प्रेम
प्रेमानुभव से रहित व्यक्ति
सदा अंधकार में भटकता रहता है।
प्लेटो
कभी भी प्रेम न करने की
अपेक्षा,
प्रेम करके असफल रह जाना कहीं अधिक उत्तम है।
टेनिसन
कहते हैं कि प्रेम का मजा
चखने के ही लिए आत्मा एक बार फिर अस्थि पिंजर में बन्द होने को राजी हुआ है। बाह्य सौंदर्य किस काम का जब कि प्रेम, जो आत्मा का भूषण है, हृदय में न हो। प्रेम जीवन का प्राण है । जिसमें प्रेम नहीं वह
केवल माँस से घिरी हुई हड्डियों का ढेर है ।"
ऋषि तिरुवल्लुवर
प्रेम केवल एक भावना मात्र
ही नहीं है। वह परमार्थ है, परम सत्य है, सृष्टि ही आनन्द-प्रेरणा है, ब्रह्म की शुभ्र ज्योति है, इसी के द्वारा हम ब्रह्म-विहार कर सकते हैं। केवल प्रेम
रहित व्यक्ति प्रेमोपहार पर भी हानि-लाभ या उपयोगिता के रूप में विचार करते हैं,
किन्तु यह प्रेम नहीं है।
टैगोर
प्रेम जीवन का एक ऐसा भाव है जिसके बिना सब कुछ अधूरा है,
व्यर्थ है। किन्तु कब तक है प्रेम की सार्थकता?
जब तक ‘प्रेमास्पद’ से तुम कोई अपेक्षा न रक्खो।...
प्रेम को प्रेम ही रहने
दो... उसे ‘दारुण’ मत बनने दो... प्रेम प्रेम ही रहे... ‘दण्ड’ न बन जाये। ...
प्रेम हो – नि:संदेह अपार, असीम, अनन्त भी हो किन्तु प्रेम ही रहे... प्रेमास्पद की ज़िन्दगी, उसकी अपनी निजता, अपनी खुशियों का स्रोत, उसकी व्यक्तिगत आजादी भरपूर बनी रहे तभी तुम्हारे प्रेम ही सार्थकता है... यदि तुम्हारा प्रेम ‘बोझ’ बन कर प्रेमास्पद को थकाने लगे, उबाने लगे तो समझ लो कि प्रेम की असमय अकाल मृत्यु सुनिश्चित है।
डॉ. सुधा गुप्ता
प्यार क्या है?
एक गुप्त आकाश
की तरफ़ उड़ते चले जाना।
कुछ ऐसा करना कि
हर घड़ी,
हर पल
सैकड़ों नक़ाब उठ
जाएँ,
सैकड़ों मुखौटे
गिर जाएँ।
रोशनी को पकड़कर
रखने के बजाय
उसे जाने देना।
और आख़िरकार,
बिना पैर उठाए
क़दम आगे बढ़ा देना
रूमी
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