सोमवार, 24 अक्टूबर 2022

आलेख

भक्तिकाव्य का मूल्यांकन और विश्वनाथ त्रिपाठी

डॉ. भरत वणकर

          डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक, कवि और गद्यकार के रूप में ख्यात है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी प्रगतिशील विचारधारा से संबद्ध कट्टरतारहित आलोचक के रूप में प्रधानतः मध्यकालीन साहित्य से लेकर समकालीन साहित्य तक की आलोचना में गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय देते हैं। भक्तिकविता की समीक्षा करना आलोचकों के लिए काफी चुनौतिपूर्ण कार्य रहा है। विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने मीरा एवं तुलसीदास पर एक-एक किताब लिखी है।

          विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने तुलसीदास के संदर्भ में ‘लोकवादी तुलसीदास’ पुस्तक लिखी है। हालाँकि तुलसीदास के संदर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी से लेकर डॉ. रामविलास शर्मा जी तक के विवेचन के बाद कुछ नया जोड़ पाना चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसको त्रिपाठी जी बखूबी निभाते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी जी ‘लोकवादी तुलसीदास’ पुस्तक में तुलसीदास को ‘लोकवादी’ विशेषण देने के लिए मोटे तौर पर तुलसीदास की रचनाओं को आधार बनाते हैं। त्रिपाठी जी विभिन्न उद्धरण और विशद विवरण के जरिए तुलसीदास की लोकवादिता को उजागर करते हैं। हालाँकि यह भी गौर करने वाली बात है कि वे कई ऐसे बिन्दु हैं जिनसे तुलसी की लोकवादिता खंडित होती है उनको भी पेश करते हैं।


          ‘लोकवादी तुलसीदास’ पुस्तक को त्रिपाठी जी ने चार अध्यायों में विभक्त किया है। जिसमें ‘तुलसी के राम’, ‘तुलसी का देश’, ‘कलियुग और रामराज्य’, ‘तुलसी की कविताई’ आदि है। प्रथम अध्याय ‘तुलसी के राम’ में त्रिपाठी जी तुलसी के ‘राम के रामत्व’ को अन्य रचनाओं के राम से पृथक करते हुए उनकी विशिष्टता को सामने लाते हैं। त्रिपाठी जी अपने द्वितीय अध्याय में तुलसीदास की प्रकृति और जनसमाज संबंधी समझ की व्यापकता और गहराई को विस्तार से प्रस्तुत करते हैं। त्रिपाठी जी तुलसीदास की लोकप्रियता के कारण उनकी कविता में यथार्थवाद का निरूपण, तुलसी की कवि प्रतिभा और उनकी रचनाशैली आदि बातों पर प्रकाश डालते हैं। त्रिपाठी जी तृतीय अध्याय ‘कलियुग और रामराज्य’ में तुलसी वर्णित कलियुग की विषमता और रामराज्य के स्वप्न के प्रारूप को सामने रखते हैं। ‘लोकवादी तुलसीदास’ पुस्तक के अंतिम अध्याय में त्रिपाठी जी तुलसी के रचनाकौशल और कविता विवेक की बहुआयामी विशेषताओं के सोदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

          विश्वनाथ त्रिपाठी, ‘लोकवादी तुलसीदास’ की भूमिका में तुलसीदास की लोकप्रियता को लेकर चर्चा करते हैं और उसमें तुलसी की कविता को देखे-भोगे जीवन का चित्रण एवं यथार्थ का निरूपण करनेवाली बात को तुलसी की लोकप्रियता का आधार बताते हैं। हालाँकि जहाँ तक मेरा मानना है कि भारतीय सदियों से धर्मभीरू रहे हैं और कहीं न कहीं यही सोच तुलसी की लोकप्रियता का कारण हो सकती है। क्योंकि भक्तिकाल में और कई बड़े निर्गुण कवि हुए हैं जिनकी लोकप्रियता तुलसी जितनी नहीं है।

          डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जी राम के चरित्र-चित्रण से लेकर ‘रामचरित मानस’ में प्रकृति चित्रण, राम-राज्य की कल्पना, सुराज्य, तुलसी की कविताई लेकर तुलसीदास की कवि प्रतिभा में त्रिपाठी जी राम के उदात्त और आदर्श एवं मर्यादावादी चरित्र को उजागर करते हैं, हालाँकि वह तुलसी के वर्णव्यवस्था पर जोर देनेवाली बात की भर्त्सना भी करते हैं। तुलसी के राम भवभूति और वाल्मीकि के राम से भिन्न और लोक से जुड़े व्यक्ति के रूप में उजागर होते हैं, जिसका जायजा त्रिपाठी जी लेते हैं और इसकी पुष्टि के लिए वह शुक्लजी की ‘तुलसीदास’ पुस्तक की वनगमन की कुछ पंक्तियों का जिक्र करते हैं कि ‘‘पथिक वेश में राम लक्ष्मण वन के मार्ग में चले जा रहे है। क्षमा कीजिएगा यह हमें मनोहर लगा है इससे बार-बार सामने आया करते है... एक सुंदर राजकुमार के छोटे भाई और स्त्री को लेकर घर से निकालने वन-वन फिरने से अधिक मर्मस्पर्शी दृश्य क्या हो सकता है।’’1

         तुलसी की श्रेष्ठता के आधार त्रिपाठी जी 19वीं शती के सामान्य भारतीय जीवन को मानते है। तुलसी के राम वाले प्रकरण में त्रिपाठी जी राम का कोल, किरातों से, निषाद बंदर-भालू, ग्रामजनों आदि से घुल-मिल जाना सभी बातों को पेश करते हैं।

          त्रिपाठी जी तुलसी का देश प्रकरण में देश की प्रकृति जिसमें नदियाँ, धरती, वन-उपवन, खग-मृग, पक्षी, पर्वत, देश की जनता, गाँव, नगर और देश की भाषा आदि बातों को मुखऱ करते हैं। तुलसीदास को प्रायः नारीनिन्दक के रूप में उनकी आलोचना होती है। यद्यपि त्रिपाठी जी इस बात की जितनी आलोचना करते है साथ ही वह यह भी कहते हैं कि नारी के विविध रूपों में तुलसी ने चित्रित किया और जितनी सहानुभूति तुलसी ने नारीपात्रों को दी है उतनी मध्यकाल के किसी अन्य कवि ने नहीं दी। हालाँकि यह बात गौर करनेवाली है कि मध्यकाल के निर्गुण और सगुण कवियों ने भी स्त्री के मायावाले रूप की अवहेलना की है। त्रिपाठी जी तुलसी को नारी निन्दक के रूप में घोषित करनेवाले विद्वानों को चुनौती भी देते है। त्रिपाठीजी तुलसी नारीनिन्दक के रूप में स्वीकार भी करते है और नारी के विविध रूपों में उजागर करने में उनका समर्थन भी करते हैं।

          तुलसीदास वर्णव्यवस्था के समर्थक थे यह बात भी विद्वानों के बीच विवादास्पद रही है। यही बात तुलसी की महानता, कवि प्रतिभा और लोकप्रियता होने के बावजूद उनका रामचरितमानस आज भी शूद्रों के बीच अप्रिय रहा है। त्रिपाठी जी तुलसीदास वर्णाश्रम व्यवस्था के कायल, वेदान्त और पौराणिक विचार धाराओं के हिमायती और पोषक थे ऐसा मानते है और तुलसी स्थापनाओं की आलोचना भी करते है। एक तरफ आदर्शवादी परंपरा के तहत उनका समर्थ करके दोहरा मानदंड अपनाते हैं।

          कलियुग और रामराज्य प्रकरण में तुलसी ने कलियुग अर्थात 16वीं-17वीं सदी के भारत का यथार्थ वर्णन किया है। यद्यपि तुलसी का रामराज्य वर्णव्यवस्था के ढाँचें में ही कल्पित है। वैसे तो कलियुग का वर्णन तुलसीदास ने रामचरितमानस और कवितावली में किया है। कलियुग की बुराइयों का कारवाँ तुलसी वर्णाश्रम-व्यवस्था के परित्याग को मानते है। हालाँकि त्रिपाठी जी इस बात से अपनी असहमति प्रकट करते है। त्रिपाठी जी तुलसी के रामचरितमानस की अपेक्षा कवितावली के वर्णन को अधिक यथार्थपरक, वास्तविक और मार्मिक मानते हैं।

          विश्वनाथ त्रिपाठी जी की मार्क्सवादी विचारधारा तुलसीदास की कड़ी आलोचना करती है। कलियुग संबंधी तुलसी की धारणा और जिस वर्णाश्रम व्यवस्था के तुलसी समर्थक है वही स्वयं उनको पीड़ित करती है तब वह उसको कलियुग का प्रभाव नहीं मानते इस बात पर त्रिपाठी जी अपनी टिप्पणी रखते हैं कि ‘‘तुलसीदास ने जो वर्णाश्रम परम्परा प्राप्त की थी उसके कारण एक और तरह का कलियुग वे स्वयं झेलते हैं उससे पीड़ित होते हैं, उसका वर्णन भी खूब करते हैं, लेकिन उसे कलियुग नहीं कह पाते उसका वे समर्थन करते है। कट्टर पंडितों और वर्णाश्रम व्यवस्था ने पीड़ित किया था। किन्तु इस पीड़न को कलियुग का दुष्प्रभाव नहीं मानते। वर्णाश्रम व्यवस्था का विरोध करने के लिए कबीरदास की भाँति जुलाहे के घर में पैदा होना पड़ता है।’’2 त्रिपाठी जी भारतीय सवर्ण की संकीर्णता की ओर भी संकेत करते हैं।

          तुलसीदास के समय में कलियुग के साथ-साथ रामराज्य यानी अच्छे लोग भी थे जिसका जिक्र त्रिपाठी जी करते हैं। भाषा विषयक दृष्टि में ही उनकी लोकप्रियता का असली भेद छिपा हुआ है। यही प्रमुख बात है कि शास्त्र भाषा के स्थान पर तुलसी ने लोकभाषा को अपनाया। सामन्तवादी व्यवस्था का विरोध भी तुलसी के यहाँ मिलता है और रामचरित-मानस एवं तुलसी की अन्य कृतियों में सुराज की कल्पना दिखलाई देती है। इन सभी बातों का त्रिपाठी जी ने बखूबी चित्रण किया है।

          नारी विमर्श के इस दौर में प्रगतिशील चेतना को रामराज्य की अवधारणा शीर्षक पर ही आपत्ति है। यद्यपि रामराज्य की कुछ बातें आज भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। जिसका जिक्र त्रिपाठी जी करते हैं कि न्याय, विवेक, संयम, नैतिकता आदि आज भी हमारे लिए और हमेशा के लिए अर्थपूर्ण है। दैहिक भौतिक तापों से मुक्त शासन व्यवस्था हमेशा स्वीकार्य होगी।

          तुलसीदास जितने भक्ति के क्षेत्र के महान थे उतने कविता क्षेत्र में भी थे। तुलसी की कविता को लेकर त्रिपाठी जी के दृष्टिकोण की  चर्चा करते है तब राम-भरत मिलन, चरित्र-विधान, संयम और संकोच, सहजता, रूपक, ध्वनीयोजना, अलंकार योजना, अनुप्रास आदि की चर्चा को विशेष वेग मिला है। तुलसी की कविताई प्रकरण में तुलसी की कविता के विविध पहलुओं को उजागर किया है। तुलसी के यहाँ ध्वनियोजना के विनियोग पर त्रिपाठी जी टिप्पणी करते हैं कि – “शब्दों की ध्वनि योजना द्वारा अर्थ झंकार देने में तुलसीदास जैसी निपुणता हिन्दी के किसी अन्य कवि के पास नहीं है। शायद संस्कृत का भी कोई कवि इस क्षेत्र में उनके सामने नहीं ठहर सकेगा। डॉ. रामविलस शर्मा ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि भाव के साथ ध्वनि की तरंगे उठाने-गिराने में वह( तुलसीदास) अद्वितीय है।’3

          अतः अंत में रामायण के गुण और दोष की जहाँ तक बात है मैं अदित्या प्रसाद त्रिपाठी के आलेख लोकप्रियता और प्रगतिशीलता के निकष पर तुलसीदास में से डॉ. लोहिया का प्रस्तुत कथन रखना चाहूँगा कि ‘‘तुलसी की रामायण में निश्चय ही सोना, हीरा, मोती बहुत है, लेकिन उसमें कूड़ा और उच्छिष्ट भी काफी है। मोती को चुनने के लिए कुड़ा निगलना जरूरी नहीं है न ही कूड़ा साफ करते वक्त मोती को फेंकना।’’4

          कुल मिलाकर विश्वनाथ त्रिपाठी की लोकवादी तुलसीदास पुस्तक पाठकों को तुलसी संबंधी पूर्वाग्रह से बाहर निकालने का कार्य करती है। तुलसीदास पर त्रिपाठी जी यह एकमात्र ऐसी किताब है जो तुलसीदास संबंधी कई भ्रांतियों को तोड़ने का काम करती है। हालाँकि लेखक ने सिर्फ तुलसीदास का स्तुति गान नहीं किया है लेकिन तुलसी के उन पदों पर भी त्रिपाठी जी विस्तार से प्रकाश डालते हैं जो उन्हें वर्णव्यवस्था के करिब लाता है। विश्वनाथ त्रिपाठी तुलसीदास को मानवीय करूणा का अन्यतम अद्धितीय, अप्रतिम कवि मानते हुए उसे लोकवादी सिद्ध करते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी अपने विचार के साथ कार्लमार्क्स, आई-ए-रिचर्डस, रामचन्द्र शुक्ल, रामविलास शर्मा जैसे विद्वानों को भी उद्धृत करते है। त्रिपाठी तुलसीदास की रचनाओं को देशकाल-सापेक्ष में देखने का आग्रह करते है, बगैर इसके अंतर्विरोधों को पहचाना नहीं जा सकता।

          मीरा काव्य के मूल्यांकन को लेकर डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जीने मीरा का काव्य पुस्तक लिखी है। मीरा संबंधी आलोचना में यह बहुत चर्चित किताब है। मीरा काव्य को लोकोन्मुखता और मानवतावादी द्रष्टि को उजागर करने का श्रेय निश्चित रूप से प्रगतिशील आलोचना को जाता है। मीरा का काव्य किताब को त्रिपाठी जी ने चार अध्यायों में विभक्त किया है। जिसमें वर्णव्यवस्था, नारी और भक्तिआंदोलन, मीरा और गिरधऱ नागर, मीरा की कविता, मीरा का काव्य’ क्रमशः है। अगले तीन अध्यायों में समीक्षा है और अंतिम अध्याय मीरा का काव्य में मीराबाई के पदों को रखा है।

          डॉ. त्रिपाठी मीरा का काव्य के प्रथम अध्याय वर्णव्यवस्था नारी और भक्ति आंदोलन में भक्ति आंदोलन में नारी की स्थिति और वर्णव्यवस्था संबंधी समीक्षा करते है। यह अध्याय भक्तिआंदोलन में नारी की स्थिति और वर्णव्यवस्था का गहरा अध्ययन करता है। इस अध्याय में प्रमुख रूप से दक्षिण में भक्ति का उदय, शंकराचार्य और रामानुजाचार्य के सिद्धांतों में वैचारिक भेद, भक्तिआंदोलन के उदय पूर्व की स्थिति वर्णव्यवस्था और नारीपराधीनता, शिल्पकारों की स्थिति, जुलाहा और बुनकरों पर विशेष चर्चा, जातिप्रथा और शुद्रों की स्थिति, रामानंद, नामदेव, रैदास, कबीर, नरसी मेहता, तुलसी के यहाँ नारी का स्थान एवं भक्ति आंदोलन और सामंतवादी सभ्यता आदि बातों पर विशेष चर्चा करते हैं। साथ ही त्रिपाठी जी क्षितिमोहन सेन, इरफान हबीब, सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त, डॉ. रामविलस शर्मा, डॉ. रामशरण शर्मा, हजारीप्रसाद व्दिवेदी, के दामोदरन, डॉ. श्री निवास आदि के उद्धरणों को पेश करके अपनी आलोचना को अर्थवान बना देते हैं।

          मीरा काव्य की समीक्षा में त्रिपाठी जी मीरा के वैधव्य पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। इस संदर्भ में त्रिपाठी जी लिखते हैं कि ‘‘मीरा का जीवन-संघर्ष उसके वैधव्य से प्रारंभ हुआ। मीरा पति की मृत्यु पर सती नहीं हुई और भक्तिन हो गई। मीरा की कविताओं में अलौकिक प्रियतम को पाने की आतुरता न पा सकने की व्यथा, उसके पास पहुँचने से रोके जाने का आक्रोश, अपनी असहायता उसे भावजगत में प्राप्त कर लेने की ललक-सब कुछ विद्यमान है।’’5

          प्रस्तुत कथन में देखा जाए तो अलौकिक प्रियतम और उससे मिलन पर पाबंदी, दो बातें महत्वपूर्ण है। हालाँकि इसमें अलौकिक प्रियतम से मिलन की बात हो तब यह मिलन कैसे संभव है यह सवाल है। तब अलौकिक प्रियतम छल है या फिर उसके मिलन की पाबंदी में झूठ। इन दो विरोधपूर्ण स्थितियों में स्त्री की पवित्रता खतरे में पड़ जाती है और मीरा एक स्त्री न रहकर एक भक्तिन में सिमटकर रह जाती है।

          मीरा और गिरधर अध्याय में मीरा का नारी विद्रोह मीरा का वैधव्य, जोगी संबंधी चर्चा, नारी पराधीनता, कबीर-तुलसी मत का उल्लेख, परशुराम चतुर्वेदी और डॉ. पदमावती शबनम के अभिमत को रखकर त्रिपाठी जी मीरा काव्य की समीक्षा करते हैं।

          मीरा का काव्य पुस्तक का तीसरा अध्याय है मीरा की कविता प्रस्तुत अध्याय में मीरा काव्य में प्रेमचित्रण लोकलाज को तोड़ना, दरद दीवानी मीरा, मीरा काव्य में विरह, मीरा काव्य में ध्वनियोजना, मीरा की शब्दावली आदि बिंदुओ पर चर्चा करते हैं। त्रिपाठी जी इस अध्याय में मीरा की शिल्पगत विशेषता की ओर हमारा ध्यान इंगित करते हैं। अधिकतर विद्वानों का यह मानना है कि भक्तिकाल के अन्य भक्त कवियों के मुकाबले मीरा के यहाँ सामंती व्यवस्था से सीधी टकराहट है।

          विश्वनाथ त्रिपाठी जी मीरा की कविता की समीक्षा करते हुए सूर-तुलसी कबीर आदि का जिक्र करते हैं और कई बार इनकी तुलना भी करते हैं। जहाँ कविता में निरलंकृति की बात हो, सत्संग की बात हो आदि में मीरा की तुलना इन कवियों के साथ करते हैं। हालाँकि मीरा की सपाट व सरल पंक्तियों में भी भाव सौंदर्य की मौजूदगी को वह स्वीकार करते हैं।

          कुल मिलाकर त्रिपाठी जी मीरा काव्य की समीक्षा में मीरा की वेदना, मीरा का आत्मनिवेदन, सामंती व्यवस्था विरोधी स्वर, मीरा का पतिव्रत्य धर्म और सदाचार, मीरा काव्य में विरह वेदना, ध्वनियोजना, बम्बयोजना आदि मुद्दों की गंभीर एवं मार्मिक चर्चा करते है। साथ ही मध्यकालीन नारी की स्थिति और वर्णव्यवस्था का गहरा पर्यवेक्षण करते हैं।

          विश्वनाथ त्रिपाठी की मीरा का काव्य पुस्तक में भक्तिकाव्य को सामाजिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया गया है। हालाँकि यह कोई नया प्रयास नहीं है लेकिन जिन तथ्यों और बिंदुओं पर जोर दिया गया है और जिस अनुपात में संजोया गया है यह नया है। विश्वनाथ त्रिपाठी मीरा काव्य का मूल्यांकन करते हुए कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, प्रसाद, महादेवी, मुक्तिबोध, रामानंद, तिलक, गाँधी की काव्य स्मृतियों और विचार संघर्ष में गूँथी सजीव अनुभूति की प्रस्तावना करते है। मीरा की काव्यानुभूति का विश्लेषण करते हुए लेखक ने अनुभूति की उस द्वंद्वमयता का सटीक विश्लेषण किया है।

संदर्भ सूची

1.  लोकवादी तुलसीदास, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, पृ. 25

2.  वही, पृ. 89

3.  वही, पृ. 138

4.  भक्तिकाल के प्रमुख कवियों का पुनर्मूल्यांकन, - संपादक डॉ. ओमप्रकाश त्रिपाठी, प्रा. लता शिरोड़कर, पृ. 168

5.  मीरा का काव्य डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, पृ. 65 

 

 


डॉ. भरत वणकर

थाणासावली

तहसील - लुणावाडा

जिला – महिसागर

गुजरात


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