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बादल को घिरते देखा है
(कविता-नागार्जुन)
डॉ. हसमुख परमार
प्रेम, प्रकृति और प्रगतिवादी संवेदना की जमीन पर कवि नागार्जुन ने अपने काव्य
संसार का निर्माण किया है। किसी ने ठीक ही कहा है कि- ‘सत्य बात कवि ही कहे
क्योंकि हृदय में आग / शिव सुन्दर भी वह कहे क्योंकि हृदय में राग ।’ वाणी का
तीखापन-व्यंग्य की पैनी धार के लिए जाने जाते नागार्जुन में प्रेम और सौन्दर्य की
मधुरता व आहलादकता का भी अभाव नहीं है। जीवन की वास्तविकता, विषमता और विकृतियों
को व्यक्त करने वाली इनकी कविता में रागात्मक संवेदना तथा सौन्दर्य चेतना का स्वर
भी बखूबी सुनाई देता है। प्रकृति चित्रण और प्रणयानुभूति से संबद्ध कई रचनाओं में
नागार्जुन के कवि हृदय की कोमल भावनाएँ व सौन्दर्य प्रेम व्यक्त हुआ है। अपने
प्रथम काव्यसंग्रह ‘युगधारा’ (1953) में संकलित ‘बादल को घिरते देखा है’ कविता
नागार्जुन के सौन्दर्य बोध का ही परिणाम है। कविता में कुछ अन्य संदर्भ भी खोजे जा
सकते हैं, किन्तु कविता मूलतः सौन्दर्य से ही सराबोर है। प्रकृति सुष्मा ही इसका
मुख्य रंग है। हिमालय स्थित जिस प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन कविता में हुआ है वह
कवि का आँखों देखा है। कविता का शीर्षक भी पाठक को यही भरोसा दिलाता है। ‘‘तिब्बत
प्रवास के क्रम में हिमालय दर्शन से कवि के मन में जो सौन्दर्य चेतना जाग्रत हुई,
प्रकृति के निर्मल, निश्छल रूप देखने से उनके अंतर्मन में सौन्दर्य का जो उफान आया
उसे इस कविता में काव्यात्मक और कलात्मक रूप दिया गया है। यह सौन्दर्य के बहुरंगी
रूपों से साक्षात्कार की कविता है। इसमें अन्याय का प्रतिरोध नहीं, समाज परिवर्तन
की आकांक्षा नहीं, व्यंग्य की पैनी धार नहीं, शुद्ध काव्यात्मक और कलात्मक वातावरण
है।’’ (नागार्जुन का काव्य और युगः अंतः संबंधों का अनुशीलन, जगन्नाथ पंडित, पृ.
299)
विषय वस्तु की दृष्टि से देखें तो वस्तु सिर्फ उतनी ही है कि मानसरोवर की
यात्रा के दौरान कवि ने बादलों को घिरते देखा, मानसरोवर के जल में तैरते हंसों को
देखा, प्रणय-रत चकवा-चकवी को देखा, चौकडी भरते किसी कस्तूरी मृग को देखा, पहाडों
पर बसने वाले पुरुष-स्त्रियों को देखा- लेकिन इतनी सी बात को कहने के लिए कविता का
जो भव्य रूप उन्होंने प्रस्तुत किया वह उनके कवित्व शक्ति का परिचायक है। प्रकृति
चित्रण की दृष्टि से यह कविता नागार्जुन के काव्य-संसार की ही नहीं बल्कि हिन्दी
काव्य जगत की एक बेजोड़ कविता कही जा सकती है। प्रगतिवादी कविता के पूर्व छायावादी
काव्य में प्रकृति चित्रण केन्द्र में रहा। इस काव्य प्रवृत्ति में प्रकृति सुषमा
के एक से बढ़कर एक नयनाभिराम चित्र मिलते हैं, किन्तु यदि हम यह कहें कि छायावादी
कवि भी ‘बादल को घिरते देखा है’ के टक्कर की कविता नहीं लिख पाये तो यह अतिशयोक्ति
नहीं होगी।
हिमालय के शिखरों का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि मैंने हिमगिरि के धवल शिखरों
पर बादल को घिरते देखा है -
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादलों को घिरते देखा है।
हिमालय की अत्यधिक ऊँचाई पर स्थित झीलों
में तिरते हंसों का वर्णन करते हुए कवि बताते हैं कि तुंग हिमालय के कंधों पर
स्थित छोटी-बड़ी झीलों के श्यामल नील सलिल में हंस तैरते हैं। वे हंस पावस की ऊमस
से व्याकुल होकर समतल इलाकों से गये हैं। उन झीलों में कमल खिले हुए हैं और ये हंस
अपनी क्षुधापूर्ति के लिए तिक्त मधुर कमल-नाल (बीसतंतु) को खोजते हैं। इस समग्र दृश्य
को कवि ने देखा है - ‘हंसों को तिरते देखा
है’
कविता का तीसरा और चौथा दृश्य काव्यरूढि
पर आधारित है। तीसरे दृश्य में चिर वियोगी
चकवे-चकवी के मिलन का वर्णन किया है। वसंतऋतु का सुप्रभात था। मंद-मंद मलयानिल चल
रही थी। बाल अरूण अपनी मृदु किरणें बिखेर रहा था। मानसरोवर के अगल-बगल के शिखर
स्वर्णिम किरणों से जगमगा रहे थे। ठीक उसी समय –
निशा काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
वियोगी तो दूसरे भी प्राणी होते हैं,
किंतु चकवा-चकवी की काव्यरूढ़ि का सहारा लेकर कवि ने वियोग की पीड़ा को अधिक गहरा
कर दिया है क्योंकि चकवा-चकवी का वियोग ऐसा वियोग है जो पूर्व निर्धारित है। पूरे
दिन के मिलन के बाद शाम होते ही उन्हें बिछुडना ही है यह पीड़ा कितनी असह्य होगी
यह भुक्तभोगी ही जान सकता है।
एक और काव्यरूढ़ि है कस्तूरी मृग का
अपनी नाभि में स्थित कस्तूरी की मादक गंध को खोजते हुए चारों तरफ दौडना। कवि कहते
हैं -
दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्त्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठनेवाले
निज के ही उन्मादक परिमल –
के पीछे धवित हो-होकर
तरल तरूण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है।
कबीर ने तो ‘मृग ढूँढे वन माही’ कहा है
यानी कबीर के मृग वन में है जबकि नागार्जुन का कस्तूरी मृग हजारों फिट ऊँची दुर्गम
बर्फानी घाटी में। कवि का कहना है कि यह दृश्य भी मैंने देखा है। ऐसा लगता है कि नागार्जुन ने
हिमालय की हजारों फिट ऊँचाई पर दुर्गम बर्फानी घाटी में किसी मृग को कुलाचें भरते
हुए देखा होगा और उसका वर्णन उन्होंने प्रचलित काव्यरूढ़ि का सहारा लेकर किया है।
कविता के पाँचवें दृश्य में कवि ने
कैलाश के गगनचुम्बी शिखर पर गर्जन-तर्जन करते हुए झंझावत से भिड़ते महामेघ का वर्णन
किया है। हमारी पुराणकथाओं के अनुसार कैलाश धनपति कुबेर का निवासस्थान है। वहीं पर
कुबेर की अलकानगरी जिसका वर्णन संस्कृत महाकवि कालिदास ने अपने साहित्य में किया
है। कालिदास के अनुसार आकाशगंगा भी वहीं है, परंतु नागार्जुन के अनुसार वह सिर्फ
वर्णन है। कविता के इस अंश को कल्पना और यथार्थता के धरातल पर समझना चाहिए।
नागार्जुन का कहना है कि कालिदास का वर्णन सिर्फ कवि - कल्पित था -
जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है।
वास्तव में कल्पना हमेशा मनोरम होती है
और यथार्थ बड़ा ही कठोर और भयावह होता है। भीषण ठंड के मौसम में कैलाश के गगनचुंबी
शिखर पर पहुँचने की कल्पना ही पसीना छुडाने वाली है।
कविता के अंतिम अंश में बाँसुरी बजाते
किन्नर-किन्नरियों का दृश्य प्रस्तुत किया गया है।
शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारू कानन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,.....
......नरम नदाग बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारूण आँखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अंगुलियों को
बंशी पर फिरते देखा है।
यहाँ उल्लेखनीय है कि जैसे कबीर यह कहते
हैं – ‘तुम कहते कागद की लेखी, मैं कहता आँखन की देखि’ उसी से मिलती-जुलती शैली इस
कविता में नागार्जुन की दिखाई पड़ती है। प्रत्येक दृश्य के अंत में देखने की बात
कहते हैं - घिरते देखा है, गिरते देखा है, तिरते देखा है, चिढ़ते देखा है, भिड़ते
देखा है और फिरते देखा है। ऐसा कहने के पीछे अनुभव की प्रामाणिकता का आग्रह ही
कारणभूत प्रतीत होता है।
डॉ. हसमुख परमार
एसोसिएट प्रोफ़ेसर
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर
जिला- आणंद (गुजरात) – 388120
सर आप की प्रस्तुति पढ़ते समय प्रतित हुआ जैसे आज आप का क्लास लगा है, वे स्नातकोत्तर के दीन की छवि उभरती दिखाई दें गई।
जवाब देंहटाएंआभार सर ज्ञान बढ़ाने हेतु। सुंदर प्रस्तुति।
खालीद
बहुत खूब डॉ. हसमुख परमार जी!
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई।