स्वाधीनता
संग्राम की कुछेक वीरांगनाएँ
डॉ. पूर्वा शर्मा
मातंगिनी
हाजरा (गाँधी बूढ़ी)
(19 अक्टूबर,1870 - 29 सितम्बर,1942)
क्या देश प्रेम के लिए कोई उम्र होती है ? नन्हा बालक हो या वृद्ध व्यक्ति, देशप्रेम का रंग किसी उम्र का मोहताज नहीं, वो तो सर चढ़कर बोलता है। ‘गाँधी बूढ़ी’ के नाम से प्रसिद्ध ‘मातंगिनी हाजरा’ एक ऐसी वीरांगना थी जिन्होंने 62 वर्ष की आयु में देश में हो रहे स्वाधीनता आंदोलन में वर्ष1932 में पहली बार भाग लिया।
पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) मिदनापुर जिले के होगला
ग्राम में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में जन्मी मातंगिनी हाजरा का विवाह 12 वर्ष की
आयु में 62 वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से हुआ। विवाह के छह वर्ष के उपरांत मात्र
18 वर्ष की आयु में वह निःसन्तान ही विधवा हो
गयीं। विधवा होने के बाद कुछ समय तक मतंगिनी अपने पिता के घर रही। उस समय विधवा
विवाह ज्यादा प्रचलन में नहीं था। दूसरा उनका सौतेला पुत्र जो उनसे उम्र में बड़ा
था, उनसे बहुत घृणा करता था। बाद में मातंगिनी अपने पति के विशाल घर के पास ही एक
अलग झोपड़ी में रहने लगीं। मजदूरी करके जीवनयापन करने लगीं।
1932 में वे नमक सत्याग्रह से जुड़ी और पुलिस की लाठियों का सामना करते हुए लहूलुहान होने के बावजूद बेहोशी की हालत में भी ‘वंदे मातरम’ का स्वर उनके मुख से बंद न हुआ। 1933 में तामलुक में गर्वनर एण्डरसन के विरोध प्रदर्शन में मातंगिनी हाजरा काला झण्डा लिए सबसे आगे खड़ी थी। इस नेतृत्व के परिमाणस्वरूप उन्हें छ माह का कारावास भोगना पड़ा। उनकी इस पहली जेल यात्रा ने उनके ज्ञान चक्षु खोल दिए और वहाँ से बाहर निकलकर उन्होंने अस्पृश्यता निवारण, कौमी एकता, ग्रामोद्योग जैसे कई रचनात्मक कार्य किए। दलितों, पीड़ितों, गरीबों के दुःख दूर करने का प्रयास किया। वह स्वयं भूखी रहकर भिखारियों को भोजन दे देती। उनका कहना था कि ‘मेंरी मौत किसी रोग से नहीं होगी, मैं तो अपने देश की खातिर अपनी जान दूँगी’। इस तरह की निःस्वार्थ भावना के चलते बंगाल में मातंगिनी को ‘गाँधी बूढ़ी’ के नाम से जाना जाने लगा।
‘गाँधी बूढ़ी’ की देशभक्ति की ज्वाला दिन-ब-दिन प्रगाढ़ होती चली गई।1942 में ‘भारत
छोड़ो आंदोलन’ के चलते एक सभा का आयोजन हुआ। 29 सितम्बर, 1942 के दिन लगभग 5000
लोगों की रैली में ‘गाँधी बूढ़ी’
भी शामिल हुई। कुछ देर बाद पुलिस की बंदूकों से गोली बरसने लगी और मातंगिनी उस
रैली के बीच से निकलकर आगे आ गईं। तिरंगा अपने हाथ में लेकर वे नारे लगाने लगी।
जैसे ही उनके बाएँ हाथ में एक गोली लगी उन्होंने तिरंगे को दूसरे हाथ में ले लिया
और फिर उनके दाएँ हाथ में भी गोली लगी।
इसी के साथ तीसरी गोली उनके माथे पर लगी। और वे वहीं पर लुढ़क पड़ी। इसी के
साथ तिरंगा उनके रक्त से सनकर लाल हो गया। गाँव की एक अनपढ़, सत्याग्रही वृद्धा पर
स्वतंत्रता का प्रगाढ़ रंग देश की आज़ादी की सार्थकता को दर्शाता है।
बहुरिया रामस्वरूपा देवी (बिहार की लक्ष्मी बाई)
(9 अगस्त,1884 - 23
नवम्बर,1953)
बिहार के भागलपुर के तिरमुहान गाँव के अति सम्पन्न परिवार
में बाबू भूपनारायण सिंह के यहाँ जन्मीं रामस्वरूपा नौ वर्ष की बाल्यावस्था में ही
हरिमाधव प्रसाद सिंह के साथ वैवाहिक बन्धन में बँध गईं। पति हरिमाधव प्रसाद सिंह
छात्र जीवन से ही स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े थे जो कि एक महान स्वतंत्रता सेनानी
बने। इसी कारण रामस्वरूपा देवी के हृदय में क्रांति का सुलगना स्वाभाविक था। हिन्दी,
अंग्रेजी और उर्दू का अच्छा ज्ञान रखने वाली बहुरिया मैट्रिक
तक पढ़ी थी।
1930 ई. के नमक सत्याग्रह के दौरान बहुरिया के पति हरिमाधव प्रसाद
की गिरफ्तारी हुई और उन्हें हजारीबाग जेल की
यात्रा करनी पड़ी। स्वतंत्रता की लड़ाई को गति देने के लिए बहुरिया अपने पति के घर
अमनौर आई और परंपरा के अनुसार उन्हें हवेली के भीतर रहना पड़ा। लेकिन उनके हृदय में
सुलग रही क्रांति की आग ने उन्हें इस दीवार से बाहर आने पर मजबूर किया। इसी के साथ
उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर गाँधी जी के अहिंसक सत्याग्रह के संदेश को अनेक जगह पर
पहुँचाया। बहुरिया अब ब्रिटिश सरकार के लिए खतरा बन चुकी थी। उनके खिलाफ़ गिरफ्तारी
का वारंट जारी हुआ। अपने क्रांतिकारी पति से वह हजारीबाग जाकर जेल में मिली। उस समय
ब्रिटिश हुकूमत ने कांग्रेस को गैर-कानूनी घोषित कर दिया था। राहुल सांकृत्यायन से
विमर्श कर उन्होंने गिरफ्तारी देने का निर्णय लिया। जब पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार
कर लिया तो क्रांतिकारी जनता सड़क पर लेट गयी। पुलिस की लाख कोशिशों के बावजूद लोग
नहीं उठे तब अंग्रेज अधिकारियों ने उन पर गाड़ी चलाने का आदेश दिया। बहुरिया इस नाजुक
स्थिति को देखकर जीप गाड़ी से कूद पड़ी और बोली – “क्या मेंरी इच्छा के बिना एक कदम
भी आगे ले जा सकते हो?” उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा – “भाइयों! आप मेंरी
चिंता न करें। मैं पकड़ी गई तो कोई बड़ी बात नहीं…….. मैं कुछ ही दिनों में आपके बीच आ जाऊँगी।” गाँधी इरविन
समझौते के बाद देश के अन्य सत्याग्रहियों के साथ इन्हें भी रिहा किया गया।
1932 ई. में गया में भारतीय महिला कांग्रेस का अधिवेशन में
सभाध्यक्ष सरोजनी नायडू नहीं आ सकी तो अध्यक्षता रामस्वरूपा देवी को ही करनी पड़ी।
उनके उत्तेजक भाषण के कारण उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया।
19 अगस्त, 1942 को छपरा जिले के मढौरा थाना क्षेत्र में एक सभा में बहुरिया
ने अपना ओजस्वी भाषण प्रारंभ किया और अंग्रेजों ने अंधाधुंध गोलियाँ बरसाई। जनता
में भ्रम फैल गया कि बहुरिया को गोली लगी और देखते ही देखते खेत में छुपे हुए
हजारों स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेज सिपाहियों पर पत्थर, ईंट आदि लेकर टूट पड़े। इसमें
सात सिपाहियों को मारकर नारायणी नदी में फेंक दिया। बाद में कांग्रेस के नेताओं के
कहने पर बहुरिया ने समर्पण कर दिया और उन्हें भागलपुर जेल भेज दिया गया।
आज़ाद भारत के बिहार के पहले विधानसभा चुनाव में वह भारी मत
से विजयी हुई। लेकिन वे देश की सेवा अधिक दिनों तक कर न सकीं और नवम्बर 1953
में वह नश्वर शरीर छोड़ चली । देश की सेवा करने वाली इस ‘बिहार
की लक्ष्मीबाई’ को शत-शत नमन।
नेली सेनगुप्त
(12 जनवरी,1886 - 23 अक्टूबर,1973)
अपने देश, अपनी मिट्टी की खातिर जान की बाजी लगा देने वाले
अनेक भारतवासियों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपना योगदान दिया। लेकिन जो भारत
में जन्मा न हो फिर भी भारत के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दें ऐसे बिरले
व्यक्तित्व को पाकर हमारा देश गर्वित है।
नेली सेनगुप्त एक ऐसी ही वीरांगना है जिनका जन्म फ्रेडरिक विलियम ग्रे और एडिथ हेनरीटा ग्रे
दंपति की बेटी के रूप में कैम्ब्रिज (इंग्लैंड) में हुआ। जन्म से भले ही वह एक
अंग्रेज थी लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। स्वतंत्रता
सेनानी जतिंद्र मोहन सेनगुप्त इंग्लैंड में अपनी पढ़ाई के दौरान नेली से मिले और
दोनों ने प्रेम विवाह कर लिया। विवाहोपरांत वे भारत आ गई और उन्होंने अपना जीवन भारत
की सेवा में ही समर्पित कर दिया।
1921 के असहयोग आंदोलन में नेली ने अपने पति का साथ दिया। 1931
में एक गैरकानूनी सभा को संबोधित करने के लिए नेली को चार महीने के लिए दिल्ली में
जेल जाना पड़ा। उनके पति जतिंद्र को 1932 में पूना, दार्जिलिंग एवं राँची में कैद रखा गया और 1933, राँची में
उनकी मृत्यु हो गई।
नेली सेनगुप्त, ऐनी बेसेंट (1917) और सरोजिनी नायडू (1925) के
बाद कांग्रेस अध्यक्ष पद (1933) संभालने वाली तीसरी महिला थीं।
स्वतंत्रता के बाद वे पूर्वी पाकिस्तान के चटगाँव में अपने
पति के पैतृक घर में रही और वहाँ हिंदू अल्पसंख्यकों की देखभाल करने लगीं। 1954
में वह पूर्वी पाकिस्तान विधान सभा के लिए निर्विरोध चुनी गईं। अपनी बीमारी के
चलते वह इलाज हेतु कोलकाता आईं, जहाँ उनका 1973 में निधन हुआ। पद्म विभूषण
से सम्मानित नेली ने स्वतंत्रता संग्राम में राजनीतिक एवं क्रांतिकारी कार्यों में
सशक्त भूमिका निभाई।
हीरा लक्ष्मी बेटाई
‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’ का नारा देने
वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी ने अनेक लोगों को स्वाधीनता संग्राम
से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। इनमें महिलाएँ भी शामिल थीं। ‘आज़ाद हिन्द फौज’ की
स्थापना के लिए अपने सभी जेवर के साथ मंगलसूत्र देने वाली एक महिला को देखकर
नेताजी बहुत प्रसन्न हुए लेकिन उन्होंने उसका मंगलसूत्र लौटते हुए कहा कि तुम्हारे
सौभाग्य की यह निशानी मैं नहीं ले सकता। नेताजी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब
उन्हें पता चला कि इस महिला के पति हेमराज रणछोड़ दास बेटाई तो अपनी लाखों की संपत्ति
पहले ही नेताजी के चरणों में अर्पित कर चुके थे।
निडर, साहसी, दयालु नारी हीरा लक्ष्मी आज़ाद हिन्द फौज के
घायल सैनिकों की रंगून के अस्पताल में देखभाल करती थी। 1945 में जब नेताजी घायल
सैनिकों से मिलने अस्पताल में आए तो वहाँ पर हमला हुआ। वहाँ से नेताजी को सही
सलामत निकालकर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने की जिम्मेदारी लक्ष्मी पर आई जो
उन्होनें बखूबी निभाई। द्वितीय विश्व युद्ध बाद 1945 में आज़ाद हिन्द फौज के
सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया गया और उनका अभियान असफल हो गया। इस के पश्चात बेटाई
दम्पत्ति का सर्वस्व खो गया और वे कलकत्ता में रहकर घड़ी की दुकान शुरू कर अपना
जीवन यापन करने लगे।
पूर्णिमा पकवासा (डांग की दीदी)
(5अक्टूबर,1913 - 26 अप्रैल, 2016)
इसमें कोई संदेह नहीं कि स्त्रियों की स्थिति में सुधार
हेतु गाँधी जी ने अनेक कार्य किए। गाँधी जी का मानना था कि स्त्रियों को निर्भय
एवं बहादुर बनाना बहुत आवश्यक है। गाँधी जी के इन विचारों से प्रभावित होकर अनेक स्त्रियाँ
भी स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़ीं। इनमें एक उल्लेखनीय नाम है – पूर्णिमा पकवासा।
गाँधी जी के विचारों एवं बातों से अत्यधिक प्रभावित पूर्णिमा के मन में उनसे
मिलने की इच्छा जाग्रत हुई, जो कि नमक सत्याग्रह के दौरान पूरी हुई। उनके पिता एवं
चाचा स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े थे। जिस घर की वातावरण में स्वतंत्रता संग्राम की
महक हो उस घर के किसी भी सदस्य पर उसका असर न हो यह संभव नहीं। इस तरह देश भक्ति
की भावना उन्हें विरासत में मिली। 1930 में दांडी यात्रा के दौरान पकड़े जाने वाले
लोगों में अन्य महिला कार्यकर्ताओं के साथ पूर्णिमाबहन भी शामिल थी। छ माह की जेल
की सजा के दौरान उनके साथ कस्तूर बा, मणिबहन पटेल आदि थीं, जिन्होंने उन्हें
अंग्रेजी भाषा से भी परिचित कराया।
युवतियों को बहादुर एवं सजग बनाने वाली गाँधी जी की बात
पूर्णिमा के मन में घर कर गई और उन्होंने अमरेली की व्यायाम शाला में कसरत की
शिक्षा ली। इसके अतिरिक्त उन्होंने मिलिट्री तालिम भी ली, जिसमें उन्होंने राइफल,
ब्रेनगन, स्टेनगन आदि को चलाने एवं जीप आदि वाहन चलाने की शिक्षा भी ग्रहण की।
इसके बाद पूर्णिमा जी ने पंचमढ़ी में 78 युवतियों को प्रशिक्षित करते हुए शारीरिक
एवं आध्यात्मिक ज्ञान भी दिया।
महिलाओं में स्वरक्षण एवं आत्मसम्मान के साथ उनके व्यक्तिगत
गुणों के विकास के लिए पूर्णिमा बहन ने 1954 में ‘शक्तिदल’ की
स्थापना की। 1970 में ‘शक्तिदल’ को ‘ऋतंभरा विश्व विद्यापीठ’ में रूपांतरित किया
गया। आदिवासी कन्याओं की शिक्षा के लिए 1975
में ‘ऋतंभरा कन्या विद्यामंदिर की स्थापना की गई। इस संस्था ने विशेषतः डांग क्षेत्र
की कन्याओं के लिए बहुत कार्य किया। इसी कारण इन्हें ‘डांग की दीदी’ के नाम से भी
जाना जाता है। अपनी 102 वर्ष की आयु में पूर्णिमा बहन ने स्वाधीनता संग्राम में तो
योगदान दिया ही साथ में महिलाओं के विकास हेतु अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य भी किए।
डॉ. पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
वीरांगनाओं के बारे में बहुत सुंदर महत्वपूर्ण जानकारी।आम लोगों के लिए आज भी कई नाम पर्दे के पीछे हैं।
जवाब देंहटाएंऐसी वीरांगनाओं से मिलवाने के लिए आभार पूर्वा जी 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी। आभार।
जवाब देंहटाएंइन वीरांगनाओं को नमन।
जवाब देंहटाएंइनके योगदान को स्मरण करके हमें प्रेरणा मिलती है-देश के लिए जीने की।
रमेश कुमार सोनी