंहटाएंविभा रश्मि
प्रो हसमुख परमार ने डा. भीमराव अंबेडकर के विचारों को सबके सामने लाकर रखने का सराहनीय कार्य किया है। अब लोग धीरे धीरे अंबेडकर को, उनकी नीतियों को भूलते जा रहे हैं। उन्होंने किस तरह से अपने वर्ग के लोगों को संदेश दिया है कि जीवन को कष्ट मुक्त बनाना है तो निडर बनो, शिक्षित बनो और संगठित रहो। दलित वर्ग के उद्धार के लिए जो अदभुत, अद्वितीय कार्य डा अंबेडकर जी ने किया है उसी को डा हसमुख परमार ने संक्षेप में सबके सामने रखने का प्रयास किया है। उनके इस अद्भुत प्रयास को मैं वंदन करता हूं।
जवाब देंहटाएंडा माया प्रकाश पाण्डेय,
हिन्दी विभाग, कला संकाय,
महाराजा सयाजीराव विश्व विद्यालय, बड़ौदा।