धर्मो रक्षति रक्षितः
सुरेश चौधरी 'इंदु'
यदि हम धर्म की रक्षा करते हैं तो वह हमारी रक्षा करता है।
अज्ञानवश, छद्म राजनीति से ग्रषित लोगों ने मनुस्मृति को अयोग्य ही
नहीं बल्कि कलंकित तक कह दिया। जबकि मनुस्मृति सच्चे मायने में जीवन की रूल बुक है।
यह भी सच है कि पहली सदी के आसपास कथित ब्राह्मण वर्ग ने अपने वर्चस्व को बनाये
रखने के लिये इसे प्रक्षिप्त भी किया। परंतु इसके सूक्त आज भी हमे मार्ग दिखाते
हैं। यह श्लोक भी उनमें से एक है।
यह मनुस्मृति अध्याय 8 का 15वाँ श्लोक है :
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्
(मनुस्मृति 8/15)
अर्थात: धर्म का लोप कर देने से वह लोप करने वालों का नाश
कर देता है और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन
कभी नहीं करना चाहिए, जिससे नष्ट धर्म कभी हमको न समाप्त कर दे।
प्रायः हम धर्म से पूजा पद्धति को मान लेते हैं कि हमने
मंदिर जाकर पूजा कर ली इसलिए बस धर्म कर लिया अब धर्म हमारी रक्षा करेगा। जबकि
वैदिक सनातन दर्शन में धर्म कदापि पूजा पद्धति नहीं रहा बल्कि यह एक मार्ग है जिस
पर चलकर हम जीवन की आराधना करते हैं ।
इस पूरे श्लोक को समझने के लिए हमें धर्म क्या है समझना
होगा ।
वैदिक सनातन दर्शन में ‘धर्म’ शब्द ‘ऋत’ पर आधारित है। ‘ऋत’
वैदिक धर्म में सही प्राकृतिक व्यवस्था और संतुलन के सिद्धांत को कहते हैं।
अर्थात् वह व्यवस्था जो प्रकृति जनित तत्वों द्वारा पूरे ब्रह्मांड को संयमित
रखे। वैदिक संस्कृत जो कि वर्तमान संस्कृत से थोड़ी भिन्न है,
जिसमें इसका अर्थ ‘ठीक से जुड़ा हुआ,
सत्य, सही या सुव्यवस्थित’ होता है।
ऋग्वेद के अनुसार – ”ऋतस्य यथा प्रेत” अर्थात प्राकृत नियमों के अनुसार जीओ। और जो इन
नियमों का पालन करता है और प्रकृति का मान रखता है वह ही धर्म का पालन करता है।
लेकिन इस सूत्र का मात्र इतना ही अर्थ नहीं है कि प्राकृत नियमों के अनुसार
जीओ। सच तो ये है कि ऋत शब्द के लिए हिन्दी में अनुवादित करने का कोई उपाय नहीं
है। इसलिए इसको समझना ज्यादा जरूरी है, क्योंकि यह शब्द अपने आप में बहुत ही विराट है। ‘प्राकृत’
शब्द से हम भूल कर सकते हैं, अर्थ समझने में।
निश्चित ही ऋत के बहुत से आयामों में यह एक आयाम मात्र है ।
ऋत का अर्थ है – जो सहज है, स्वाभाविक है, सरल है, जिसे आरोपित नहीं किया गया है। जो अंतस है आपका,
आचरण नहीं। जो आपकी प्रज्ञा का प्रकाश है,
चरित्र की व्यवस्था नहीं जिसके आधार से सब चल रहा है,
सब ठहरा है, जिसके कारण अराजकता नहीं है। बसंत आता है और फूल खिलते हैं।
पतझड़ आता है और पत्ते गिर जाते हैं। वह अदृश्य नियम, जो बसंत को लाता है और पतझड़ को भी। सूरज है,
चाँद है, तारे हैं। यह विराट विश्व है और कहीं कोई अराजकता नहीं। सब
सुसंबद्ध है। सब एक तारतम्य में है। सब संगीतपूर्ण है। इस लयबद्धता का ही नाम ऋत
है। और यही तो प्रकृति का धर्म है , इससे अच्छा उदाहरण धर्म का क्या हो सकता है।
बहुत गूढ़ व्याख्याओं पर न जाते हुए साधारण शब्दों में कहा
जाये तो वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य को कर्म के आधार पर बाँटा गया है,
आप बताए गए माध्यम से सही-सही कर्म करते रहें तब आपके वही
कर्म,
धर्म बन जाएँगे और आप धार्मिक कहलायेंगे। मनुष्यों के लिए
यही धर्म है।
अतः आपका कर्म अगर सुकर्म है तो वही आप की रक्षा
करेगा।
सुरेश चौधरी 'इंदु'
एकता हिबिसकस
56
क्रिस्टोफर रोड
कोलकाता 700046
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