दक्षिण
गुजरात की चौधरी जनजाति का लोकवाद्य : देवडोवळी
विमल चौधरी
भारत
के जनजातीय समुदाय में प्राचीन सभ्यता के साथ लोककला का अपना एक विशिष्ट महत्त्व है।
पूर्वजों से मिली निजी संपत्ति के संदर्भ में लोककला ही समुदाय का आधारस्तंभ है। लोकवाद्य
इसी धरोहर का जीवंतरूप है, जो हमें पारंपरिक जीवनशैली में देखने को मिलता है। एक
तरह से देखा जाये तो नाचगान के साथ मानवीय भावनाओं को सहजता से अभिव्यक्त करने के
लिये लोकसंगीत सशक्त माध्यम है। शास्त्रीय विधा से भिन्न होने के बावजूद तथा
प्रकृति के बेहद नजदीक होने के कारण जनजातीय लोकसंगीत परंपरागत जीवनचक्र का
महत्वपूर्ण अंग बन गया हैं। जिन कारणों से उनके लोकसंगीत में कृत्रिमता या
आधुनिकता नहीं देखी जा सकती। विशेषत: प्राकृतिक संसाधनों से मिली सामग्री में ही
लोकमुद्रा की ध्वनि सुनाई देती है। जनजातियों को हुनर विरासत में मिला, उनके
प्रमाण लोक-कला तत्त्व लोकसंगीत, नाचगान, पर्व-त्यौहार या धार्मिक अनुष्ठान,
देवपूजा में देखा जाता है। लोकवाद्य इसी हुनर को उच्चकोटि तक पहुँचता है। विशेष
बात यह है कि लोकवाद्य को बजाने के लिये न तो किसी प्रशिक्षण की जरूरत रहती है, न
ही कोई निर्धारित पाठ्यक्रम होता है। वहाँ तो बस सही अनुकरण काफ़ी है। एक बात और ध्यातव्य
है कि देवकार्य जैसे विशेष अवसरों पर पूरी रात लोकवाद्य बजाने के बावजूद कलावादक कभी
थकान महसूस नहीं करता। वो तो उसमें अलिप्त-सा बनकर आनंद उठाता है और यहाँ पर ही हम
कलावादक की बेहतरीन कलाकारी के अद्भुत कौशल का दर्शन कर सकते है। प्रस्तुत आलेख
में हम लोककला से जुड़ी लोक परंपरा के संदर्भ में दक्षिण गुजरात के चौधरी जनजाति का
लोकवाद्य देवडोवळी से परिचित होंगे।
चौधरी
जनजाति में व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों रूप से देवपूजा होती है। विशेष करके नये धान्य
को देव को अर्पण करते समय जब पूजाविधि होती है, तब मंत्रों- नाचगान के साथ
देवडोवळी वाद्य बजाय जाता है। देवकार्य में जिन विधि-विधानों के साथ आरंभ होता है,
वादक उसी सुर के साथ देव का आह्वान या स्तुतिगान का वर्णन करता है। “हरखी” जैसे
देवकार्य के समय घर से निकलने से पूर्व से लेकर वापस घर आने तक अथवा संपूर्ण
पूजाविधि ख़त्म होने तक इसी देवडोवळी लोकवाद्य का उपयोग होता है। एक मान्यता के
अनुसार जब भी देवडोवळी लोकवाद्य देवकार्य में बजाया जाता है तब स्वयं देव सुनने के
लिये हाजिर होते हैं। देव का महिमागान, जीवन में देव का स्थान, देव के प्रति अटूट
भक्ति, आराधना या देव को प्रसन्न करने की बात वादक देवडोवळी लोकवाद्य के माध्यम से
कहता हैं, उस समय समग्र वातावरण देवमय एवं पवित्र बन जाता है। वस्तुतः देवडोवळी
देव का वाद्य है, जिन कारणों से लोगों की असीम श्रद्धा जुड़ी हुई है। इस वाद्य की
सबसे बड़ी विशेषता यह है कि देवकार्य के अलावा किसी पर्व-त्यौहार, उत्सव या अन्य
कार्य में प्रयोग करना निषेध माना गया है। रूप-संरचना की दृष्टी से भले ही छोटा
आकार दिख रहा हो, मगर देवडोवळी की महिमा एवं स्थान पवित्रता की पूँजी है। ध्यान
में एक बात और भी रखनी होती है कि इस वाद्य के उपयोग के लिये व्यक्ति के पास हुनर
के साथ परंपरा का ज्ञान, देवपूजा के नियम, देव के प्रति आस्था एवं विधि-विधान का परिचय
होना अतिआवश्यक है, क्योंकि जिस परंपरा के साथ देवपूजा होती है, वादक को उसी क्रम
में देवत्व से जुड़े राग-लय का निर्माण करना होता है। देवपूजा का मुख्य ओझा (भगत)
क्रमबद्ध रूप में पूजा करता है, उसके आधार पर देवडोवळी वाद्य का सुर बदलता रहता है।
देवडोवळी
की बनावट
देवडोवळी
वाद्य की बनावट समय एवं ज्ञान दोनों की कसौटी है। बनावट के अंतर्गत जरुरी
साधनसामग्री आसपास क्षेत्र-अंचल,जंगल-पहाड़, नदियों में से सरलता से मिल जाती हैं।
सबसे पहले सूखे बाँस में से छोटे आकार के दो टुकड़े ( चौधरी में टोकरी कहते है )
लेने होते है, जिसकी लम्बाई अंशत: डेढ़ फिट
होनी चाहिए। दोनों टुकड़ों में से एक प्रमुख और एक सहायक होती है। प्रमुख टोकरी (बाँस
की गोलाकार) के ऊपर पाँच छिद्रों तथा दूसरी सहायक टोकरी के ऊपर तीन छिद्र करने होते
हैं। दोनों टोकरी के नीचे के हिस्सों में सुखा हुआ लौकी का मध्य भाग ठीक तरह से
रखकर दोनों में से हवा बाहर न निकले इस तरह से फिट किया जाता है। सूखे लौकी का भाग
एवं टोकरी को जोड़ने के लिए विशेष प्रकार का चिक्क पदार्थ, जौ, चावल या कैक्टस के
रस के मिश्रण से तैयार किया हुआ होता है वो लगाकर चिपका दिया जाता है। ऊपर के
हिस्से पर लौकी के ऊपर एक ‘फेब’( फूँक मरने की जगह ) जिसका आकार गोलाकार होता है
वह भी चिपकाया जाता हैं। टोकरी एवं सूखे लौकी का नीचेवाला हिस्सा होता है ठीक उनके
नीचले भाग में ताड के पत्तो की चीप(पट्टी के आकार जैसा) निकालकर गोलाकार रूप में
आधा फूट या उससे कम हो उसे रस्सी से बांध दिया जाता है जिसे चौधरी में ‘हिकु’ कहते
है। देवडोवळी वाद्य को सुशोभित करने के लिये ऊपर के हिस्से में मोरपंख का गुच्छा
बनाकर या बाजार की आकर्षक सामग्री का उपयोग किया जाता है। देवडोवळी का आकार भले ही
छोटा दिख रहा हो मगर उसकी बनावट में काफ़ी महेनत के साथ विशेष कौशल- कलाकारी का
होना जरूरी है।
अंतत: लोकवाद्य लोकजीवन का महत्वपूर्ण अंग है। जनजाति का प्रत्येक व्यक्ति लोकवाद्य के बनाने एवं बजाने में सक्षम नहीं हो सकता फिर भी लोकवाद्य में से निकला हुआ सुर अपने आप में एक रोमांच है। वास्तव में जब हम लोकवाद्य की धुन को सुनते हैं, समझ सकते हैं अथवा उनसे रूबरू होते हैं तब उनके बेमिसाल संरचना का अनुभव प्रत्यक्ष रूप में कर सकते हैं। सच यही है कि लोकवाद्य की आभा आज के आधुनिक कालचक्र में भी सुरक्षित बन पड़ी है, यही उनकी समृद्ध विरासत-परंपरा का जीवंत प्रमाण है।
विमल
चौधरी
शोधछात्र
हिंदी विभाग,
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभविद्यानगर
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