स्मृतियाँ
कुलदीप आशकिरण
सुबह शहर की
भीड़भाड़ में धकियाता
मोटरों की चिल्ल-पों के बीच
पहुँचता काम पर
और शाम को
शहर की गर्द और धुएँ की
परत थबोके
लौट आता बेजान
मुँह बाए
और रात को बिस्तर पर
नींद की आगोश में आने से पहले
घेर लेती मुझे स्मृतियाँ
मेरी आँखों के सामने
लोप्पा उछालते
फुदकती गोरकी
पेपसी की बोतल लिए
छटाँक भर तेल की खातिर
बया की दुकान की तरफ
उघार-पीठ
भागा जाता पोक्की
और उधर से
टोपरा भर तरोई लादे
दस म..ञ्.. ञ्.. दुइ किलो की गोहारी लगाता
आ रहा चोडाइया
और तब तक आने लगती
खरिहान से गालियों की आवाज
आज फिर रमरतिया झगड़ पड़ी घूर की खातिर।
ये स्मृतियाँ
मुझे सोने नही देतीं
मेरे ज़हन में आतीं
सोखना की वो दुपहरी वाली लहरें
कुम्हरगड्ढा की पोतनी
चूल्हा बनाने के लिए
तसला भर माटी की खातिर
डोलवा जाती अम्मा
और...
टूटी हुई चप्पल की बद्धी
सुतली से सहेजते
महन्ना की ओर
लकड़ी बीनने
दौड़ी जाती अनुआ।
यहाँ रात का आधा पहर बीत चुका है
पर ये स्मृतियाँ भोर की हैं
जो स्मृतियाँ नहीं
गँवई गंध हैं
जो सुबह सूर्य की लालिमा के साथ
मेरे मन को
करती हैं सुगंधित।
***
गाँव की शब्दावली.....
थबोके - लपेटे।
लोप्पा - बच्चों द्वारा छोटे छोटे कंकड़ो को उछाल कर खेला जाने वाला खेल।
टोपरा - लकड़ी की टोकरी पर टोकरी से आकार में बड़ा।
खरिहान - गाँव के बाहर एक बड़ा सा मैदान जिस पर गाँव भर के लोग अपना हक जमाते
हैं जबकि वह सरकारी जमीन होती है।
घूर - गांव का कूड़ादान (गाँव में हर व्यक्ति का अपना निजी घूर होता है)
पोतनी - कच्चे मकान की पुताई के लिए तालाब से खोद कर लाई जाने वाली पीली
मिट्टी।
महन्ना - हमारे गाँव से दूर जंगल के एक देवता।
(नोट - सोखना,
डोलवा और कुम्हरगढ्ढा गाँव के तालाबों के नाम हैं)
कुलदीप आशकिरण
शोधछात्र हिंदी विभाग,
सरदार पटेल
विश्वविद्यालय
वल्लभविद्यानगर
गवईं खुशबू से सराबोर बेहतरीन कविताएं
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ललित भाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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