डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की दो कविताएँ
(1.
माँ 2. प्यारी माँ)
विकास
कुमार मिश्रा
नारी जब माँ का रूप धारण करती है तो वह स्वयं में प्रकृति स्वरूपा हो जाती है।
‘माँ’ ईश्वर की सबसे महान रचना है, ईश्वर भी अपनी इस रचना पर इठलाता होगा। जब
ईश्वर भी इस धरा पर जन्म लेता है तो वह भी माँ का ऋणी हो जाता है। वस्तुतः नारी के
माँ रूप के गुणों के वर्णन करने का सामर्थ्य किसी लेखनी में नहीं है, फिर भी
दुनिया की अनेक भाषाओं में अनेक कवियों ने अपने-अपने ढंग से माँ के प्रति अपनी अनुभूति व्यक्त करने का प्रयास
किया है।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा ने
अपने कविता संग्रह ‘कूल से बँधा है जल’ में माँ से संबंधित दो कविताएँ लिखी हैं। पहली
कविता का शीर्षक है – माँ, और दूसरी कविता का शीर्षक है - प्यारी माँ। जिस समय शर्मा जी कविता-सृजन की राह पर
थे, उस समय ज्यादातर कवियों को छंदमुक्त और लयहीन कविता लिखने की सनक-सी चढ़ी थी
पर शर्मा जी इस सनक के शिकार नहीं हुए और उन्होंने अपनी कविताएँ गेयशैली में लिखी।
ये दोनों कविताएँ भी गेयशैली में हैं और इनमें चयनित शब्द भी बहुत ही सहज और सरल हैं,
वैसे आजकल कविताओं में शब्दाडंबर की बाढ़-सी आ गई है, परंतु यहाँ हमें वह शब्दाडंबर
नहीं दिखाई देता।
‘माँ’ कविता माँ के असीम ऋणों की
बात से प्रारंभ होती है। वस्तुतः माँ का ऋण लौकिक संसार के ऋणों से इतर होता है,
इसलिए वह चुकाया नहीं जा सकता। इस संसार की कोई वस्तु अथवा कर्म नहीं, जो माँ की ममता की बराबरी कर सके। वस्तुतः माँ अपने बच्चों पर अपना ममत्व लूटाती
है तो वह बिना किसी आकांक्षा के यह कार्य करती है। अपने बच्चों के प्रति उसके
द्वारा किए गए सारे कर्म, अपेक्षा रहित भाव से किए गए होते हैं। वह अपने सारे
सुखों को त्यागकर भी अपनी संतान को सुख देना चाहती है। अतः उसके इस विशिष्ट कर्म
का इस दुनिया में कोई जोड़ नहीं है, जिसे शर्मा जी ने लिखा है - अनगिनती उपकार तुम्हारे/ कैसे कभी भुला पाएँगे?
शर्मा जी ने इस लौकिक संसार में
सबसे श्रेष्ठ नाता, माँ - बेटे का नाता माना है। वो ये भी
कहते हैं कि पुत्र भले ही दुष्ट प्रवृति का हो जाए, परंतु माँ अपने दुष्ट पुत्र पर
भी हमेशा ममता का ही भाव रखती है। इसलिए माँ को दया, त्याग और ममता की मूरत बोला
गया है। माँ इस संसार में प्रथम गुरु है, वही हमें चलना और बोलना सिखाती है। कविता
की अंतिम पंक्ति में शर्मा जी ने मातृभूमि को माँ के समान बताकर मातृभूमि के सदा
काम आने की दृढ़ता प्रगट की है। वैसे शास्त्रों में भी कहा गया है – “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।” अर्थात माता और मातृभूमि का स्थान
स्वर्ग से भी ऊपर है।
‘प्यारी माँ’ कविता में शर्मा जी ने माँ के त्यागमय
जीवन का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है। स्त्री जब माँ रूप में होती है तो वह अपने
सारे सुखों से ऊपर अपने बच्चों और परिवार का सुख रखती है। सुबह से शाम तक निरंतर कार्य
करने के बावजूद जब शाम को भोजन बनाती है तो सबको खिलाकर स्वयं सबसे अंत में भोजन
करती है। अगर उसे कोई दुख भी होता है तो वह सिसकी भरकर रह जाती है, अपना दुख प्रकट
नहीं करती। वह पूजा-पाठ करती है, व्रत-उपवास रखती है तो
स्वयं के लिए नहीं, अपितु वह इन सब के माध्यम से अपने बच्चों और अपने परिवार की
खुशी के लिए ईश्वर से विनती करती है। वह स्वयं के दुख को दुख ही नहीं समझती और
अपने बच्चों एवं परिवार के लिए मर मिटने को भी तैयार रहती है। इन सब के बावजूद आज की
इस भौतिकवादी दुनिया में उसके इन विशिष्ट कर्मों को बहुत कम लोग महत्व देते हैं,
उसकी लाचारी और पीड़ा को कोई नहीं समझना चाहता। आखिरकार माँ भी तो एक स्त्री ही
होती है परंतु उसकी आकांक्षाओं और उसके सुखों का कोई ख्याल नहीं रखता। वह अपना
जीवन एक वृक्ष की तरह हमेशा दूसरों को छाया और फल देने में ही बिता देती है; और
वही माँ जब वृद्ध हो जाती है तो उसे एक उपेक्षित वस्तु की तरह घर के एक कोने में
फेंक दिया जाता है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हमारे समाज में स्त्रियों द्वारा
किए गए घरेलू काम को मूल्यहीन समझा जाता है और पुरुषों द्वारा किए गए छोटे काम को
भी बढ़ा-चढ़ा कर देखा जाता है; जबकि अर्थव्यवस्था में वस्तु
एवं सेवा का मूल्य तो निर्धारित किया जा सकता है, परंतु जिस भाव के साथ स्त्री
घरेलू काम करती है उस भाव की कीमत पूरे विश्व की भौतिक संपदा देकर भी अदा नहीं की
जा सकती।
विकास कुमार मिश्रा
शोध छात्र, सरदार पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ विद्यानगर (गुजरात)
वाह,बहुत सुंदर व्याख्या । माँ शब्द में सारी दुनियां समाई हुई है ।
जवाब देंहटाएंगोपाल बाबू शर्मा जी की कविताओं-माँ और प्यारी माँ की सुंदर समीक्षा।बधाई विकास कुमार शर्मा जी।
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