प्रेमचंद
का शिक्षा विमर्श
डॉ.
मंजु शर्मा
समाज
को व्यवस्थित, सुचारु रूप से चलाने तथा
उसके विकास के लिए शिक्षा सशक्त साधन है। शिक्षा छुआछूत से दूर, जात-पाँत
का खंडन करती है । इसके अभाव में मानवीय मूल्यों की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
अर्थात् समाज एवं देश की रीढ़ होती है, शिक्षा ।
प्रेमचंद
जी ने शिक्षा व्यवस्था को बहुत करीब से जाना था, और उसके नकारात्मक रूप पर टिप्पणियाँ की। वे शिक्षक, हेडमास्टर
तथा डिप्टी थे। उन्होंने केवल कक्षा-कक्ष की परिधि में दी जाने वाली शिक्षा को, शिक्षा
का संकीर्ण रूप माना। उनका मानना था कि शिक्षा वही है जो ‘समझ’ को विकसित करे।
प्रेमचंद की कहानियों में वर्ग संघर्ष पर कुठाराघात किया गया है।
वे
एक आदर्श अध्यापक थे ।
उनकी
कहानी ‘बड़े भाई साहब’ 1934 में लिखी गई थी । इसमें पश्चिमी शिक्षा नीति पर व्यंग्य
किया गया है। विद्यार्थियों पर पढ़ाई के अनावश्यक बोझ पर भी चोट की है। प्रेमचंद
बोझ बनती शिक्षा के विरुद्ध थे। उनकी दृष्टि में शिक्षा जीवन को सँवारने, सामाजिक
कुरितियों को दूर करने वाली होनी चाहिए। यहाँ शिक्षा पद्धति के दोषों का पर्दाफाश
किया गया है जो बच्चों को किताबी कीड़ा बना देती है। किताबी ज्ञान जहाँ कूप मंडूक
बनाता है वहाँ अनुभवी और व्यवहारिक ज्ञान जीवन की हर परिस्थिति का सामना करने में
सक्षम बनाता है। लेखक कहते हैं जीवन की समझ ‘अनुभवी ज्ञान’ से आती है।
आज
‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ में शिक्षा व्यवस्था में जिन सुधारों पर बल दिया गया
है, प्रेमचंद साहित्य में इनकी\पहले
ही दलील दी जा चुकी है। रटन पद्धति, मानवीय कुशलता, जीव-जंतु
प्रेम, नैतिक
शिक्षा आदि को महत्व दिया गया है। शिक्षा में खेल को स्थान देने से ही बालक का
सर्वांगीण विकास होता है। यह भी बड़े भाई साहब कहानी में रेखांकित किया गया है।
उन्होंने कहा था “बागवानी, खेलकूद, क्ले-मॉडलिंग, कसरत, वाद-विवाद
जैसे विषयों की भी परीक्षा की वेदी पर बलि
चढ़ा दी गई है।” आज वर्तमान शिक्षा प्रणाली में जिस सुधार की बातें हो रही है, इसकी
पहल प्रेमचंद जी ने सौ साल पहले ही कर दी
थी । शिक्षा मानव जीवन की महत्वपूर्ण इकाई है। शिक्षण में छात्रों पर पड़ने वाले
अनावश्यक बोझ,
रट्टन
पद्धति उन्हें कतई पसंद नहीं थी ।
“बादशाहों
के नाम याद रखना आसान नहीं। आठ-आठ हेनरी ही गुज़रे हैं। कौन-सा कांड किस हेनरी के
समय हुआ, क्या
यह याद कर लेना आसान समझते हो? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवाँ लिखा और सब
नंबर ग़ायब! सफाचट। सिफ़र भी न मिलेगा, सिफ़र भी! हो किस ख़याल
में! दरजनों तो जेम्स हुए हैं, दरजनों विलियम, कोड़ियों चार्ल्स! दिमाग़
चक्कर खाने लगता है। आँधी रोग हो जाता है। इन अभागों को नाम भी न जुड़ते थे। एक ही
नाम के पीछे दोयम, सोयम, चहारुम, पंजुम
लगाते चले गए। मुझसे पूछते, तो दस लाख नाम बता देता। और जामेट्री तो बस
ख़ुदा की पनाह! अ ब ज की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नंबर कट गए। कोई इन निर्दयी
मुम्तहिनों से नहीं पूछता कि आख़िर अ ब ज और अ ज ब में क्या फ़र्क़ है और व्यर्थ
की बात के लिए क्यों छात्रों का ख़ून करते हो। दाल-भात-रोटी खार्इ या भात-दाल-रोटी
खाई, इसमें
क्या रखा है;
मगर
इन परीक्षकों को क्या परवाह! वह तो वही देखते हैं, जो पुस्तक में लिखा है।
चाहते हैं कि लड़के अक्षर-अक्षर रट डालें। और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोड़ा है
और आख़िर इन बे-सिर-पैर की बातों के पढ़ने से क्या फ़ायदा।”
छात्रों
की स्थिति को लेकर प्रेमचंद जी ने शिक्षा प्रणाली तथा अध्यापकों को जिम्मेदार
ठहराया । ‘परीक्षा’ कहानी शिक्षा केवल
डिग्रियों की संख्या बढ़ाने में विश्वास रखने वालों की पोल खोलती है। इस कहानी के माध्यम से
प्रेमचंद जी कहना चाहते हैं कि मनुष्य की असली पहचान
व्यक्ति में निहित परोपकारी भाव, उदार एवं उच्च चरित्र से होती है। तभी समाज में
पृथक पहचान बन सकती है। किताबों तथा
कक्षा-कक्ष की चारदीवारी से बाहर जीव-जंतुओं के प्रति प्रेम और संवेदनाएँ उत्पन्न करे, वह
शिक्षा होती है।
एक
तरफ ‘दो बैलों की कथा’ कहानी मुक्ति के
लिए
संघर्ष
आवश्यक है लेकिन संघर्ष में विचलित हुए बिना नैतिक धर्म पर अडिग रहना सिखाती है ।
जैव-विविधता को साकार करने के लिए ऐसी रचनाएँ प्राण फूँकती है । दूसरी तरफ
स्वाधीनता में बाधक बनने वाली स्थितियों एवं व्यक्तियों के प्रति आक्रोश व्यक्त
करती है। इसमें पशुओं के प्रति आत्मीयता और मित्रता का चित्रण है।
प्रेमचंद
साहित्यकार और पत्रकार होने से पहले एक सजग अध्यापक थे। यही कारण है कि संपूर्ण
शिक्षा व्यवस्था की रग-रग से वाकिफ़ थे। शिक्षा का अभाव समाज से दूर ले जाता है।
शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो व्यक्ति को उसके परिवेश से जोड़े । समाज की व्यवस्था में
सुधार लाने के लिए अध्यापक, हमेशा तत्पर रहता है। मानवतावादी
दृष्टिकोण के कारण प्रेमचंद साहित्य में
समाज का हर वर्ग संवेदनाओं के साथ खड़ा है।
आधुनिक
युग में मनुष्य विकास तो कर रहा है किंतु अपनत्व पीछे छूट रहा है। ‘मंत्र’ कहानी
शिक्षित और साक्षर के भेद को स्पष्ट करती है। ‘बोध’ कहानी में प्रेमचंद की आर्थिक जर्जरता , जो
सामान्य रूप से एक अध्यापक की होती है
दर्शाया है, किंतु जीत मूल्यों की होती
है यह भी रेखांकित किया है ।
उपन्यास
सम्राट प्रेमचंद बहुमुखी प्रतिभा के धनी
थे। कलम के सिपाही ‘प्रेमचंद’ ने
‘कलम’ की ताकत से समाज को नई दिशा दी। समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, रूढ़ियों, दलित, जातिगत
भेद आदि समस्याओं पर कुठाराघात किया। देश परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा था उसी
समय प्रेमचंद ने न केवल ब्रिटिश सत्ता का विरोध
किया बल्कि समाज को खोखला
करती परंपराओं को भी खत्म करने का
बीड़ा उठाया। प्रेमचंद का अध्यापकीय
मन रूढ़ियों का खंडन करने के पक्ष
में होने के बावजूद आदर्श की चौकठ नहीं
लाँघता। ब्रिटिश सत्ता के दमन और अत्याचार
से त्रस्त समाज में प्रेमचंद ने लोगों को यथार्थ बोध करवाया किंतु आदर्श को नहीं
छोड़ा यह भारतीय संस्कार हैं।
राष्ट्र
भक्ति की मशाल लिए युवाओं का मार्गदर्शन किया। उनके कथानक की जमीन पर चाहे मालती मेहता (गोदान) हो, कर्मभूमि
के अमरकांत- सुखदा हो,सभी राष्ट्रीय जागरण लाने की कोशिश करते हैं।
किसानों और स्त्रियों के
प्रति हुए अन्याय को उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने अभिव्यक्ति दी। सामाजिक समस्याओं
और रुढियों के विरुद्ध आवाज़ उठाकर समाज का
मार्गदर्शन किया।
वे देशभक्त थे, स्वदेशी आंदोलन से प्रभावित
होकर इन्होंने सरकारी नौकरी तक छोड़ दी थी | कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने
अपनी रचनाओं में आम आदमी की व्यथा को अभिव्यक्त किया। यही कारण है कि प्रेमचंद के विचारों की प्रासंगिकता 21 वीं सदी
के आधुनिक समाज में भी बरकरार है ।
उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की
कृतियाँ हैं । उन्हें अपने जीवनकाल में
ही ‘उपन्यास सम्राट’ की पदवी मिल गई थी।
सत्याग्रह आंदोलन जमींदारों, साहूकारों एवं पदाधिकारियों की समस्याओं के
बारे में प्रेमचंद ने कई कहानियों में लिखा था। प्रेमचंद
नाम से उनकी पहली कहानी ‘ बड़े घर की बेटी’
ज़माना पत्रिका में छपी थी। इस
कहानी में ‘आनंदी’ पात्र घर को बिखरने से
बचाती है । यह वर्तमान पीढ़ी के लिए बड़ी सीख है। उन्होंने पारंपरिक मूल्य जो समाज
की सेहत के लिए लाभकारी हों उसका बहिष्कार नहीं होने दिया।
प्रेमचंद वर्तमान से कभी दूर नहीं गए। वे आजीवन ईमानदारी
के साथ वर्तमान काल की अपनी वर्तमान अवस्था का विश्लेषण करते रहे। उन्होंने देखा
कि बंधन समाज के भीतर है बाहर नहीं| प्रेमचंद का मानना था कि एक
बार अगर किसान तथा गरीब यह अनुभव कर सकें कि संसार की कोई भी शक्ति उनको दबा नहीं
सकती, तो
वे निश्चय ही अजय हो जाएँगे ।
‘गोदान’
के अपने मौजी पात्र (मेहता ) से कहलवाते हैं, "मैं भूत की चिंता नहीं करता, भविष्य
की परवाह नहीं करता; भविष्य की चिंता हमें कायर बना देती है।
भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है ।
हम व्यर्थ का भार अपने ऊपर लादकर रूढ़ियों और विश्वासों तथा इतिहासों के मलबे के नीचे दबे पड़े हैं। उठने
का नाम ही नहीं लेते।" यह तार्किक सोच थी प्रेमचंद की। इसी दृष्टिकोण से प्रेमचंद ने समाज को नई दिशा
दी। प्रेमचंद सेवासदन से ही शिक्षा पर बल देते हैं ।
प्रेमचंद
स्वदेशी आंदोलन से बहुत प्रभावित थे। इसका प्रभाव उनकी रचनाओं पर पड़ा। इन्होंने
समाज को नया दृष्टिकोण दिया। 'सुभागी' कहानी में बेटी द्वारा पिता
का अंतिम संस्कार करवा कर सदियों से चली आ रही परंपरा को तोड़ा और यह स्पष्ट किया
कि ‘लड़की’ लड़कों से कम नहीं है। इस प्रकार प्रेमचंद जी ने समाज में रहकर समाज की
बुराइयों पर कुठाराघात किया। गबन, सेवासदन, निर्मला आदि उपन्यासों में
स्त्रियों की समस्याओं को न केवल उठाया बल्कि उनके जीवन को एक नई दिशा भी प्रदान
की।
भारतीय
समाज की आत्मा में बसे इस मनीषी को भूलते
जाना साहित्य और समाज दोनों के लिए क्षति
है ।
डॉ. मंजु शर्मा
अध्यक्ष , हिंदी विभाग
चिरेक इंटरनेशनल स्कूल
हैदराबाद
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