डॉ. ऋषभदेव शर्मा
: मेरे अपने
डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र
डॉ. ऋषभदेव शर्मा का और मेरा रिश्ता बड़ा अनोखा है।
अनोखा इस अर्थ में कि उस रिश्ते की मिठास का एहसास हम दोनों ही करते हैं - सिर्फ एहसास कर सकते हैं; परंतु उसकी व्याख्या करना या
कर सकना, हम दोनों ही के लिए बहुत कठिन काम है। हमारा रिश्ता
गूँगे के गुड़ जैसा है।
इस तरह का रिश्ता निभाने में मुझे बड़ी परेशानी होती है। संभव
है, शर्मा जी को भी होती हो। आप सोचेंगे कि यह कैसा
रिश्ता है, जिसमें मिठास भी है और निभाने में परेशानी भी है।
जी हाँ, यही तो बात है।
वह परेशानी मैं बताता हूँ। असल में शर्मा जी ने मुझे आदरणीय
बना दिया है। यह ठीक है कि मैं शर्मा जी से उम्र में थोड़ा बड़ा हूँ। परंतु क्या उम्र
के अंतर वाले लोग परस्पर मित्र नहीं होते! होते हैं। अरे! बनारस के एक बड़े हिन्दी सेवी श्री मुरारीलाल
केडिया बताते थे कि हिन्दी के कवि-लेखक पं. रामनरेश त्रिपाठी के साथ भी उनकी मित्रता थी और उनके पुत्र आनंदकुमार जी के
साथ भी मित्रता थी। मित्रता तो एक भाव है, जिसमें उम्र बाधक नहीं
होती - नहीं हो सकती।
परंतु शर्मा जी ने मुझे आदरणीय बनाकर मुझे एक घेरे में बंद कर
दिया है। एक घेरे में बंद व्यक्ति की छटपटाहट आप समझ सकते हैं। मैं अक्सर शर्मा जी
से यह शिकायत करता हूँ कि आपने मेरा एक अच्छा मित्र छीन लिया है।
शर्मा जी जैसा मित्र पाकर मुझे कितनी खुशी होती, यह वे लोग अच्छी तरह से समझ सकेंगे, जो शर्माजी
के मित्र हैं। परंतु मैंने शर्मा जी की खुशी के लिए उनके इस आदरणीय भाव को सहर्ष स्वीकार
कर लिया है।
मेरे और शर्मा जी के बीच प्रकट संवाद बहुत कम होता है। कारण
स्पष्ट है। आदरणीय को आदरणीय बनाए रखना है तथा आदरणीय को आदरणीय बने रहना है। हम मौन
संवाद से एक दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं। एक दूसरे की निकट उपस्थिति महसूस करते हैं।
कभी कुछ पूछना होता है, तो वॉट्सेप महाराज की मदद लेते हैं। वैसे मैं
ही ज्यादा पूछता हूँ। शर्मा जी को कुछ पूछने की जरूरत कम ही पड़ती है।
सन् 2014 तक मैं ऋषभदेव जी के नाम से भी परिचित न
था। मई, 2014, में मुझे दीमापुर (नागालैंड)
जाना हुआ। वहाँ केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा,
का एक केन्द्र है। उस समय डॉ. रामनिवास साहू वहाँ
के केन्द्र निदेशक थे। नागालैंड के हिन्दी अध्यापकों के नवीकरण कार्यक्रम में मुझे
हिन्दी व्याकरण पढ़ाना था। उस समय डॉ. साहू अपनी कई खंडों वाली
आत्मकथा के पहले खंड को अंतिम रूप देने में व्यस्त थे। खाली समय में वे अपनी आत्मकथा
के अंश मुझे पढ़कर सुनाते और बीच-बीच में डॉ. ऋषभदेव शर्मा का नाम लेते। उन्हीं से पता चला था कि यह आत्मकथा लिखने की प्रेरणा
उन्हें ऋषभदेव जी ने दी है। मार्गदर्शन और सर्जनात्मक परिमार्जन वे ही करते हैं।
शर्मा जी से प्रत्यक्ष मिलने का सुयोग वर्ष 2016 में बना। तब तक डॉ. रामनिवास साहू स्थानांतरित
होकर केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के मैंसूर केंद्र पर आ चुके थे। हास्पेट (कर्नाटक) जिले के हिन्दी अध्यापकों का नवीकरण कार्यक्रम
था। उसमें मैं और शर्मा जी पहुँचने वाले थे। किसी कारण से शर्मा जी उद्घाटन सत्र में
नहीं पहुँच पाए थे। उद्घाटन सत्र के बाद मेरी पहली कक्षा थी। कक्षा समाप्त होते-होते मैंने देखा, तो साहू जी किसी सज्जन के साथ कक्षा
के दरवाजे के सामने बरामदे में खड़े थे। मैं समझ गया, वे सज्जन
डॉ. ऋषभदेव शर्मा ही होंगे। वे ही आने वाले थे। मैं बड़ी उत्सुकता
से उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहा था।
मैं बाहर निकला। हम ऐसे मिले मानो वर्षों के बिछड़े मिल रहे हों! उस समय शर्मा जी अपने प्रिय वेशभूषा में थे। जिन्स की पैंट तथा
लंबा कुर्ता। कहते हैं, किसी व्यक्ति का प्रभाव पंचवकारों से
निर्मित होता है - विद्या, वाणी,
वपु, वेश और वैभव। मेरी समझ से इनमें से तीन वकार
शर्मा जी के पास हैं। वैभव की जो हमारी धारणा है, शर्मा जी उसमें
नहीं आते। मध्यवर्गीय व्यक्ति वैभवशाली तो कहा नहीं जा सकता। उनका वपु सामान्य है।
किसी-किसी के वपु में ही इतना आकर्षण होता है कि दूसरे वकार गौण हो जाते हैं। बहुत
सारे लोग विद्या-वाणी से हीन होने पर भी वैभव के बल पर समाज में
प्रतिष्ठा पाते हैं। मेरी समझ से शर्मा जी की प्रतिष्ठा उनकी विद्या और वाणी के कारण
है। वेश उन्हें अधिक दर्शनीय बनाता है।
शर्मा जी के पूरे शरीर में मुझे उनका मुखमंडल सबसे अधिक आकर्षक
लगता है। पहली मुलाकात में उनके चेहरे की मासूमियत तथा निर्दोष मुस्कान मुझे भा गई।
इसके अलावा वे आपादमस्तक एक विनम्र व्यक्ति हैं।
उसके बाद से तो हम केरल-कर्नाटक
के हिन्दी शिक्षकों के लिए केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के मैसूर केन्द्र द्वारा आयोजित
अनेक कार्यक्रमों में बारह-बारह दिनों तक साथ-साथ रहे हैं। एक ही होटल में। पास-पास के कमरों में।
आगे चलकर अनेक स्रोतों से धीरे-धीरे मुझे दक्षिण के राज्यों में शर्मा जी की लोकप्रियता की जानकारी
मिलने लगी। जो भी लोग शर्मा जी को जानते हैं, वे उन्हें बहुत
चाहते हैं। मन में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि उनकी इस प्रतिष्ठा और मान्यता का आधार
क्या है? कारण क्या है? इस विषय में मेरा
जो अपना आकलन है, जो मेरे निष्कर्ष हैं, उनके आधार पर इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिश करता है।
शर्माजी बोलते हैं कम परंतु सार्थक। यह मेरा अनुभव है। हो सकता
है, अन्यत्र वे कुछ ज्यादा बोलते हों। कार्यक्रम
के दौरान मैं, साहू जी तथा शर्मा जी भोजन के समय तथा भोजन के
बाद चहलकदमी करते समय जब एक साथ होते, तब साहू जी थोड़ा ज्यादा
बोलते, मैं थोड़ा कम और शर्मा जी बहुत कम। शर्मा जी को जो ठीक
नहीं लगता, उस पर अपनी प्रतिक्रिया तुरंत देते हैं। साफ दिल के
व्यक्ति को किसी अनुचित बात पर क्रोध भी जल्दी आता है और क्रोध शांत भी तुरंत हो जाता
है। मडिकेरी (कर्नाटक) के नवीकरण का समापन
कार्यक्रम चल रहा था। मंच पर हम तीन ही थे। डॉ. रामनिवास साहू
(क्षेत्रीय निदेशक), शर्मा जी और मैं। अध्यापकों
में से एक अध्यापक संचालन कर रहे थे। उन्होंने शर्मा जी को आशीर्वचन के लिए आमंत्रित
किया। शर्मा जी बोलने के लिए खड़े हुए। अभी शुरुआत ही की थी कि प्रतिभागी अध्यापकों
में से किसी का मोबाईल बज उठा। बस क्या था! शर्मा जी दुर्वासा
बन गए और अपने स्थान पर आकर बैठ गए। कक्ष में एकदम सन्नाटा छा गया। कोई कुछ बोलने की
स्थिति में न था। प्रतिभागी तो कुछ बोल ही नहीं सकते थे। मेरी भी समझ में नहीं आ रहा
था कि क्या बोलूँ। साहू जी भी चुप थे। दो मिनट का समय ऐसे ही बीता। फिर शर्माजी स्वयं
खड़े हुए और ऐसे बोलने लगे मानो कुछ हुआ ही न हो। एकदम शांति से प्रभावशाली उद्बोधन
किया। तमाम तरह की सीखें दीं। उनका बोलना रोचक तथा ज्ञानवर्धक होता है। नवीकरण कार्यक्रमों
में उन्हें सुनने का अवसर दो ही बार मिलता है - उद्घाटन सत्र
में तथा समापन सत्र में। बाकी तो अपनी-अपनी कक्षाएँ होती हैं।
शर्मा जी के बाद बोलने के लिए मैं खड़ा हुआ। वातावरण को थोड़ा और हल्का बनाने के लिए
मैंने कहा - आज शर्मा जी ने यह साबित कर दिया कि वे सच्चे गुरु
हैं। सच्चे गुरु के लिए कहा ही गया कि एक सच्चा गुरु वज्र से भी अधिक कठोर तथा कुसुम
से भी अधिक कोमल होता है। शर्मा जी को क्रोध करते भी देर नहीं लगी और शांत होते भी
देर नहीं लगी।
वैसे एक कक्षा में भी दस-पंद्रह मिनट तक उन्हें सुनने का अवसर मिला है। मैसूर में डॉ. साहू जी की विदाई का कार्यक्रम था। डॉ. साहू जी को भावपूर्ण
विदाई देने के लिए उस कार्यक्रम में शर्मा जी भी आए थे तथा मैं भी गया था। उस अवसर
पर एक कार्यशाला का आयोजन किया गया था, जिसमें मैसूर के विविध
सरकारी विभागों के हिन्दी अधिकारी शामिल थे। शर्मा जी की कक्षा के बाद मेरी कक्षा थी।
सामान्यतः शर्मा जी कक्षा समय से शुरू करने तथा समय से पूरा करने के आग्रही हैं। जबकि
बोलने के प्रहाव में मुझे अकसर समय का ख्याल नहीं रहता। मेरी कक्षा का समय होने पर
मैं कक्षा में पहुँचा, तो देखा कि शर्मा जी अभी धारा-प्रवाह बोले जा रहे थे। मुझे देखकर उन्होंने पाँच मिनट का इशारा किया। मैं
एक कुर्सी खींचकर बैठ गया। शर्मा प्रतिभागियों को ‘हीरक’
कविता लिखना सिखा रहे थे। वे ‘हीरक’ के लिए शब्द-चयन और वाक्य-गठन की
तकनीक बता रहे थे; साथ ही प्रतिभागियों से हीरक बनवा भी रहे थे;
और प्रतिभागी बना भी रहे थे। मजे की बात यह कि वे सभी हिन्दी अधिकारी
थे। अध्यापक नहीं थे। फिर भी रुचि लेकर कविता बनाना सीख रहे थे। शर्मा जी की यह कुशलता
सामने देखकर मैं तो मुग्ध हो गया। वैसे मुझे यह तो पता ही था कि शर्मा प्रत्येक नवीकरण
कार्यक्रम में विषय के अध्यापन के साथ-साथ ‘हाइकु’ तथा ‘हीरक’ लिखना सिखाते हैं; और प्रतिभागियों से लिखवाते भी हैं।
कार्यक्रम पूरा होते-होते कई प्रतिभागी अच्छी कविता लिखने भी
लगते हैं। कमाल की बात यह है कि प्रत्यक्ष उपस्थित कक्षा में तो वे सिखाते ही हैं;
परंतु इधर ऑनलाईन कक्षा में भी उनका यह कौशल देखकर मैं चकित रह गया।
मैं अपने आपसे भी प्रश्न करता हूँ कि शर्मा जी के प्रति मेरे
झुकाव का कारण क्या है? मेरे लिए कोई व्यक्ति त्याज्य नहीं है। जिन
लोगों ने मेरा घोर विरोध किया; मुझे हानि पहुँचाई; वे भी नहीं। परंतु मेरा मन किसी से ओतप्रोत हो जाए, ऐसे
बहुत कम लोग हैं। उन्हीं में से शर्मा जी एक प्रमुख व्यक्ति हैं। मेरा मन गुणवत्ता
का बहुत आग्रही है। शर्मा जी में एक साथ कई ऐसी बातें हैं, जो
मुझे अच्छी लगती हैं; जो मेरे अनुकूल पड़ती हैं; जो मेरे गुणवत्ता के पैमाने में आती हैं।
शर्मा जी बड़े खुले मन के व्यक्ति हैं। मुझे नहीं लगता, उनके मन में किसी प्रकार की गाँठ होगी। यही कारण है कि उनके चेहरे
पर बच्चों जैसी मासूमियत दिखाई पड़ती है। मुझे उनकी सोच में कभी नकारात्मकता नहीं दिखी।
डेढ़-दो साल पहले बड़ौदा में एक संगोष्ठी थी। शर्मा जी ने ही बताया
था कि वे उस संगोष्ठी में आ रहे हैं। बड़ौदा मेरे यहाँ से पैंतीस-चालीस किलोमीटर पर है। मेरे इतना नजदीक शर्मा जी आ रहे हों, और मैं मिलने न जाऊँ, यह तो हो ही नहीं सकता था। मिलने
गया, तो उनके सत्र में बैठने का भी मौका मिला। विषय शायद मीडिया
पर था। लेकिन संकीर्ण तथा नकारात्मक विचारों वाले पूर्व वक्ताओं ने आरंभ में ही सत्र
का माहौल बिगाड़ दिया था। किसी संगोष्ठी में शर्मा जी को सुनने का यह मेरा पहला मौका
था। शर्मा जी की वाणी तो घन-गंभीर है ही; वे अपने व्यख्यानों में कोई ऐसी बात नहीं कहते, जो असंगत
हो; बेकार हो। उस दिन उनके व्याख्यान ने नकारात्मक माहौल को सकारात्मकता
में बदल दिया था। श्रोता पूर्व वक्ताओं की नकारात्मकता को भूल गए थे।
मैं शर्मा जी के लेखन से ज्यादा परिचित नहीं हूँ। कहूँ कि नहीं
के बराबर; तो यह कहना गलत नहीं होगा। कारण कि मैं पढ़ने
में बहुत कमजोर हूँ। उनका संपादकीय कभी-कभी पढ़ता हूँ। वे प्रतिदिन
अपना संपादकीय लेख वॉट्सेप पर भेजते हैं। उन्हें पता है कि मैं सारे संपादकीय नहीं
पढ़ता। कुछ तो अदृष्ट ही रह जाते हैं। कुछ के मात्र शीर्षक पढ़ता हूँ। परंतु जो पढ़ता
हूँ, पूरी तन्मयता से। कम पढ़ने के बावजूद यह कह सकता हूँ कि शर्मा
जी के संपादकीय बड़े रोचक यानी पठनीय होते हैं। उनके दूसरे लेखन को छोड़ भी दें;
और सिर्फ उनके संपादकीय की बात करें, तो उनके संपादकीय
लेखों के आधार पर उनकी क्षमता का आकलन हो सकता है। ऐसे नियमित साप्ताहिक लेख लिखने
हों, तो भी यह काम कठिन है। शर्मा जी को तो समयबद्ध तरीके से
प्रतिदिन संपादकीय लेख लिखने होते हैं। मैं तो कल्पना मात्र से सिहर जाता हूँ। प्रतिदिन
एक जीवंत तथा समयानुकूल विषय तय करना - खोजना; उनके लिए तथ्यपूर्ण सामग्री एकत्र करना; फिर उसे निर्धारित
समय में तथा सुनिश्चित आकार में लिखना कितना कठिन काम है। हो सकता है, शर्मा जी के लिए वह सरल काम हो। पूछने पर कहते हैं, आदत
पड़ गई है।
शर्मा जी अपना संपादकीय तो दैनिक अखबार के लिए लिखते हैं। परंतु
वह अखबार के समाचार जैसा नहीं होता। उनका प्रत्येक संपादकीय एक सर्जनात्मक लघु आलेख
होता है। मैं उनका जो भी संपादकीय पढ़ता हूँ, कोई नयी जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से नहीं पढ़ता। बल्कि सर्जनात्मक
लेखन का आनंद लेने के लिए पढ़ता हूँ। सच कहूँ तो मैं शर्मा जी के संपादकीय को सरसरी
ढंग से नहीं पढ़ता। बड़े ध्यान से पढ़ता हूँ। एक-एक शब्द तथा एक-एक वाक्य के प्रयोग को तौलते हुए पढ़ता हूँ। भाषा और भाव दोनों के चुटीलेपन
का आनंद लेने के लिए पढ़ता हूँ। उनकी भूल निकालने के इरादे से नहीं, बल्कि इस इरादे से कि उनके भाषा-प्रयोग में मुझे कुछ
नया मिलता जाए। जैसे - कोई नया शब्द, नये
ढंग की कोई वाक्य-रचना, नये संदर्भ में
किसी शब्द का प्रयोग आदि। एक प्रयोग मुझे मिला था - वैश्विक रिश्तों
की दुनिया इतनी तरल है .....। यहाँ ‘तरल’
शब्द ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। यह एक शब्द बहुत कुछ कहता है। कितने
अर्थ-संदर्भ इस एक ही शब्द में समाए हुए हैं। नेपाल के प्रधानमंत्री
ओली की नीतियों पर लिखे एक संपादकीय में एक वाक्य आता है - चीनी
प्रभाव के आधिक्य के कारण उन्हें मधुमेह हो गया है। यह कहने की जरूरत नहीं कि
‘चीनी प्रभाव’ के यहाँ दो अर्थ हैं। कोरोना काल
के दौरान लिखे संपादकीयों में उन्होंने ‘वैश्विक महामारी’ की जगह पर एक नया शब्द इजाद किया - विश्वमारी।
पहली बार पढ़ा तो बहुत अटपटा लगा। फिर शर्मा जी के इस कौशल पर मुग्ध हो गया। महामारी
तो किसी एक स्थान में भी फैल सकती है। किंतु जो महामारी विश्व भर में फैली हो वह विश्वमारी!
वाह!
एक बार उन्होंने मुझे एक वीडियो भेजा था। वीडियो सुनने के बाद
मैंने वॉट्सेप पर उन्हें अपनी प्रतिक्रिया भेजी थी। मैंने लिखा था - शुरुआत में आप अपने स्वभाव के विपरीत बड़े सजग लगे। मुझे जमा नहीं।
फिर आपका तेवर प्रकट हुआ और मैंने अंत तक सुना। आपने बड़े बेबाक ढंग से बड़े साफ शब्दों
में जन-समाज तथा सूचना समाज की, डिजिटल
साहित्य की, प्रकाशकीय दादागिरी की ..... बातें की हैं। आप एक सजग वक्ता तथा सजग लेखक हैं। यह बात यहाँ भी प्रमाणित
हुई। बाकी बातें तो टेक्नॉलॉजी की थीं। टेक्नॉलॉजी की मेरी जानकारी नहीं के बराबर है।
यह अंश लिखित रूप में हो तो मैं पढ़ना चाहूँगा।
जवाब में शर्मा जी ने लिखा था - मुख्य वक्ता आईआईआईटी के एक प्रोफेसर थे। उन्हीं का दिया हुआ
विषय था। ऐन मौके पर वे मुकर गए, तो संयोजकों ने मुझे उठा लिया
(‘उठा लिया’ में जो विनोद भाव है, वह कहने की जरूरत नहीं है। शर्मा जी की यह भी एक खासियत है)। ‘शून्यपाल’ बनकर कमान सँभाल ली
थी। इसलिए आपकी राय जानने की उत्सुकता थी। विषय तकनीकी था, तो
वक्तव्य शुष्क हो गया हो, यह आशंका थी। एक्सटेंपोर (तात्कालिक) बोला है। कभी लिखा गया, तो अवश्य कभी आप ही को भेजूँगा।
तो यह बात थी! उनके जिस व्याख्यान से मैं इतना प्रभावित हुआ था, वह
तात्कालिक सूझबूझ का परिणाम था। शर्मा जी सचमुच आशुवक्ता हैं। मेरी यह धारणा उनके इस
वीडियो से साबित हो गई। कहते हैं, आ. हजारीप्रसाद
द्विवेदी हर प्रकार के मंच की अध्यक्षता करते थे - कर सकते थे।
बोलने के लिए किसी तैयारी की उन्हें जरूरत नहीं पड़ती थी। बोलने की शुरुआत करने के लिए
उन्हें सभाखंड में ही कोई विषय मिल जाता था। फिर तो ललित निबंध की शैली में बोलने लगते
थे। वक्तृत्व कला उनके पास थी ही। मैं यहाँ द्विवेदी के साथ शर्मा जी की तुलना नहीं
कर रहा हूँ। मेरे कहने का आशय यह है कि जिसके पास भी विषय का वैविध्य होगा,
और सोच सकारात्मक होगी, उसकी वाणी प्रभावशाली हो
ही जाएगी। शर्मा जी के पास सामग्री की विपुलता और विविधता है तथा प्रस्तुतीकरण की ऐसी
सहजता है कि उन्हें कोई नींद से जगाकर बुलवाए तो भी उनके व्याख्यान में शुष्कता नहीं
आ सकती।
एक संपादकीय में शर्मा जी ने ‘बोझा’ शब्द का प्रयोग किया था। मैंने उनसे पूछा कि आपने
बोझ की जगह बोझा शब्द का प्रयोग क्यों किया है? उनका जवाब उन्हीं
के शब्दों में - ‘मुझे बोझा बोझ से ज्यादा भारी लगता है। जैसे
गठरी से ज्यादा भारी गट्ठर। अवांछित और तिरस्कार की व्यंजना जोड़ने के लिए। केवल भार
नहीं दुर्वह भार।’
एक बार उन्होंने ‘कमेरा’ शब्द का प्रयोग किया था। मेरे पूछने पर कि
‘कमाऊ’ की जगह आपने ‘कमेरा’
शब्द का प्रयोग क्यों किया? क्या नयापन के लिए?
उन्होंने इन दोनों शब्दों में अंतर बताया - कमाऊ
तो कमाने वाला है। परंतु कमेरा काम, कर्म तथा श्रम करने वाला
है। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा में चलता है।
सपा-बसपा के गठबंध पर एक लेख में उन्होंने लिखा था
- यह गठबंधन दोनों पार्टियों के लिए तो अपना अस्तित्व ‘जताने’ का माध्यम है। मैं समझता हूँ यह वाक्य कोई दूसरा
लिखता, तो ‘जताने’ के स्थान पर ‘बचाने’ शब्द का प्रयोग
करता। एक शब्द बदलने से पूरा आयाम ही बदल गया है।
शब्दों के प्रति शर्मा जी की यह सजगता उनके भाषण और लेखन को
विशिष्ट बनाती है।
वैसे तो ‘न’ निषेधवाचक अव्यय है। परंतु शर्मा जी कभी-कभी इसका बड़ा
सर्जनात्मक प्रयोग करते हैं। पूछने पर इसके बारे में उन्होंने बताया था कि पाठक से
जुड़ने के लिए जिन कुछ तकनीकों का उपयोग मैं करता हूँ, उनमें एक
यह ‘न’ भी है।
लॉकडाउन के दौरान शर्मा जी ने मजदूरों के पलायन पर एक संपादकीय (15-05-20) लिखा था, जिसमें उन्होंने पलायन
का एक तार्किक आधार दिया था - ‘शहरों के सयाने बताते नहीं थक
रहे हैं कि घर वापसी तो सहज मानव मनोविज्ञान है। .... पर क्या
सच यही है कि इस व्यापक पलायन की जड़ में केवल गाँव-घर का मोह
है? कहीं सयाने इस बहाने के पीछे किसी दूसरे बड़े सच को तो नहीं
छिपा रहे हैं? दूसरा बड़ा सच? यही कि बुरा
वक्त आया तो वह शहर काम न आया, जिसके जर्रे-जर्रे पर इन मजदूरों की संघर्ष गाथा लिखी है। कष्ट काल में अगर रोजगार पर संकट
न आता, अभाव के दिनों में अगर भिखारी की तरह हाथ पसारने की विवशता
न आती, अगर तालाबंदी के दौरान संरक्षण का भरोसा और यकीन पक्का
होता, तो भी क्या घर वापसी के लिए नगरों-महानगरों की सड़कों पर ऐसा ही जन सैलाब उमड़ता? ... साहब!
श्रम खरीदते रहने वाले सामने आए क्या कि न जाओ, हम तुम्हारे साथ है? न! कोरोना
ने बता दिया कि मजदूर का नाथ या तो अपना हाथ है, या जगन्नाथ।’
इस संपादकीय को पढ़कर मैंने लिखा था - ‘इस लघु आलेख में मजदूर पलायन के सच का आयाम ही आपने बदल दिया।
मजदूरों का पलायन खुद मेरे मन में दुविधा पैदा कर रहा था कि ये मजदूर थोड़ा धीरज क्यों
रख पा रहे हैं? लेकिन इस पालयन को आपने एक तार्किक आधार दे दिया।’
जवाब में शर्मा जी ने लिखा कि टिप्पणियाँ तो कई आईं। लोकिन इस
बात को आपने लक्षित किया।
शर्मा जी विज्ञान, टेक्नॉलॉजी, भाषा-साहित्य,
समाज, धर्म, अर्थ,
राजनीति सभी विषयों पर पूरे आत्मविश्वास के साथ लिखते भी हैं तथा बोलते
भी हैं। उनके लेखों के विषयों में कुछ भी नयापन नहीं होता। सारी बातें हम टीवी पर देख-सुन चुके होते हैं। नयापन होता है उनकी सटीक, संतुलित
तथा सर्जनात्मक अभिव्यक्ति में। हर रोज की समसामयिक घटनाओं के घटाटोप में से अपने काम
का विषय चुनना और उसे हर स्तर पर एक स्तरीय स्वरूप देना, अपने
आपमें एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। वे प्रत्येक विषय का उत्तेजना रहित सौम्य विश्लेषण
करते हैं। कभी-कभी उनका आक्रोश स्पष्ट शब्दों में नहीं,
बल्कि व्यंजना में प्रकट होता है। ध्यान देने की बात यह है कि अपने लेखों
में शर्माजी किसी का पक्ष लेते नहीं दिखाई पड़ते। सिर्फ विषय पर प्रकाश डालते हैं
- अनेक कोणों से। आपको जो समझना हो, वह समझिए।
आपको कोई खास बात समझाने का वे आग्रह नहीं रखते। जो कहना है, वह सधी हुई भाषा में बड़ी बेबाकी से कह जाते हैं।
शर्मा जी की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि वे विषय कोई भी हो, उस पर साहित्यिक रंग चढ़ा देने में बड़े कुशल हैं। ऐसी ही कुछ बातें होंगी, जिनके चलते वे हर मंच पर दिखाई देते हैं। कोई भी साहित्यिक कार्यक्रम हो, शर्मा जी की उपस्थिति कार्यक्रम का गौरव बढ़ाती है। मुख्य अतिथि की कुर्सी पर बैठना हो, तो शर्मा जी; कार्यक्रम का संचालन करना हो, तो शर्मा जी; किसी की पुस्तक का लोकार्पण करना हो, तो शर्मा जी। हर जगह शर्मा जी! अपने स्नेही जनों से घिरे हुए शर्मा जी मुझे अच्छे लगते हैं। मैं कभी-कभी चुटकी लेते हुए कहता हूँ कि मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूँ, जब पुस्तकों के लोकार्पण की संख्या के आधार पर आपका नाम गिनीज बुक में आएगा।
डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र
40,
साईं पार्क सोसाइटी
बाकरोल
– 388315
जिला-
आणंद (गुजरात)
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