सोनल परमार
‘योग’ भारतीय संस्कृति की एक अनमोल उपलब्धि है, एक बहुमूल्य
विरासत है। यह स्वस्थ जीवन-यापन की एक कला एवं विज्ञान है। योगविशेषज्ञों के
मतानुसार योग एक ऐसी विद्या है जिसमें मनुष्य अपने मन को पूर्ण वश में कर ईश्वरीय
आत्मा में अपने मन को लीन कर परमानन्द को प्राप्त कर सकता है। ‘योग’ शब्द का अर्थ
है- मिलन, जुड़ना, युक्त होना या एकत्र करना। ‘योग’ शब्द की व्युत्पत्ति-‘युजिर्
योगे’, ‘युज् समाधौ’ तथा ‘युज संयमने’- इस तरह मानी गई है। प्रथम व्युत्पत्ति के
अनुसार ‘योग’ शब्द का अर्थ है- एकीकरण करना, संयुक्त करना, जोड़ना अथवा मिलाना।
इसी आधार पर जीवात्मा और परमात्मा का एकीकरण अथवा मनुष्य के व्यक्तित्व के
शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक पक्षों के एकीकरण को इसमें लिया जाता है।
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वेदान्त की दृष्टि से जीवात्मा और परमात्मा का पूर्ण रूप से मिलना योग है।
आत्मा और परमात्मा के मिलन से, दोनों के योग से एक ऐसे आनन्द का आविर्भाव होता है,
जिसकी तुलना संसार के किसी भी सुख व आनन्द से नहीं की जा सकती।
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योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।। (योगदर्शन)
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चित्त की सभी वृत्तियों का पूर्ण रूप से निरोध ही योग है। ये वृत्तयाँ चित्त
में संग्रहीत संस्कारों से उत्पन्न होती है।
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मानवीय प्रकृति (भौतिक एवं आत्मिक) के भिन्न-भिन्न तत्वों द्वारा दुःख
निवृत्ति हेतु विधिपूर्वक किया गया प्रयत्न ही योग है। इससे ही व्यक्ति की चेतना
परम चैतन्य से जुड़ती है। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक क्षमताओं को योग
के जरिए उच्चतम स्तर तक विकसित किया जाता है।
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योग कर्मसु कौशलम्। (गीता) कर्म का कौशल रूप ही योग है। कुशलतापूर्वक कर्म
करना ही योग है।
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योग एक अभिवृत्ति, एक प्रयत्न है जो व्यक्ति को समष्टि से जोड़ता है।(ऋग्वेद)
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श्री अरविन्द के मतानुसार-योग का अर्थ केवल ईश्वर की प्राप्ति ही नहीं अपितु
उस क्रिया का नाम है जिसके द्वारा भगवत चैतन्य की अभिव्यक्ति हो तथा वह स्वयं ही
भगवत कर्म का अंग बन सके।
v प्राणायाम
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दो शब्दों के योग से शब्द बना है- प्राणायाम। विशेषज्ञों के विचार से
प्राण+आयाम में ‘प्राण’ का अर्थ है- जीवन शक्ति। प्राण में निहित है ऊर्जा, ओज,
तेज, वीर्य (शक्ति) और जीवन दायिनी शक्ति। ‘आयाम’ का अर्थ है विस्तार, फैलाव,
विनियमन, अवरोध या नियंत्रण। इस तरह प्राणायाम का अर्थ हुआ प्राण अर्थात श्वसन
(जीवन शक्ति) का विस्तार, दीर्घीकरण और फिर उसका नियंत्रण।
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योग व प्राणायाम के एक अध्येता की दृष्टि से श्वसन की सामान्य क्रिया को
अभ्यास द्वारा धीरे-धीरे धीमा करते जाना अर्थात श्वास शीघ्रता से भरने-छोडने के
स्थान पर लम्बी और गहरी श्वास भरना-छोडना। साथ ही इसकी सहजता और लय को बनाये रखते
हुए संपूर्ण शांत एवं सतत स्वरूप की ओर बढ़ना।
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तस्मिन्सति श्वास प्रश्वास योर्गति विच्छेदः प्राणायामः।। (योगदर्शन)
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आसन की सिद्धि होने पर श्वास प्रश्वास की सामान्य गति को रोक देना या स्थिर कर
देना ही प्राणायाम कहलाता है।
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प्राणायाम योग का एक महत्वपूर्ण अंग है। हठयोग और अष्टांगयोग दोनों में इसे
स्थान दिया गया है। प्राणायाम नियंत्रित श्वसनिक क्रियाओं से संबंधित है।
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प्राणायास्य आयामः इति प्राणायामः।। (अष्टांगयोग) प्राण का विस्तार ही
प्राणायाम है।
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बाह्य श्वास के नियमन द्वारा प्राण को वश में करने की विधि है, उसे प्राणायाम
कहते है।
v ध्यान
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चित्त को एकाग्र करके किसी एक वस्तु पर केन्द्रित कर देना ध्यान कहलाता है।
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भीतर से जाग जाना ध्यान है। सदा निर्विचार की दशा में रहना ही ध्यान है। - ओशो
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तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।। (योगदर्शन)
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जिस स्थान पर भी धारणा का अभ्यास किया गया है, वहाँ पर उस ज्ञान या चित्त की
वृत्ति का एकरूपता या उसका एक समान बने रहना ही ध्यान कहलाता है। संक्षेप में जहाँ
चित्त को लगाया जाए उसीमें वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है।
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किसी एक निर्धारित बिन्दु या लक्ष्य पर एकाग्रता पूर्वक चेतना को स्थिर करना।
अर्थात बिना किसी अवरोध के निरंतर किसी एक लक्ष्य पर ही अपने मन की शक्ति को
एकाग्र करना, ध्यान है।
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ध्यान का वास्तविक अर्थ है- क्रियाओं से मुक्ति। विचारों से मुक्ति। ध्यान
अनावश्यक कल्पना व विचारों को मन से हटाकर शुद्ध और निर्मल मौन में चले जाना है।
ध्यान में इन्द्रियाँ मन के साथ, मन बुद्धि के साथ और बुद्धि अपने स्वरूप आत्मा
में लीन होने लगती है।
v योग निद्रा
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एक ऐसी यौगिक नींद है, जो तुरंत ही हमारी चेतना को, सोई हुई / खोई हुई शक्ति
को नई ताजगी भरी प्रसन्नता के साथ आत्मशक्ति को विकसित कर सकारात्मकता प्रदान करती
है।
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योगनिद्रा एक आध्यात्मिक नींद की अवस्था है जिसमें जागते हुए सोना है। शरीर
विश्राम की अवस्था में रहता है और चेतना पूर्ण रूप से जागरूक रहती है।
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जो लाभ अन्य ध्यान का अभ्यास देता है उससे अधिक लाभ योग निद्रा से मिलता है
इसमें मन शांत हो जाता है तथा शरीर की कार्यक्षमता बढ जाती है। तनाव से मुक्त होने
के लिए यह योग निद्रा उपयोगी है।
· पूरी तरह से सजगता के साथ सोना ही योग निद्रा है।
v विपश्यना
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आत्मशुद्धि और आत्मनिरिक्षण ही एक प्राचीन ध्यान पद्धति।
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हजारों साल पहले भगवान बुद्ध ने विपश्यना के जरिए ही बुद्धत्व को प्राप्त किया
था। यह सत्य की उपासना है।
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विपश्यना (संस्कृत) या विपस्सना (पालि) विपश्यना का अर्थ है- विशेष प्रकार से
देखना। आओ और देखो और फिर मानो। अंतर्मुख होकर, साक्षी भाव से अपनी अंतर्आत्मा,
उनके परमार्थ स्वरूप का निरीक्षण करना- अर्थात आत्मनिरिक्षण द्वारा अंतर्मन की
तलस्पर्शी-गहराई तक चित्त की शुद्धि करने की वैज्ञानिक साधना पद्धति- विपश्यना है।
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इस प्राचीन ध्यान पद्धति को भगवान बुद्ध ने पुनर्जीवित किया। यह एक ऐसी ध्यान विधि
है जिसके माध्यम से बुद्धत्व को, ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है।
(विभिन्न विद्वानों की पुस्तकों तथा इंटरनेट साइट से
सामग्री संकलन)
योग कोच (गुजरात योग बोर्ड)
वल्लभ विद्यानगर
जि. - आणंद (गुजरात)
सुंदर आलेख।
जवाब देंहटाएंઅતિ ઉત્તમ 😍
जवाब देंहटाएंશ્રેષ્ઠ
जवाब देंहटाएंVery nice
जवाब देंहटाएंयोग सम्बधित सब्दवली का सुन्दर परिचय।
जवाब देंहटाएंविजय परमार
योग संबंधी शब्दों का अच्छा परिचय
जवाब देंहटाएंYog ke bare me Sundar Vichar
जवाब देंहटाएं"योगः कर्मसु कौशलम् " 🙏 🙂
जवाब देंहटाएंयोग से जुड़ी इस महत्वपूर्ण जानकारी से परिचय कराने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद Ma'am.
सुंदर आलेख
जवाब देंहटाएंआपके द्वारा संक्षिप्त में बताई गई योग,प्राणायम,ध्यान,योग निंद्रा,एवं विपश्यना की अर्थपूर्ण परिभाषा सही में ज्ञानवर्धक है। आज के समय में मनुष्य को कितनी भी भौतिक सुविधा मिल जाने के बावजूद भी वह हमेशा सुख प्राप्त करने के लिये कई परेशानियों का सामना कर रहा है। इन परिस्थतियों में योग एवं प्राणायम की साधना के द्वारा वह शारीरिक,मानसिक,बौधिक एवं आत्मिक सुख की प्राप्ति कर सकता है ।
जवाब देंहटाएंवर्तमान परिस्थितियों में पूरे विश्व में चल रही कोरोना की महामारी में मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की पूर्ति के लिये इन सभी योग साधना के अंग अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है ।
आपके विचार आज के समय में अत्यंत सार्थक है ।