अमीर
ख़ुसरो के साहित्यिक अवदान का महत्व
डॉ.हसमुख परमार
अमीर ख़ुसरो का जन्म सन् 1256 में एटा जिले (उ.प्र.) के पटियाली नामक
गाँव में हुआ और देहावसान हुआ इनका सन् 1325 में।
एक मान्यतानुसार ख़ुसरो के जन्म, जीवन और मृत्यु तीनों
का संबंध एक ही स्थान दिल्ली से रहा है। अमीर ख़ुसरो का मूल नाम या पूरा नाम अबुल
हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरो था। प्रसिद्ध शेख निजामुद्दीन औलिया के इस प्रिय शिष्य की
साहित्य, संगीत, गायकी जैसे
विषय क्षेत्रों में प्रारंभ से ही विशेष रुचि रही। “अबुल हसन यमीनुद्दीन अमीर ख़ुसरो 14 वीं सदी के लगभग दिल्ली के निकट रहने वाले एक प्रमुख कवि, शायर, गायक और संगीतकार थे। उनका परिवार कई
पीढ़ियों से राजदरबार से संबंधित था। स्वयं अमीर ख़ुसरो ने आठ सुल्तानों का शासन
देखा था। अमीर ख़ुसरो प्रथम मुस्लिम कवि थे, जिन्होंने
हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है। वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हिंदी, हिंदवी और फारसी में एक साथ
लिखा था। उन्हें खड़ीबोली के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है।”1
ख़ुसरो के रचनाकर्म में इनके ग्रंथों की संख्या लगभग सौ के आसपास बताई जाती
है, पर आज उपलब्ध ग्रंथों
की संख्या 20-22 से ज्यादा नहीं है। ख़ुसरो की
मुख्य भाषा फारसी होते हुए भी इन्होंने हिंदी में भी विपुल मात्रा में साहित्य सृजन किया। हिंदी-फारसी दोनों भाषाओं के साहित्य में इनका योगदान
अविस्मरणीय है। फिरदौसी, शेख सादिक जैसे फारसी के
दिग्गज़ कवियों की पंक्ति में ख़ुसरो का नाम लेना इनके फारसी साहित्य में तथा हिंदी
साहित्य के आरंभिक काल के एक प्रतिनिधि कवि के रूप में इनकी गणना इनके हिंदी
साहित्य में विशेष स्थान व महत्व को रेखांकित करता है।
आदिकालीन हिंदी साहित्य को प्रमुखत: पाँच वर्गों में विभक्त किया गया है। 1. सिद्ध
साहित्य 2. नाथ साहित्य 3.जैन साहित्य 4.रासो साहित्य और 5. हिंदवी तथा इतर
साहित्य। आदिकाल की इन पाँच काव्य प्रवृत्तियों में अमीर ख़ुसरो और इनके सर्जन की
चर्चा हिंदवी तथा इतर साहित्य के अंतर्गत की जाती है। डॉ. नगेंद्र द्वारा संपादित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में आदिकाल के लौकिक
साहित्य नामक वर्ग में ख़ुसरो की पहेलियों को लिया गया है। आ. रामचंद्र शुक्ल ने
हिंदी साहित्येतिहास के आदिकाल जिसे वह वीरगाथा काल कहते हैं, जिसमें इन्होंने ख़ुसरो व इनके साहित्य का परिचय ‘फुटकल रचनाएँ’ वाले प्रकरण में दिया है।
अमीर ख़ुसरो की हिंदी रचनाएँ :
खालिक
बारी, हालात-ए-कन्हैया, गीत, दोहे, कव्वाली, हिंदी गज़ल, पहेलियाँ (बूझ पहेलियाँ बिनबूझ
पहेलियाँ), कह मुकरियाँ, दो सखुने, निस्बतें अर्थात् संबंध, ढकोसले इत्यादि।
फारसी हिंदी कोश को लेकर ख़ुसरो का ‘खालिक बारी’ विशेष उल्लेखनीय है। “इन्होंने खालिक बारी के नाम से एक फारसी हिंदी का
कोश भी बनाया है, उसमें भी हिंदी का रूप मिलता है।”2
‘हालात-ए-कन्हैया’ के संबंध में
कहा जाता है कि “अपने गुरु निजामुद्दीन द्वारा स्वप्न में भगवान श्री कृष्ण के
दर्शन देने के उपरांत इनके आदेश पर ख़ुसरो ने श्री कृष्ण की स्तुति में इसे हिंदवी
भाषा में लिखा।” असल में हिंदी साहित्य में ख़ुसरो की प्रसिद्धि का मुख्य आधार इनके
द्वारा रचित पहेलियाँ व मुकरियाँ ही रही है। इन पहेलियों व मुकरियों में विनोद के
साथ-साथ व्यंग्य का पुट भी मिलता है।
ख़ुसरो का साहित्यिक महत्व :
· खड़ीबोली को काव्य की भाषा बनाने वाला
हिंदी का प्रथम कवि
· हिंदी की पहली आवाज
· हिंदी रचनाओं में खड़ीबोली के साथ-साथ
ब्रज तथा हिंदी-फारसी मिश्रित भाषा का प्रयोग
· हास्य रस के प्रथम कवि
· कव्वाली तथा गज़ल को ज्यादा प्रचलित व
प्रसिद्ध करने का श्रेय
· प्रसिद्ध संगीतकार
· आदिकाल के प्रतिनिधि कवियों में गणना
· निरूपित विषय वस्तु में विस्तार व
विविधता
· उक्ति वैचित्र्य का गुण
हिंदी साहित्य के आदिकाल की रचनाओं में भाषा की दृष्टि से भी पर्याप्त
वैविध्य मिलता है। इस समय खड़ीबोली को काव्य की भाषा बनाने वाले पहले कवि अमीर ख़ुसरो
ही है। इनकी रचनाओं में खड़ीबोली का वह रूप दृष्टिगत होता है जो आधुनिक खड़ीबोली
का है। अतः वे खड़ीबोली के जनक माने जाते हैं। इस तरह हिंदी साहित्य के इतिहास में
खड़ीबोली के प्रतिष्ठाता कवि के रूप में ख़ुसरो का विशेष महत्व है। इन्होंने ठेठ
खड़ीबोली में पहेलियाँ, मुकरियाँ आदि
मनोरंजन प्रधान साहित्य का सृजन किया है। एक उदाहरण दृष्टव्य है -
एक नार दो को ले बैठी। टेढ़ी होके बिल में पैठी।।
जिसके बैठे उसे सुहाय। ख़ुसरो उसके बल बल जाय।।
(पायजामा)
ख़ुसरो की रचनाओं में खड़ीबोली और ब्रजभाषा उभय रूप मिलते हैं। इनके गीत व
दोहे विशेषत: ब्रजभाषा में है। कतिपय दोहे -
(1) उज्जल बरन, अधीन तन, एक चित्त दो
ध्यान।
देखत में तो साधु है, निपट पाप की खान।
(2) ख़ुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को, दोउ भए एक रंग।
(3) गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारै केस।
चल ख़ुसरो घर आपने, रैन भई चहुं देश।
(हिंदी साहित्य का इतिहास, आ. रामचंद्र शुक्ल)
फारसी-हिंदी के मिश्रित भाषारूप का
प्रयोग भी देखें –
जे
हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ
कि
ताबे हियां न दारम ऐ जां न लेहु काहे लगाय छतियाँ ।
अमीर ख़ुसरो बड़े विनोदप्रिय, हाजिरजवाबी व सहृदय व्यक्ति थे। अपने स्वभाव के
अनुकूल इन्होंने ज्यादातर मनोरंजक साहित्य की रचना की। डॉ. रामकुमार वर्मा के
मतानुसार “अमीर ख़ुसरो की विनोदपूर्ण प्रवृत्ति हिंदी साहित्य के इतिहास की एक महान
निधि है। मनोरंजन और रसिकता का अवतार यह कवि अपनी मौलिकता एवं विनोदप्रियता के
कारण सदैव स्मरणीय रहेगा।” जनजीवन से सीधे जुड़कर काव्य रचना करने वाले इस कवि की
लेखनी का मुख्य उद्देश्य ही जनता का मनोरंजन करना था। जनता के मनोरंजन हेतु ही
इन्होंने जीवन के गंभीर क्षेत्रों व विषयों की अपेक्षा हल्के-फुल्के विषयों का चयन
किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के विचार से “ये बड़े ही विनोदी, मिलनसार और सहृदय थे, इसी से जनता की सब बातों
में पूरा योग देना चाहते थे। जिस ढंग के दोहे, तुकबंदियाँ
और पहेलियाँ आदि साधारण जनता की बोलचाल में इन्हें प्रचलित मिली; उसी ढंग के पद्य, पहेलियाँ आदि कहने की उत्कंठा
इन्हें भी हुई। इनकी पहेलियाँ और मुकरियाँ प्रसिद्ध है। इनमें उक्ति-वैचित्र्य की
प्रधानता भी, यद्यपि कुछ रसीले गीत और दोहे भी इन्होंने
कहे हैं।” इसमें कोई संदेह नहीं कि ख़ुसरो की कही हुई बातें आज भी हास्य-व्यंग्य
संबंधी साहित्य में विशेष स्थान की अधिकारी रही है।
विषय वैविध्य भी ख़ुसरो साहित्य की एक प्रमुख विशेषता रही है। “लोक जीवन के
विशद पर्यवेक्षण, ज्ञान के अनुरूप ख़ुसरो
की हिंदी रचनाओं की विषय-वस्तु विशद और वैविध्यपूर्ण है। उनमें भारतीय प्रकृति, मौसम, पशु-पक्षी, जीव-जंतु, पहनावा, आभूषण, शृंगार
प्रसाधन, अस्त्र-शस्त्र, आमोद-प्रमोद, शिल्प, वाद्य से
लेकर रोजमर्रा जीवन की न जाने कितनी व्यवहारोपयोगी वस्तुओं - हंडिया, लोटा, चूल्हा, चक्की, मथानी, पंखा, पर्दा, डोली, झूला आदि भी समायी है।”3
एक प्रसिद्ध संगीतकार होने के कारण ख़ुसरो की कई रचनाओं में संगीतात्मक्ता
का गुण भी पाया जाता है। गीत-संगीत के प्रेमियों में ख़ुसरो की निम्न पंक्ति काफी
मशहूर रही है –
‘लाज सरम सब छीनी ओ मोसै नैना मिलाइ के।’
पहेलियाँ
पहेली एक तरह से प्रश्नात्मक रूप में होती है, जिसमें किसी वस्तु का
घुमा-फिराकर वर्णन किया जाता है अर्थात् इसमें वस्तु के गुणों का वर्णन प्रत्यक्ष
रूप से न करके अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता है, जिस पर
सोच-विचार करके इसका सही उत्तर दिया जाता है। हिंदी शब्द सागर के अनुसार “ऐसा वाक्य जिसमें किसी वस्तु का लक्षण घुमा-फिराकर अथवा किसी भ्रामक रूप
में दिया गया हो और उसी लक्षण के सहारे उसे बूझने अथवा उसके नाम बतलाने का
प्रस्ताव हो, पहेली कहलाता है।” पहेलियाँ लोक के
मनोरंजन का विषय होती है। मनोविनोद हेतु इसका प्रयोग किया जाता है। साथ ही इसके
प्रयोग का एक उद्देश्य सामने वाले की बुद्धि की परीक्षा लेना होता है।
अमीर खुसरों ने अपनी पहेलियों द्वारा जनता का अच्छा मनोरंजन किया। इनके
द्वारा रचित पहेलियाँ दो प्रकार की है - बूझ पहेलियाँ और बिन बूझ पहेलियाँ। बूझ
पहेली में उसका उत्तर पहेली के अंदर ही होता है और बिनबूझ पहेली में उत्तर पहेली
में नहीं होता, इसका उत्तर पाठक
को दिमागी कसरत करके देना पड़ता है। डॉ. विजयपाल सिंह के मतानुसार “बूझ पहेली के
प्रकार को ‘अंन्तरर्लिपिका’ कहते
हैं। इसका उत्तर पहली में छिपा होता है। जिस पहेली का उत्तर पहेली में न होने के
कारण बाहर से उत्तर-अर्थ दिया जाता है, इस तरह की बिन
बूझ पहेली को बहिर्तिदिया’ कहते हैं।
बूझ पहेली
हाड
की देही उज्जवल रंग।
लिपटा
रहा नारी के संग।।
चोरी
की ना खून किया।
मेरा
सिर क्यों काट लिया?
– नाखून
· बिन बूझ पहेली
श्याम बरन पितांबर कांधे
मुरली
धरे न होय
बिन मुरली वह नाद करत है
बिरला बूझै कोय।
– भौंरा
· कह मुकरियाँ
मुकरी चार पंक्तियों की वह कविता है जिसकी अंतिम पंक्ति में घटस्फोट होता
है। हिंदी में इस लोकप्रिय काव्य रूप की विकास यात्रा में सर्वप्रथम नाम अमीर ख़ुसरो
का लिया जाता है। “अधिकांश विद्वान मुकरी को पहेली का ही एक प्रकार मानते है।
पहेली की तरह मुकरी भी श्रोता के बुद्धि विकास के साथ उसका मनोरंजन करती है।
पुरातन मुकरियाँ देखने पर स्वत: स्पष्ट होता है कि मुकरी दो अंतरंग सखियों के बीच
हुआ संवाद है, जिसमें पहली सखी
अपनी दूसरी सखी के सामने अपनी बात कुछ इस प्रकार रखती है कि उसे अर्थभ्रम हो जाता
है। श्रोता सखी ज्यों ही अर्थ ग्रहण करना चाहती हैं, त्यों
ही वक्ता सखी दूसरा अर्थ करके उसे हतप्रभ कर देती है। यद्यपि यह दो पुरुष मित्रों
या स्त्री-पुरुष का संवाद भी हो सकता है।”4
ख़ुसरो की कुछ मुकरियाँ
1
जब मेरे मंदिर में आवे
सोते
मुझको आन जगावै।
पढ़त फिरत वह विरह के अक्षर
ऐ
सखि साजन! ना सखि मच्छर।।
2
मेरा मोसे सिंगार करावत
आगे बैठ के मान बढ़ावत।
बासे चिक्कन न कोउ दीसा
ऐ सखि साजन, ना सखि सीसा।।
दो सखुन
मूलतः फारसी भाषा के ‘दो सखुन’ शब्द का अर्थ कथन या उक्ति होता है।
इसमें दो अलग-अलग प्रश्न होते है और इन दोनों का उत्तर एक ही दिया जाता है। पर
उत्तर में दिए गए शब्द के दो अर्थ होते हैं जो उपरोक्त पूछे गए प्रश्नों के योग्य
उत्तर बताते हैं। “दो सखुन तीन पंक्तियों का होता है।
उसमें प्रथम दो पंक्तियों में दो अलग-अलग तरह के प्रश्न होते हैं और तीसरी पंक्ति
में उनका एक सामान्य-सा उत्तर होता है जो उन दोनों प्रश्नों पर खरा उतरता है। अतः
दो सखुन में अनिवार्यत: श्लेष रहता है।”4
ख़ुसरो के दो सखुन
1
घोड़ा
अडा क्यों?
पान
सड़ा क्यों?
- फेरा न था।
2
पंडित
प्यासा क्यों?
गधा
उदास क्यों?
- लोटा न था।
3
जोरू
क्यों मारी?
ईख
क्यों उजाडी?
- रस न था
निस्बतें
अरबी भाषा के इस शब्द का अर्थ है संबंध, बराबरी या तुलना। “यह भी एक प्रकार की पहेली या
बुझौवल कही जा सकती है। इसमें दो चीजों में संबंध, तुलना
या समानता ढूंढनी या खोजनी होती है। निस्बतों का मूल आधार है एक शब्द के कई अर्थ।”
· आम और जेवर में क्या निस्बत है?
उत्तर – कीरी
· बादशाह और मुर्ग में क्या निस्बत है?
उत्तर – ताज
ढकोसला
खीर
पकाई जतन से और चरखा दिया चलाय
आया
कुत्ता खा गया, तू बैठी ढ़ोल बजाय।
– ला पानी पीला
डॉ. सायना हसन खान ने अपने पीएच.डी. शोध प्रबंध – ‘अमीर ख़ुसरो की हिन्दी रचनाएँ : पाठ संकलन और समीक्षात्मक अध्ययन’ – में ख़ुसरो
के विविध साहित्य रूपों से संबंधित अनेकों रचनाओं का संकलन तथा इन पर समीक्षात्मक
द्रष्टि से विचार किया है। भोलानाथ तिवारी की ‘अमीर ख़ुसरो
और उनका साहित्य’ पुस्तक में ख़ुसरो के व्यक्तित्व व
कृतित्व की विस्तृत चर्चा की गई है।
ख़ुसरो की हिन्दी रचनाओं में गज़ल, कव्वाली व गीत भी काफी लोकप्रिय रहे है।
गज़ल
(1) जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिन्ता उतर
ऐसा
नहीं कोई अजब राखे उसे समझाय कर ।
(2) ख़ुसरो कहे बाताँ गजब दिल में न लावे कुछ
अजब,
कुदरत
खुदा की है अजब जब जीव दिया गुल लाय कर ।
कव्वाली
छापा
तिलक तज दिन्हीं रे, तो से नैना मिला के।
प्रेम
बटी का मदवा पिलाके
मनवारी
कर दीन्हीं रे, मो से नैना मिला के।
ख़ुसरो
निजाम पै बलि-बलि जइए
मोरे
सुहागन कीन्हीं रे, मौसे नैना मिला के।
गीत
काहे
को बियाहे बिदेस
सुन
बाबुल मोरे।
हम
तो बाबुल तोरे बागों की कोयल
कुहकत
धर धर जाऊँ
सुन
बाबुल मोरे
हम
तो बाबुल तेरे खेतो की चिड़ियां
चुग्गा
चुगतउडि जाऊँ,
सुन
बाबुल मोरे।
संदर्भ सूची –
1. अमीर ख़ुसरो : परिचय तथा रचनाएँ, सं. सुदर्शन चोपड़ा
2. हिंदी साहित्य का इतिहास डॉ. विजयपाल
सिंह
3. भक्तिकाव्य पुनर्पाठ, प्रोफेसर दयाशंकर त्रिपाठी, पृष्ठ – 14
4. आनंद मंजरी, त्रिलोकसिंह ठकुरेला, अपनी बात से
5. हिंदी साहित्य का संक्षिप्त सुगम
इतिहास डॉ. पारुकांत देसाई, पृष्ठ – 10
डॉ.
हसमुख परमार
एसोसिएट
प्रोफ़ेसर
स्नातकोत्तर
हिन्दी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर
जिला-
आणंद (गुजरात) – 388120
बहुत-बहुत ज्ञान वर्धक प्रस्तुती हैं। धन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंखालीद
पहेलियाँ व मुकरियाँ के पयाॅय अमीर खुसरो पर जानकारीपूर्ण एवम् ज्ञानवघॅक लेख।
जवाब देंहटाएंअंक के संपादक एवम् आलेख के लेखक को बधाई 💐💐
खुसरो पर अच्छी जानकारी।
जवाब देंहटाएंसंक्षिप्त आलेख में अमीर खुसरो के विषय मे विस्तृत जानकारी हेतु डॉ. परमार जी को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंअमीर खुसरो एवं उनकी पहेलियों पर ज्ञानवर्धक माहिती से अवगत करवाया...हार्दिक शुभकामनाएं सर 💐💐💐
जवाब देंहटाएंसंक्षिप्त आलेख में अमीर खुसरो के विषय मे विस्तृत जानकारी हेतु एवं उनकी पहेलियों पर ज्ञानवर्धक माहिती से अवगत करवाया...हार्दिक शुभकामनाएं सर 💐💐💐
जवाब देंहटाएंपहेलियाँ व मुकरियाँ के पयाॅय अमीर खुसरो पर जानकारीपूर्ण एवम् ज्ञानवघॅक लेख।
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाएं सर 💐💐💐
Jignasha parmar
ખૂબ સરસ સર અમીર ખુશરો વિશે સારી માહિતી મળી આભાર 💐
जवाब देंहटाएं