संकलनकर्ता - डॉ. मुनीन्द्र मिश्र
(1)
महान दार्शनिक सुकरात से एक व्यक्ति ने पूछा- इस संसार में
आपका सबसे करीबी मित्र कौन है? सुकरात ने जवाब दिया- मेरा मन। उसने फिर अगला प्रश्न
किया-और आपका शत्रु कौन है? सुकरात ने उत्तर दिया- मेरा शत्रु भी मेरा मन ही है। इस पर वह व्यक्ति हैरत
में पड़ गया। उसने सुकरात से निवेदन किया- यह बात मेरी समझ में नहीं आई। आखिर मन
ही मित्र है और मन ही शत्रु भी। ऐसा कैसे हो सकता है?
कृपया इस बारे में विस्तार से बताएँ।
सुकरात ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा - देखो,
मेरा मन इसलिए मेरा साथी है क्योंकि यह मुझे सच्चे मित्र की
तरह सही मार्ग पर ले जाता है। और वही मेरा दुश्मन भी है क्योंकि वही मुझे गलत
रास्ते पर भी ले जाता है। मन ही में तो सार खेल चलता रहता है। मन ही व्यक्ति को
पाप कर्मों में लगा सकता है। वह बड़े से बड़ा अपराध करा सकता है। लेकिन वही उसे
उच्च विचारों के क्षेत्र में लगा सकता है।
वह व्यक्ति ध्यान से सुकरात की बातें सुन रहा था। उसने
पूछा-लेकिन जब शत्रु और मित्र दोनों हमारे साथ ही हों तो फिर हमारे ऊपर किसका
ज्यादा असर होगा? सुकरात ने कहा- हाँ, यही हमारी चुनौती है। यह हमें तय करना होगा कि हम मन के किस रूप को हावी होने
देंगे। हमने ज्यों ही उसके बुरे रूप को हावी होने दिया वह शत्रु की तरह व्यवहार
करता हुआ हमें गर्त में ले जाएगा। लेकिन सकारात्मक बातों पर ध्यान देने से वह
मित्र की तरह हमें उपलब्धियों की ओर ले जाएगा।
(2)
महर्षि वेदव्यास किसी नगर से गुजर रहे थे। उन्होंने एक
कीड़े को तेजी से भागते हुए देखा। मन में सवाल उठा- एक छोटा सा कीड़ा इतनी तेजी से
क्यों भागा जा रहा है? उन्होंने कीड़े से पूछा- ऐ क्षुद्र जंतु! तुम इतनी तेजी से कहाँ जा रहे हो?
कीड़ा बोला- हे महर्षि, आप तो इतने ज्ञानी हैं, यहाँ क्षुद्र कौन और महान कौन?
क्या इनकी सही-सही परिभाषा संभव है?
महर्षि सकपकाए। फिर सवाल किया- अच्छा बताओ कि तुम इतनी तेजी
से कहाँ भागे जा रहे हो? इस पर कीड़े ने कहा-अरे! मैं तो अपनी जान बचाने के लिए भाग रहा हूँ। देख नहीं
रहे कि पीछे कितनी तेजी से बैलगाड़ी चली आ रही है।
कीडे़ के उत्तर ने महर्षि को फिर चौंकाया। वह बोले- पर तुम
तो इस कीट योनि में पड़े हो। यदि मर गए तो तुम्हें दूसरा और अच्छा शरीर मिलेगा। इस
पर कीड़ा बोला- महर्षि! मैं तो कीड़े की योनि में रहकर कीड़े का आचरण कर रहा हूँ,
पर ऐसे प्राणी बहुत हैं जिन्हें विधाता ने शरीर तो मनुष्य
का दिया है, पर
वे मुझ कीड़े से भी गया-गुजरा आचरण कर रहे हैं। महर्षि उस नन्हे से जीव के कथन पर
सोचते रहे, फिर
उन्होंने उससे कहा- चलो, हम तुम्हारी सहायता कर देते हैं। कीड़े ने पूछा- किस तरह की सहायता?
महर्षि बोले-तुम्हें उठाकर मैं आने वाली बैलगाड़ी से दूर पहुँचा
देता हूँ। इस पर कीड़े ने कहा- धन्यवाद! श्रम रहित पराश्रित जीवन विकास के सारे
द्वार बंद कर देता है। मुझे स्वयं ही संघर्ष करने दीजिए। महर्षि को कोई जवाब न
सूझा।
मित्रों क्या हम कीट से भी गये गुजरे हैं जो हम बिना
परिश्रम ही जीवन की नैया पार लगाना चाहते हैं । कम से कम हम मनुष्य योनि में हैं
तो हमें अपनी मनुष्यता को सार्थक करना चाहिए।
(3)
एक दिन महात्मा बुद्ध के पास सम्राट श्रोणिक आए और उनसे
पूछने लगे- हमारे राजकुमार को हर तरह की सुविधाएँ मिली हैं। बड़े आवास में रहते
हैं। सेवकों की पूरी फौज है। फिर भी, वे प्रसन्न नहीं रहते। दूसरी तरफ आपके ये भिक्षु हैं। ये
पदयात्रा करते हैं। जैसा मिल जाता है, खा लेते हैं। जहाँ जगह मिल जाए,
रह लेते हैं। फिर भी, इनके चेहरे पर हमेशा प्रसन्नता बनी रहती है। इसका कारण क्या
है?
बुद्ध ने उत्तर दिया, 'प्रसन्नता खोजनी हो तो जिसके पास कुछ भी न हो,
उसमें खोजो। जिसने संकल्प करके सब कुछ छोड़ दिया,
वही प्रसन्न रह सकता है। भिक्षुक कभी प्रसन्न नहीं होगा,
क्योंकि उसने छोड़ा नहीं है। वह तो अभाव में ही जीवन जी रहा
है। अभाव का जीवन जीने वाला कभी प्रसन्न नहीं रह सकता। चिंताएँ हर क्षण घेरे रहती
हैं। जिसने जान-बूझ कर छोड़ा है, वह प्रसन्न रह सकता है। दो बातें हैं - एक छोड़ना और एक
छूटना। जिसे प्राप्त नहीं है, वह त्यागी नहीं। त्यागी वह है जो स्वतंत्र मन से त्याग कर
दे।
साधन संपन्न व्यक्ति भी प्रसन्न नहीं रह सकता। उसे संपत्ति
की सुरक्षा की चिंता सताती है। वह हमेशा भयभीत रहता है। अभय वही हो सकता है जिसने
स्वेच्छा से त्याग किया हो।' श्रोणिक को अपनी जिज्ञासा का समाधान मिल गया। ऐसा था
महात्मा बुद्ध का ज्ञान और आमजन को उनका त्याग का संदेश। हालाँकि वह जीवन में
मध्यम मार्ग के पक्षधर थे, किंतु वह मानते थे कि बिना त्याग के व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता। यदि अभाव है
तब भी चिंता है और यदि जरूरत से बहुत ज्यादा है तो भी उसकी सुरक्षा की चिंता है।
(4)
एक स्वामीजी प्रतिदिन अपने आश्रम में वेदांत पर प्रवचन दिया
करते थे। वहाँ प्रतिदिन एक खोमचेवाला भी आया करता था। एक दिन स्वामीजी ने कहा,
'परमात्मा हमसे कोई दूर थोड़े ही
है। उसे तो हम तत्काल अनुभव कर सकते हैं।' यह सुनकर खोमचेवाला स्वामीजी के पास पहुँचा और बोला,'महाराज, मैं प्रतिदिन आपके प्रवचन सुनता हूँ और सत्य पर आधारित जीवन
बिताता हूँ। फिर मुझे परमात्मा की अनुभूति क्यों नहीं होती?'
स्वामीजी ने उससे कहा, 'तुम अपने भीतर झाँको। कोई बाधा होगी,
जिसके हटते ही तुम्हें ईश्वर का अनुभव हो जाएगा।'
बात खोमचे वाले के मन में बैठ गई।
अगले दिन वह ठेके के पास खड़ा था। तभी उसने देखा तेज धूप के
चलते सड़क पर एक बूढ़ा अचानक चक्कर खाकर गिर पड़ा। खोमचे वाला दौड़कर उसके पास गया और
उसे उठाकर पेड़ की छाँव में लाया। होश में आने पर उसे ठंडा पानी पिलाया। वह बुजुर्ग
व्यक्ति अब काफी राहत महसूस कर रहा था। वह समझ गया कि यह खोमचेवाले की सेवा का ही
नतीजा है। वह कुछ कह तो नहीं सका, पर उसकी आँखों से आशीर्वाद रूपी जो अश्रु बहे,
उसे अनुभव कर खोमचेवाला कृतार्थ हो गया। इससे उसे अपार
शांति मिली। जिस अनुभव की उसे तलाश थी, वह उसे प्राप्त हो चुका था।
उसने स्वामीजी के पास जाकर सारा वृत्तांत सुनाया। स्वामीजी
बोले,
'तुमने अहंकार त्यागकर निष्काम भाव
से एक जीव की सेवा की, उससे तुम्हारी बाधा हट गई और तुम्हें परमात्मा का अनुभव हुआ। जीवन में अहंकार
और कामना जैसे प्रतिबंध परमात्मा की अनुभूति में बाधक बनते हैं। यदि हम सब कुछ
त्यागकर निष्काम भाव से सेवा कर सकें, तो हमें अलौकिक आनंद की अनुभूति हो सकती है।'
डॉ.
मुनीन्द्र मिश्र
सहायक
निदेशक
त्रिपुरा
विश्वविद्यालय
अगरतला,
त्रिपुरा - 799022
प्रेरणादायी प्रसंग। सुदर्शन रत्नाकर
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