ताँका
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
1
हवाओं संग
झूम-झूम गा रही
गेहूँ की बाली
जलकुकड़ी आई
एक बदली काली।
2
काली बदली
छा गई रात पर
चाँद बेबस
जो थे जगमगाते
अब टिमटिमाते ।
3
टिमटिमाते
देखो कितने सारे
नभ में तारे
आँचल में मुस्काते
रजनी के दुलारे ।
4
दुलारे कोई
पलती है चाहत
मिले न मिले
पर दूरी मन की
करती है आहत।
5
आहत मन
धर पाया न धीर
उमड़ी पीर
नैनों से बरसती
बनकरके नीर ।
6
नीर भरा था
टूटे जो तटबंध
रोक न पाए
मन हाथों से छूटा
सपना प्यारा टूटा ।
7
टूटा बादल
धरा की रह गई
आस अधूरी
व्याकुल मन तू क्या
बैठी अरी मयूरी !
8
अरी मयूरी
नाचता है मयूर
पंख फैलाए
गरजे जो बादल
हो गया है पागल।
9
पागल मन
मस्ती में डूब गया
किसने छेड़ी
यह मधुर तान
सुनाया प्रेमगान ।
10
प्रेमगान से
गुंजायमान धरा
अंकुर फूटा
हरियाली छा गई
खिल उठे सुमन।
11
सुमन खिले
नयनों से नयना
जब भी मिले
बही प्रेम सरिता
हैं क्यों किसी को गिले ?
12
गिले-शिकवे
लगे मन को प्यारे
कोई तो रिश्ता
बाकी है अभी तक
बीच मेरे-तुम्हारे ।
13
तुम्हारे लिए
रख छोड़ा है नाम
निर्घृण! माँगते हो
निष्ठा का मेरी
मुझसे ही क्यों दाम ।
14
दाम चुकाया
वफाओं का हमने
मिटा दी हस्ती
उसको ही हँसाया
जिसने था रुलाया ।
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
वापी (गुजरात)
अच्छे ताँका ।
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार आपका 🙏
हटाएंनवीन प्रयोग। बहुत सुंदर ताँका के लिए हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत आभार दीदी 🙏
हटाएंसुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंकितनी सुंदर तारतम्यता है। नदी का सा प्रवाह है सभी ताँका रचनाओं में। आनन्द मिला पढ़कर। बधाई आदरणीया।
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार प्रिय अनिता 🌹
हटाएं