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डॉ. योगेन्द्र नाथ
मिश्र
डॉ.
शिवकुमार मिश्र से मेरी पहली मुलाकात 1
मार्च, 1988, की शाम को, उनके
निवास-स्थान पर हुई थी। उस समय वे सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर, के स्टॉफ क्वार्टर (बी-3) में रहते थे। मैं रिसर्च एसोशिएट पद (भाषाविज्ञान) का इंटरव्यू देने के
लिए बनारस से आया था। इंटरव्यू 2 मार्च को था। पहली ही
मुलाकात में मैं मिश्रजी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हो गया था। उनका
व्यक्तित्व ही ऐसा था। कई वर्षों के बाद साइंस के एक अध्यापक ने मुझसे कहा था कि
मिश्रजी का व्यक्तित्व ऐसा है कि अगर वे सामने से चले आ रहे हों, तो उन्हें देखकर, परिचय न होते हुए भी उनसे मिलने की
और बात करने की सहज ही इच्छा होती है।
मैं
ही अकेला उम्मीदवार था। मेरी नियुक्ति निश्चित थी। दूसरे दिन मिश्रजी ने बताया कि
इस महीने के अंत तक आप आने के लिए तैयार रहिएगा। तब तक आपको नियुक्ति-पत्र पहुँच
जाएगा। 30 मार्च, 1988, को मैं सरदार पटेल विश्वविद्यालय के
हिंदी विभाग के साथ विधिवत् जुड़ गया। विभाग बहुत बड़ा था। कुछ पुराने तथा ज्यादातर
नए, 15-16 लोगों का विभाग था। विभाग का अपना तीन मंजिला
स्वतंत्र भवन था। हालाँकि, वह सिर्फ हिंदी विभाग का भवन नहीं है। वह संस्कृत, हिंदी,
गुजराती तथा अंग्रेजी विभागों का संयुक्त भवन है, जिसमें हिंदी विभाग का हिस्सा बहुत ज्यादा है, जो
मिश्रजी द्वारा यूजीसी से लाई हुई ग्रांट से बना है।
जिस
समय मैं ऐसे हिंदी विभाग का हिस्सा बना, उस
समय विभाग में सदा उत्सव का माहौल बना रहता था। वर्षों से विभाग स्पेशल असिस्टेंस
के अंतर्गत काम कर रहा था। आए दिन सेमिनारों के आयोजन हुआ करते थे। बहुत बड़ी-बड़ी
हस्तियों का आना-जाना लगा रहता था। लेकिन विभाग के ऐसे माहौल में मेरी शुरुआत कुछ
अच्छी नहीं हुई, जिसका खामियाजा मुझे आने वाले समय में
भुगतना पड़ा। मैं तो बनारस का संस्कार लेकर वल्लभ विद्यानगर पहुँचा था -
धोती-कुर्ता, कुमकुम का टीका, चोटी,
जनेऊ के साथ। जबकि सारा विभाग मार्क्सवादी (?)।
उस समय विभाग में एक क्लर्क थे गंभीर गढ़वी। उनके पड़ोस में मुझे रहने के लिए कमरा
मिला था। मेरी वेशभूषा देखकर एक दिन उन्होंने मुझसे कहा : ‘पंडितजी, सारा विभाग मार्क्सवादी है। जरा सँभलकर रहिएगा।’ उस समय मेरे लिए
‘मार्क्सवाद’ या ‘मार्क्सवादी’ बड़े अजीब शब्द थे। एक तरह से गाली। मुझे लगता है,
बहुतों के लिए आज भी ऐसा ही होगा। उस समय तक मैं ‘मार्क्स’ या
‘मार्क्सवाद’ के बारे में नाम के सिवाय कुछ भी नहीं जानता था। मेरे मन में सिर्फ
इतना ही था कि ‘मार्क्सवादी’ अजीब किस्म के प्राणी होते हैं।
बनारस के अस्सी चौराहे पर मैंने ‘मार्क्सवादियों’ तथा ‘गैर-मार्क्सवादियों’ को भिड़ते हुए देखा था। उस समय मेरे मन में यही छाप थी कि जो लोग ईश्वर को नहीं मानते, परंपरा को नहीं मानते, नाम में से जाति सूचक शब्द हटा देते हैं या बहुत उल्टी-सुल्टी हरकतें करते हैं, वे ‘मार्क्सवादी’ होते हैं। मेरे परिचय में कई ऐसे ब्राह्मण या ठाकुर थे (और आज भी हैं), जो ‘प्रोग्रसिव’ कहलाने के लिए अपने नाम से जाति सूचक शब्द हटाए हुए थे।
2
एक
प्रसंग का उल्लेख यहाँ करना चाहता हूँ। जिस समय डॉ. अवधेश प्रधान की नियुक्ति काशी
हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में हुई थी, उस समय वह नियुक्ति चर्चा का विषय बनी थी। हम मित्रों में अस्सी (बनारस)
पर अजीब ढंग से चर्चाएँ होती थीं। मैं उस समय से अवधेशजी का नाम जानता हूँ - मिला
कभी नहीं। उन्हें देखा भी नहीं है। (टिप्पणी – करीब तीन वर्ष पहले बीएचयू के हिंदी
विभाग में अवधेशजी से मुलाकात हुई थी। आश्चर्य कि अवधेशजी हमारी कल्पित धारणा के
बिल्कल विपरीत लगे। बड़े प्यारे व्यक्ति। हमारे बीच काफी बातें हुई थीं।) उस समय
उनके बारे में यह कहा जाता था कि वे बहुत प्रखर बुद्धि के व्यक्ति हैं, लेकिन मार्क्सवादी हैं। उनकी नियुक्ति के पीछे उनके मार्क्सवादी होने की
चर्चा अस्सी पर होती थी। मैं तो काशी विद्यापीठ का हिंदी का विद्यार्थी था। लेकिन
बीएचयू के हिंदी विभाग की चर्चाएँ हमारे बीच होती रहती थीं।
आगे
चलकर मैंने बीएचयू से भाषाविज्ञान में एम. ए. तथा पी-एच. डी. की। मार्क्सवाद तथा
मार्क्सवादियों के बारे में ऐसी धारणाएँ लेकर मैं सरदार पटेल विश्वविद्यालय के
हिंदी विभाग में पहुँचा था। अभी मैं ऐसे माहौल को समझ पाता या उसके अनुकूल होने की
कोशिश कर पाता कि उसके पहले ही मेरे सहकर्मी भाई लोगों ने मेरी हालत चिड़ियाघर से
आए हुए किसी प्राणी जैसी बना दी। मैं उनके लिए मनोरंजन का विषय बन गया। वे लोग
मुझे तरह-तरह के विषयों पर छेड़ देते - खास करके धर्म या ईश्वर को लेकर - और मैं
उत्तेजित हो उठता। धीरे-धीरे मेरी स्थिति विवादास्पद बन गई। झूठी-सच्ची कहानियाँ
मिश्र के पास पहुँचने लगीं। वे मुझे अपने कक्ष में बुलाते - समझाते - डराते भी।
लेकिन यह सिलसिला रुकने के बजाय अधिकाधिक खराब होता गया। मैं न बुरा तब था,
न आज हूँ। मुझे तो बहुत बाद में पता चला कि कुछ लोग तो सिर्फ
मनोरंजन के लिए ऐसा करते थे; परंतु एक-दो मित्र ऐसे थे,
जो विभागाध्यक्ष यानी मिश्रजी की नजर में मुझे गिराकर अपना रास्ता
साफ करना चाहते थे। वे अपनी चाल में सफल रहे। इसके लिए चरित्र-हनन तक का सहारा
लिया गया। लोगों ने मुझे कूड़ादान बना दिया। हर रोज मेरे बारे में नई-नई
कहानियाँ गढ़ी जाने लगीं। मिश्रजी के सामने मेरी बातों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत
किया जाने लगा। मेरी चोटी, तिलक, जनेऊ
आदि पर सामूहिक चर्चाएँ होने लगीं। हर रोज ढाई बजे सब लोग चाय पर बैठते। उस समय
मेरी चर्चा एक छोटे सेमिनार का रूप ले लेती। आज यह कल्पना करके भी सिहर उठता हूँ
कि यह सब कुछ मैंने कैसे सहा! मिश्रजी के सेवा-निवृत्त होने के बाद ‘तुलनात्मक
साहित्य’ में प्रोफेसर के रूप में डॉ. महावीरसिंह चौहान आए। एक दिन बरबस उनके मुख
से निकल गया - ‘पंडितजी, ऐसे वातावरण में इतने वर्षों तक आप
रहे कैसे?’
मैं
भाषा अनुभाग में शोध सहायक था और तीन रिसर्च फेलो थे। सबको भाषावैज्ञानिक कार्य
करना था। लेकिन भाषाविज्ञान से उनका दूर-दूर तक का रिश्ता न था। परंतु मैं
भाषाविज्ञान में एम. ए. और पी-एच. डी. था। मित्रभाव से मैंने उनसे कहा कि आप लोग
चिंता मत कीजिएगा। कोई कठिनाई हो तो मुझे बताइएगा। बस! यह बात मिश्रजी के पास
पहुँच गई। उन्होंने मुझे बुलाकर धमकाया कि आप लोगों पर अपने भाषाविज्ञान के ज्ञान
का रोब जमाते हैं।
मेरी
परिस्थिति का अंदाज आप इसी बात से लगा सकते हैं कि एक वरिष्ठ प्रोफेसर थे डॉ.
श्रीराम नागर, जो वरीयता में मिश्रजी के बाद आते
थे। वे भी बहती गंगा में हाथ धोने से अपने को नहीं रोक सके थे। मैं नागरजी के पड़ोस
में रहता था। मेरे लिए कमरा नागरजी ने ही दिलवाया था। ‘महाभारत’ सीरियल देखने के
लिए मैं उनके यहाँ हर रविवार को या वैसे भी जाया करता था। उसी बीच अमेरिका से उनके
बेटी-दामाद आ गए। वे लोग एक महीने तक रहे। उनसे मिलने आने वालों की भीड़ लगी रहती
थी। ऐसे में, मैं उस दौरान, उनके यहाँ
नहीं गया। एक दिन मिश्रजी के कक्ष में सब लोग बैठे थे और मेरे बारे में बातें चल
रही थीं। उस समय मैं बनारस गया हुआ था। मिश्रजी की यह शिकायत थी कि मेरे यहाँ
योगेन्द्रनाथ मिश्र नहीं आते। यह सुनकर छूटते ही नागरजी बोले - ‘मेरे यहाँ भी एक
महीने से नहीं आए।’ बनारस से लौटने के बाद मुझे इस बात की जानकारी हुई, तो मैंने डॉ. नागरजी से सीधे बात की और पूरी बात बताई। वे अपनी गलती भी
मान गए।
यहाँ
यह बता दूँ कि उस समय तक मेरी ‘इमेज’ इतनी खराब हो गई थी कि मिश्रजी भरसक मुझसे
बात भी नहीं करते थे, मेरी तरफ देखने से भी
परहेज करते थे। उनके निकट पहुँचने की मैंने बहुत कोशिश की थी। वे भले ही मुझे पसंद
नहीं करते थे, परंतु उनके व्यक्तित्व में इतना आकर्षण था कि
मैं उनके निकट पहुँचना चाहता था।
3
मिश्रजी
जून 1991 में सेवा-निवृत्त हुए। सेवा-निवृत्त होते ही विभाग से उनका नाता
धीरे-धीरे टूट गया; अथवा यह भी कह सकते हैं कि तोड़ दिया गया।
जो लोग उनके आगे-पीछे मधुमक्खियों की तरह लगे रहते थे, वे
लोग धीरे-धीरे उन्हें भूल गए। ऐसे लोगों के दो वर्ग मैं बनाना चाहता हूँ। एक वे जो
पुराने थे, जिनके ऊपर मिश्रजी बैठे थे।
मिश्रजी
की नियुक्ति जब 1977 में हुई थी,
तब विभाग के एक वरिष्ठ अध्यापक श्री सुरेशचंद्र त्रिवेदी भी
प्रोफेसर पद के उम्मीदवार थे। पता नहीं क्यों विश्वविद्यालय ने उन्हें इंटरव्यू
में बुलाया ही न था। यह पता करके ही कि विभाग से कोई उम्मीदवार नहीं है, मिश्रजी इंटरव्यू में गए थे। मिश्रजी प्रोफेसर और अध्यक्ष पद पर नियुक्त
हो गए। विभाग की परिस्थिति यह थी कि मिश्रजी ख्यात वामपंथी थे और विभाग के सभी लोग
- खास करके डॉ. श्रीराम नागर दक्षिण पंथी थे - आर. एस. एस. वाले। जाहिर है ऐसे
व्यक्ति को कोई भी सहजता से स्वीकार नहीं करेगा। मामला बहुत गरम था। मिश्रजी अक्सर
बताया करते थे कि मैंने सबको साथ में बिठाया और कहा कि मैं तो छुट्टी लेकर आया
हूँ। मैं वापस जा सकता हूँ। परंतु मेरे चले जाने के बाद त्रिवेदीजी, क्या आप प्रोफेसर बन जाएँगे। त्रिवेदीजी ने कहा - नहीं।
‘जब कोई बाहर से ही आने वाला है, तो मैं क्या बुरा
हूँ? क्यों न हम सब लोग मिलकर विभाग को आगे बढ़ाएँ! यह सही है
कि हमारी विचारधाराओं में कोई मेल नहीं है। हमारी राजनीति तो चलती रहेगी; परंतु विभाग के बाहर।‘ मिश्रजी ने उन लोगों से - खासकर नागरजी से - यह भी
कहा कि मेरे लिए पाने को कुछ शेष नहीं है। सर्वोच्च डिग्री मुझे मिल चुकी है (वे
तब तक डी. लिट्. हो चुके थे), सर्वोच्च पद (प्रोफेसर/हेड)
मिल चुका है; मेरी कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी आ चुकी हैं;
अब मैं चौबीस घंटे राजनीति कर सकता हूँ। परंतु इससे विभाग का कुछ
भला नहीं होगा। क्यों न हम राजनीति बाहर करें, और विभाग को मिल-जुलकर
चलाएँ। इसका बहुत असर उन लोगों पर पड़ा। उन लोगों ने कहा कि विश्वास मिलेगा,
तो जरूर विश्वास देंगे। मिश्रजी बताते थे कि उसके बाद तो उन लोगों
का पूरा विश्वास और सहयोग मुझे मिला। मैं हफ्ते-हफ्ते के लिए बाहर रहता था,
मेरी चिट्ठियाँ मेरे टेबुल पर पड़ी रहती थीं। वे लोग चाहते, तो मुझे परेशान कर सकते थे। परंतु ऐसा कभी नहीं हुआ। बाद में तो मिश्रजी
के प्रयत्नों तथा उनकी कार्य-क्षमता की वजह से यूजीसी की विविध परियोजनाओं की ऐसी
भरमार 3 हुई कि
सरदार पटेल विश्वविद्यालय का एक छोटा-सा हिंदी विभाग राष्ट्रीय स्तर पर ख्यात हो
गया।
4
इतना
होने के बावजूद मुझे ऐसा लगता है कि उन लोगों में पराजय का भाव जरूर रहा होगा। इसी
लिए निवृत्त होते ही मिश्रजी को वे लोग भूलने लगे और भूल गए।
अनुगामियों
में दूसरा वर्ग उन महाशयों का है, जिन्हें न तो
मिश्रजी की विद्वत्ता से कुछ लेना-देना था, न उनकी आदमीयत
से। मिश्रजी ने कम-अधिक सबका भला किया। परिस्थितिवश किसी का भला नहीं भी हो पाया -
यह भी सच है। लेकिन कोई यह नहीं कह सकता कि उन्होंने इरादा पूर्वक किसी का बुरा
किया। उनकी उपेक्षा और बेरुखी के चलते मेरा सारा भविष्य ही खराब हो गया; फिर भी मैं यह नहीं कह सकता या ऐसा न पहले मानता था और न आज मानता हूँ कि
मिश्रजी ने ऐसा जानबूझ कर किया था। भाई लोगों ने ऐसी धुंध फैला दी थी कि मिश्रजी
जैसे भोले व्यक्ति परिस्थिति को समझ नहीं सकते थे। यह भी कहा जा सकता है कि
मिश्रजी उस कालखंड में जिस प्रभा-मंडित तथा प्रभावपूर्ण स्थिति में थे, उसमें ऐसा होना स्वाभाविक था। उस जमाने की स्मृतियाँ आज भी मेरे मन में
ताजी हैं। क्या रुतबा था मिश्रजी का! यूनिवर्सिटी स्टाफ क्वार्टर और विश्वविद्यालय
के बीच मुश्किल से एक-डेढ़ किमी. का फासला है। मिश्रजी जब अपने ‘बी-3’ क्वार्टर से चलकर विश्वविद्यालय के गेट तक आते थे, तभी
उनकी जावा की ‘धक्-धक्’ की आवाज विभाग तक पहुँच जाती थी और विभाग के लोग उनका
स्वागत करने के लिए स्पर्धा में जुट जाते थे। मोटर साइकिल से उतरते ही कौन सबसे
पहले उनकी मोटर साइकिल पार्क करेगा, कौन उनके हाथ से
ब्रीफकेस पकड़ेगा - इसकी होड़ लग जाती। यही दृश्य जब वे लगभग तीन बजे विभाग से
निकलते, तब दिखाई पड़ता। कौन सबसे पहले उनकी मोटर साइकिल
स्टार्ट करके स्टेयरिंग उनके हाथ में पकड़ाए, इसकी होड़ लग
जाती। मेरी तो कोई हैसियत ही न थी। मैं तो, कार्टूनिस्ट
लक्ष्मण के ‘आम आदमी’ की तरह चुपचाप एक किनारे खड़ा यह सारा दृश्य देखा करता। बड़ा
अजीब-सा लगता यह सब कुछ मुझे। आज नहीं, मैं उस समय भी यह
सोचा करता था कि कितना बड़ा छलावा है यह सब कुछ! यूजीसी टेस्ट पास करके आए हुए
मिश्रजी के एक शोधछात्र थे जगन्नाथ पंडित (आज वे एक कॉलेज में प्राध्यापक हैं)। वे
भी विभाग के उपेक्षित प्राणी थे। मेरी जैसी उनकी स्थिति नहीं थी। परंतु हम दोनों
समदुखिया थे। मिश्रजी की सेवा-निवृत्ति के कुछ पहले, बात-बात
में मेरे मुँह से निकल गया था कि ‘जगन्नाथजी, देखिएगा,
मिश्रजी के पास उस समय सिर्फ मैं रहूँगा, जब
उनके पास दूसरा कोई नहीं होगा।’ मैं अक्सर यह सोचता हूँ कि इतना बड़ा सत्य मेरे
मुँह से कैसे निकल गया था? जगन्नाथजी कभी-कभी वह बात याद
दिलाते हैं। वह दूसरा वर्ग, मिश्रजी को संभवतः इसलिए भूल गया;
क्योंकि मिश्रजी उन लोगों के लिए अब पायदान का काम करने की स्थिति
में नहीं थे। यहाँ तक कि कुछ लोग सामने पड़ने पर नमस्कार करना भी भूल गए थे।
5
मेरे
और मिश्रजी के संबंध का दूसरा दौर शुरू हुआ सन् 1996 से। एक दिन मुझे सूचना मिली कि मिश्रजी ने मुझे याद किया है। इस सूचना से
मेरे अंदर हलचल-सी मच गई - मानो किसी सरोवर के शांत जल पर कोई भारी पत्थर पड़ा हो।
मेरी पूरी रात उत्सुकता मिश्रित बेचैनी में गुजरी। जब वे अध्यक्ष थे, तब उनका बुलावा आते ही मैं काँप उठता था। जरूर कोई शिकायत हुई है। अब तो
अध्यक्ष नहीं थे। क्यों बुलाया होगा? सुबह में मैं उनके घर
पहुँचा। उस समय वे आजादी की पचासवीं वर्ष गाँठ पर इफ्को द्वारा प्रकाशित होने वाली
किताब ‘आजादी की अग्निशिखाएँ’ का संपादन कर रहे थे। उसकी प्रेस कॉपी तैयार करने के
लिए किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी, जो शुद्ध और साफ अक्षरों
में कॉपी तैयार कर सके। उनकी छोटी बेटी शशिलेखा ने अथवा दामाद डॉ. अरुणप्रकाश
मिश्र ने उन्हें मेरा नाम सुझाया था।
थोड़े संकोच के साथ उन्होंने यह प्रस्ताव मेरे सामने रखा। मुझे तो मन की मुराद मिल गई - अंधा क्या चाहे दो आँखें। मैं तो वर्षों से उनके निकट पहुँचने की अभिलाषा लिए बैठा था। मैं फिर स्पष्ट कर दूँ कि उनकी सारी बेरुखी के बावजूद मेरे मन में उनके लिए भारी आकर्षण था। मैंने ऊपर जैसा कहा कि निवृत्त होने के बाद सरदार पटेल विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से उनका रिश्ता कट गया था। वे एकदम से अकेले पड़ गए थे। बाजार से गुजरते हुए जब वे मुझे दिखाई पड़ते, तब उनका उतरा हुआ चेहरा देखकर मैं आहत हो उठता। पता नहीं कैसे मैं उनकी पीड़ा को भाँप जाता। मैं बहुत चाहता कि मैं उनके अकेलेपन को दूर करूँ। परंतु उन तक पहुँचने के मेरे सारे रास्ते बंद थे। मिश्रजी की उस समय की बेबसी और मेरी मनःस्थिति मेरी दो कविताओं में व्यक्त हुई है। एक कविता 23/05/93 को बनी थी और दूसरी 25/05/93 को बनी थी। मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैं कवि नहीं हूँ। परंतु कभी-कभी कुछ मनःस्थितियाँ कविता का आकार ले लेती हैं। ऐसी ही किन्हीं खास मनःस्थितियों में बनीं ये दो कविताएँ बहुत कुछ कह जाती हैं। मैं यह मानता हूँ कि इन कविताओं की भाषा मिश्रजी के प्रति मेरे आदर-भाव को आहत करती हैं; लेकिन उसे कविता की भाषा मानकर ज्यों का त्यों यहाँ दे रहा हूँ ः
(1)
मैं
जब भी उस आदमी के सामने पड़ता हूँ उसके चेहरे पर
आड़ी-तिरछी
रेखाएँ उभर आती हैं,
उसकी
धनुषाकार भौंहों में
कुछ हरकत
होने लगती है
वक्राकार
होंठों में कुछ बुदबुदाता है वह,
मानो मेरे
लिए शुभकामनाएँ (?) कर रहा हो।
किंतु जब मैं
उसकी आँखों में देखता हूँ
तो वहाँ एक
ठहरी हुई बेबसी नजर आती है।
जो गहरी होकर
एक सन्नाटे का रूप ले चुकी है
मैं उस
सन्नाटे को तोड़ना चाहता हूँ
असफल कोशिश
भी कर चुका हूँ कई बार
फिर भी सोचता
हूँ
काश! मैं उस
सन्नाटे को तोड़ पाता!
(2)
सामने
से चले आ रहे -
परम प्रतापी
उस पुरुष को मैं जानता हूँ
अब उसकी
जिंदगी क्षितिज तक फैला रेगिस्तान है;
जहाँ कोई
बुलेट,
जावा या राजदूत नहीं जाती,
जीप या कार
भी नहीं जाती
पदचाप भी
जहाँ क्षणजीवी होते हैं
फिर भी वह
आदमी
अपने बूढ़े
कंधों पर अपने अतीत को लटकाए
बेबस निगाहों
से इधर-उधर देखते हुए
चुपचाप चलता
रहता है।
इन कविताओं
के माध्यम से जो कुछ व्यक्त हुआ है, वह
मिश्रजी के जीवन का एक कटु दौर था।
6
खैर,
मिश्रजी के नजदीक पहुँचने का मेरा रास्ता खुल गया। कुछ महीनों में
प्रेस कॉपी तैयार करने का काम पूरा हो गया। परंतु उनके यहाँ जाने-आने का सिलसिला
जारी रहा। सप्ताह में दो-तीन चक्कर लगने लगे। लेकिन ज्यादा देर तक बैठ नहीं पाता
था। दस-पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं बैठ पाता था। मिश्रजी कुछ खास बात नहीं कर पाते
थे। फिर भी, न जाने क्यों, अपने स्वभाव
के विपरीत उनसे मिलना मैंने जारी रखा। मुझे उनके अकेलेपन को दूर करने की धुन सवार
थी। मैं मिश्रजी के मन की हालत समझ सकता था। जहाँ हम दोनों के बीच छत्तीस का संबंध
था, वह एकाएक तिरसठ का संबंध कैसे बन सकता था?
समय
बीतता गया और बरफ की चट्टान पिघलती गई। धीरे-धीरे छोटे-मोटे काम मैं माँगने लगा।
पहले पोस्ट का काम; फिर टिकट रिजर्वेशन
का काम; फिर लाइट बिल, टेलीफोन बिल जमा
करने का काम ... बाजार से कोई सामान लाना आदि-आदि ...। ज्यों-ज्यों उस घर में तथा
मिश्रजी के मन मेरे लिए जगह बनने लगी, त्यों-त्यों अम्मा के
मन की दुविधा बढ़ने लगी। कई बार अम्मा ने अकेले में मुझसे कहा कि मिश्राजी, मैं पहले ही बता देती हूँ कि कोई उम्मीद लेकर मत आना। अब इनके पास कुछ
नहीं है। अब ये रिटायर हो चुके हैं। कुछ दे नहीं सकते। मैंने अम्मा को आश्वस्त
किया कि अम्मा, मेरे स्वभाव में ही स्वार्थ की भावना नहीं
है। कहने-सुनने में यह बात अटपटी लग सकती है; परंतु यह सच
है। समय बीतता गया। यह पता ही नहीं चला कि मैं कब मिश्रजी की कमजोरी बन गया। मैं
उस परिवार का तीसरा सदस्य (एक खुद मिश्रजी तथा दूसरी अम्मा। मिश्रजी की तीन
संतानें हैं - तीनों बेटियाँ, जो अपने-अपने परिवार में सुखी
हैं।) बन गया। मेरी तरफ से तो ऐसा कुछ था ही नहीं। अम्मा और मिश्रजी को सहज होने
में थोड़ा समय लगा। फिर भी, मुझे यह बराबर एहसास होता रहा कि
मिश्रजी यह कभी भूल नहीं पाए कि मेरी वजह से योगेंद्रनाथ मिश्र को नुकसान हुआ।
यहाँ मैं यह बता दूँ कि मिश्रजी के रिटायर होने के बाद, सन् 1993 में, मिश्रजी के अनुगामी विभागाध्यक्ष महोदय ने,
भाई लोगों के प्रभाव में आकर भाषाविज्ञान का प्रोजेक्ट बंद करने का
ऐलान कर दिया, ताकि विभाग से मुझे निकाला जा सके।
विश्वविद्यालय कार्यालय से तीन दिन की नोटिस दिलाकर 30
अप्रैल, 1993, को विभाग से मेरी विदाई कर दी गई। जो काम
मिश्रजी अपनी सदाशयता के चलते नहीं कर पाए, वह काम डॉ.
रमणभाई पटेल ने कर दिया। उसके बाद सन् 1994 से 1999 तक विद्यानगर के ही एक कॉलेज में मैंने प्रयोजनमूलक हिंदी के पार्टटाईम
अध्यापक के रूप में काम किया और उसके बाद कभी मेरी गाड़ी पटरी पर नहीं चढ़ सकी। आज
मैं बिना नौकरी किए सेवा-निवृत्ति का जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।
अब
यह सिलसिला रोज का हो गया। रोज शाम को 5 बजे
तक मैं नियमित रूप से मिश्रजी के यहाँ पहुँचने लगा। यह पता ही नहीं चला कि मैं और
मिश्रजी कब और कैसे एक-दूसरे में ओतप्रोत हो गए। उनका अकेलापन अब दूर हो चुका था।
अब वे प्रसन्न रहने लगे थे। एक बार अम्मा ने मुझसे गद्गद् होकर कहा था - ‘मिश्राजी,
तुमने इनकी उम्र दस वर्ष बढ़ा दी है।’ परंतु आगे चलकर स्थिति यहाँ तक
पहुँच गई कि अब वे एक दिन की भी मेरी अनुपस्थिति बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। अगर
किसी दिन मैं समय से नहीं पहुँच पाता, तो वे बहुत अपसेट हो
जाते। मेरे पहुँचने के बाद बीच में अगर मेरा मोबाईल बजता, तो
उससे भी चिढ़ जाते थे - ‘मिश्राजी, लोगों से कह दो कि इस बीच
कोई फोन न करे। चौबीस घंटे में एक बार तो बात करने का समय मिलता है और उसी में
तुम्हारा मोबाईल बजने लगता है।’ अब लोगों को क्या पता कि इस समय मैंमिश्र के पास
बैठा हूँ! कभी-कभी सुबह सात-आठ बजे ही उनका फोन आ जाता - ‘नौ-दस बजे अगर बाहर
निकलो तो जरा मिलना। कुछ बात करनी है।’ मैं सोचता कोई जरूरी बात होगी। परंतु घर
पहुँचने पर पता चलता कि ‘कोई काम नहीं; बस ऐसे ही बुलाया
था।’
7
उनकी
यह दशा देखकर अम्मा परेशान हो जातीं। एक दिन उन्होंने मुझसे आग्रह भरे स्वर में
कहा - ‘मिश्राजी, अब आना बंद न करना।
ये बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे।’ उस समय अम्मा का गला भर आया था।
मिश्रजी
सेवा-निवृत्ति के बाद दो-चार दिनों से लेकर हफ्ते-दस दिन के लिए या कभी-कभी उससे
भी ज्यादा दिनों के लिए बाहर रहते थे या फिर घर में ही रहते थे। वे घर से बाहर
बहुत कम निकलते थे। स्थानीय स्तर पर उनका संपर्क या सामाजिक व्यवहार बहुत कम था।
उनका संबंध थोड़े-से हिंदी के अध्यापकों तथा विद्यार्थियों तक सीमित था। चौबीसों
घंटे वे घर में ही रहते थे। वे पढ़ते कम, सोचते
ज्यादा थे। जब भी किसी सेमिनार या रिफ्रेशर में जाना होता, तब
उनके चिंतन की गति बढ़ जाती। जब मैं शाम को पहुँचता, तब एक
तरह से अपनी तैयारी के रूप में, वे पंद्रह-बीस मिनट का
व्याख्यान मुझे बैठाकर दे डालते - ‘आज मैंने इस विषय पर इस ढंग से सोचा है या इस
ढंग का परिवर्तन किया है। या इस बात को ऐसे कहा जाए, तो
ज्यादा अच्छा रहेगा।’ इस तरह से मुझे सुनाया करते। कभी-कभी एक-दो पृष्ठों से लेकर
आठ-दस पृष्ठों तक का कोई आलेख लिखकर, संतुष्ट न होने पर,
उसे रद्द कर देते। कभी-कभी तो आलेख के किसी पृष्ठ के किसी अंश पर
चिप्पी लगाकर लिखते। संतोष न होने पर चिप्पी के ऊपर चिप्पी लगाते जाते। उनकी बैठक
के आधे हिस्से में एक सोफासेट तथा 2.5x6 का एक तखत है।
किताबों से भरी छोटी दो रैकें हैं। तखत के पायदान की ओर एक शो-केस है, जिसमें टीवी तथा कुछ दूसरे सामान रखे हैं। तखत पर दिवाल से सटा एक बहुत
पुराना ब्रीफकेस तथा रेग्जीन और गत्ते से बना एक थैला पड़ा रहता। पायतान की ओर
दिवाल से सटीं कुछ नई पत्रिकाएँ तथा किताबें पड़ी रहतीं। तखत के आधे हिस्से में वे
लेटते या बैठते। अव्यवस्था उनकी जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा थी। कोई जरूरी कागज,
कोई रसीद, कोई पत्र, कभी-कभी
कुछ रुपये भी ब्रिफकेस या थैले में ठूँस देते। फिर खोजना शुरू कर देते। ध्यान ही
नहीं रहता कि कहाँ रखा है। बाद में ढूँढ़ने पर वह चीज उन्हें नहीं मिलती, तब अपने आप पर इतने झुँझलाते, परेशान होते और खुद को
कोसने लगते कि मैं और अम्मा परेशान और दुखी हो जाते; पर बीच
में हम कुछ बोल नहीं पाते। छोटे से छोटे कागज के टुकड़े को भी वे रद्दी में नहीं
फेंकते - यहाँ तक कि आए हुए पत्र का फटा लिफाफा भी। टोकने पर कहते - पता नहीं
कौन-सा कागज कब काम आ जाए। ब्रीफकेस तथा थैला भर जाने के बाद सारी सामग्री निकालकर
प्लास्टिक की थैली में रखते। फिर उन थैलियों को अन्यत्र रखवाते। परंतु बिजली का
बिल तथा फोन बिल भरने में एक दिन की भी देर नहीं करते। दोपहर में बिल आता और शाम
को लिफाफे में पैसा और बिल डालकर मुझे पकड़ा देते। भले ही दस दिन का समय हो,
परंतु मुझे हिदायत देते कि बिल कल जरूर भर देना। अगर कभी मैं भूल
गया, तो शाम को मुझे जरूर डाँट पड़ती। उसका कारण सिर्फ उनका
यह आग्रह कि आज का काम आज हो जाए, तो दिमाग पर बोझ नहीं रहता है। हाउस टेक्स वे
पुरानी रसीद के आधार पर अग्रिम भरवा देते। बिल के आने का इंतजार नहीं करते।
8
मेरे
एक मित्र हैं भरतसिंह झाला। वे सन् 1985-86 में मिश्रजी के एम. ए. के विद्यार्थी थे। सन् 1998-99 में उन्होंने डॉ. सनतकुमार व्यास के निर्देशन में पी-एच. डी. का काम शुरू
किया। परंतु विषय उनके अनुकूल नहीं पड़ा। इसलिए एक वर्ष के बाद विषय बदलने की बात
आई। व्यासजी के साथ मेरा अच्छा संबंध था। मेरे मन में एक बात कौंध गई थी कि क्यों
न मिश्रजी के समीक्षा कार्य को भरत झाला के शोध का विषय बनाया जाए! व्यासजी इस पर
सहमत हो गए। मैंने और झाला ने यह सोचा कि मिश्रजी से ही सिनॉप्सिस बनवाई जाए! पहले
तो मिश्रजी इसके लिए तैयार नहीं हुए - ‘मेरा ही विषय और मैं ही सिनॉप्सिस बनाऊँ?’ परंतु
हमने यह कहा कि आप यह मानकर सिनॉप्सिस बनाइए कि यह किसी और का है। हम सिर्फ नाम
बदल देंगे। हमारी बात मानकर उन्होंने सिनॉप्सिस बना दी। पर साथ ही यह हिदायत भी दी
कि सूचनात्मक जानकारी से अधिक और कोई उम्मीद आप लोग मुझसे मत कीजिएगा। अपने बारे
में कोई बात करने में मुझे असुविधा होती है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि काम आप
भक्तिभाव से मत कीजिएगा - तटस्थ होकर कीजिएगा। यह आपके भी हित में रहेगा और मेरे
भी हित में रहेगा। उन्हें इस बात का डर रहा होगा कि मैं विद्यानगर में रहता हूँ;
काम विद्यानगर में हो रहा है और काम करने वाले भरत झाला मेरे
विद्यार्थी हैं। लोग यह न सोचें कि काम मैंने ही करवाया है।
खैर,
काम शुरू हुआ। भरत झाला मेरे मित्र और जिन पर काम हो रहा था,
वे मेरे परम आदरणीय। स्वाभाविक था कि मैं चाहूँ कि काम अधिकाधिक
अच्छा हो। एक और कारण था मेरी सक्रियता का। भाषाविज्ञान में आने के नाते हिंदी
साहित्य से मेरा संबंध विच्छिन्न-सा हो गया था। मैं खुद भी हिंदी समीक्षा -
विशेषकर मार्क्सवादी समीक्षा के बारे में कुछ जानने के लिए उत्सुक था।
सबसे
पहले मिश्रजी का जीवन परिचय रिकॉर्ड किया गया, जिसे
भरत झाला ने कागज पर उतारा। फिर हमने उनके लेखन की जानकारी माँगी। किताबों की सूची
तो उन्होंने तुरंत तैयार कर दी; परंतु पत्रिकाओं में छपे
निबंधों के लिए दो-चार दिनों का समय माँगा। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अपने
निबंधों की कोई सूची या सभी निबंधों की कॉपी मिश्रजी के पास कभी नहीं रही। शायद
उन्होंने कभी इसकी जरूरत नहीं समझी। ज्यातर वे हाथ से लिखते थे और मूल कॉपी
पत्रिकाओं को भेज देते थे। पहले तो फोटो कॉपी की सुविधा नहीं थी। परंतु यह सुविधा
आने के बाद भी कभी-कभी ही फोटो कॉपी करवाते थे। कभी-कभी खुद ही टाइप भी कर लेते
थे। उनके लिखने की पद्धति कुछ अलग ढंग की थी। जीवन में उन्होंने कभी भी लिखने के
लिए टेबुल-कुर्सी का उपयोग नहीं किया। वे अपने तखत पर बाईं करवट लेटकर ही सब कुछ
लिखते थे। उनके तखत की ऊँचाई की दो-सवा दो फुट के व्यास वाली एक गोल मेज है। वे
तखत पर करवट लेटकर उसी मेज पर लिखा करते थे। चार दिनों के बाद उन्होंने हमें पचास
निबंधों की एक सूची पकड़ा दी। हमने पूछा - बस! इतने ही निबंध! उन्होंने कहा - इतने
ही याद हैं। सोच-सोच कर इतना लिखा है।
9
फिर
हमने उनके पुस्तकालय की शरण ली। एक-एक पत्रिका की विषय सूची देखी। दो हफ्ते की
मेहनत के बाद मैंने और झाला ने डेढ़-पौने दो सौ निबंधों की सूची तैयार की। यह सूची
बाद में संपादित हुईं उनकी किताबों में काम आई। इसी बहाने मुझे मार्क्सवाद के बारे
में जानने का (‘मार्क्सवाद को’ जानने का नहीं ‘मार्क्सवाद के बारे में’ जानने का)
मौका मिला। एक ‘मानवतावादी जीवन दर्शन’ के रूप में मार्क्सवाद के प्रति मेरी धारणा
सकारात्मक होने लगी। इसका यह मतलब नहीं कि मैं मार्क्सवादी या मार्क्सवाद का
जानकार हो गया। हुआ बस इतना ही कि एक जीवन दर्शन के रूप में मार्क्सवाद अब मेरे
लिए विरोध का विषय नहीं रहा। अपने अनुभव से मैं यह कह सकता हूँ कि मिश्रजी ने
मार्क्सवादी दर्शन को सिर्फ पढ़ा नहीं था, उसे
पचाया भी था। मार्क्स का मानवतावाद उनके आचरण में उतर चुका था। बहुत कम लोगों को
मालूम होगा कि सागर की अपनी जमी जमाई नौकरी छोड़कर उनके वल्लभ विद्यानगर आने के
पीछे, दूसरे कारणों के साथ-साथ उनका ‘दलित प्रेम’ भी
जिम्मेदार था। नंदलाल नाम के अपने एक दलित शोध-छात्र को यूजीसी की स्कॉलरशिप
दिलवाने की धुन में उन्होंने सागर विश्वविद्यालय के सवर्ण वर्ग की दुश्मनी मोल ले
ली थी, जिसके चलते उन्हें चेतावनी मिल गई थी कि अब यहाँ आपका
कोई भविष्य नहीं है।
वे
बताते थे कि बहुत पहले एक बार आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने उन्हें मार्क्सवादी
साहित्य चिंतन पर व्याख्यान देने के लिए उज्जैन बुलाया था। व्याख्यान के बाद परम
धार्मिक तथा परंपरावादी आचार्य पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने खड़े होकर मंच से कहा
था कि ‘अगर यही मार्क्सवाद है, तब तो मैं भी
मार्क्सवादी हूँ।’
मिश्रजी
ख्यातनाम विद्वान् तो थे ही; परंतु उनकी
लोकप्रियता में उनकी आदमीयत का विशेष योगदान था। जिन लोगों के लिए हिंदी समीक्षा
या मार्क्सवाद बहुत दूर की वस्तु थी, उनके लिए भी मिश्रजी
अपनी आदमीयत की वजह से विशेष प्रिय थे। मिश्रजी के लिए विचारधारा का सवाल सदा मंच
तक ही सीमित रहा। मंच से उतरने के बाद वे सिर्फ एक उमदा इंसान होते थे। जहाँ तक
मेरी जानकारी है, मिश्रजी को चाहने वालों तथा मित्रों में
ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा थी, जो गैर-मार्क्सवादी थे -
यहाँ तक कि मार्क्सवाद को खुलेआम गालियाँ देते थे। मैं अपनी अल्पमति से, पूरा जोर देकर कहना चाहता हूँ कि मार्क्सवाद के मानवतावादी पक्ष को,
दूसरों को समझाने में मिश्रजी जितने समर्थ थे, वैसा सामर्थ्य बहुत कम लोगों में होगा। उनकी एक दूसरी विशेषता, जिससे मैं बहुत प्रभावित रहा हूँ, यह थी कि वे अपनी
विचारधारा की जमीन पर मजबूती से खड़े रहकर दूसरी सारी विचारधाराओं को पूरा सम्मान
देते थे। वे धार्मिकता के मामले में भी बड़े उदार थे। वे उन लोगों जैसे नहीं थे,
जो धर्म-विरोधी लेखन करके अपने को ‘प्रोग्रेसिव’ कहते हैं। मैं अपने
अनुभव से कह सकता हूँ कि मिश्रजी कर्मकांड और बाह्याडंबर के सख्त विरोधी थे;
परंतु अधार्मिक नहीं थे। मैं हर साल गुरुपूर्णिमा के दिन उनको
कुमकुम-अक्षत का टीका लगाता और वे मेरी भावनाओं की कद्र करते हुए सहर्ष टीका लगवा
लेते। दीपावली के दिन वर्षों से मैं पहले उनके घर पर लक्ष्मीजी की पूजा करता हूँ;
फिर अपने घर पर। मैं अम्मा के साथ पूजा की सारी तैयारी करके मिश्रजी
को बुलाता। वे पहले से ही तैयार बैठे रहते। बुलाने पर हमारे पास आते; वेदी पर रखे लक्ष्मी और गणेशजी के फोटो पर फूल चढ़ाते। मैं उन्हें टीका
लगाता। फिर वे अपने तखत पर चले जाते। आगे की पूजा अम्मा अपने ढंग से करतीं।
10
मिश्रजी
को एक लंबी उम्र (82 वर्ष) मिली थी। कुल
मिलाकर, आजीवन वे बहुत स्वस्थ रहे। कुछ वर्षों से बीपी की
थोड़ी तकलीफ अव्शय थी, जिसके लिए वे नियमित गोली लेते थे। घर
में खानपान का उनका संयम तो बड़ा जबरदस्त था। परंतु डॉक्टर और अस्पताल के मामले में,
मेरी समझ से उनकी एक मनोग्रंथि थी। वे नहीं चाहते थे कि बाहर लोगों
तक यह संदेश जाए कि ‘मिश्राजी बीमार हैं।’
या ‘मिश्राजी अस्पताल गए हैं।’ उनके बाएँ पैर में थोड़ा दर्द रहता था, जिसे वे घुटने का दर्द कहा करते थे। इसी लिए बाहर के कई लोग तो अपने खर्च
से उसका ऑपरेशन कराने का प्रस्ताव भी कर चुके थे। परंतु उन्हें घुटने की तकलीफ थी
ही नहीं। तकलीफ थी नसों की। फिर भी, वे अस्पताल जाने से बचते
रहते थे। डॉक्टर के नाम से चिढ़ते थे - ‘डॉक्टर के पास जाने से जो बीमार नहीं है,
वह भी बीमार पड़ जाता है। डॉक्टर को दिखाओ तो वह दस रोग बताएगा।
डॉक्टरों का तो काम ही यही है ...।’ तरह-तरह के तेलों से मालिश करवाकर काम चलाते
थे। वे जैसा कहते, मुझे वैसा करना पड़ता। पर वे अस्पताल जाने
को तैयार नहीं होते थे। साँस की थोड़ी तकलीफ उन्हें पहले से थी। अवसान के एक साल
पहले कफ बहुत बढ़ गया था। उसका वे घरेलू उपचार से काम चला लेना चाहते थे। दो महीनों
तक यह प्रक्रिया चली। फिर बहुत मुश्किल से उन्हें अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल
में वे डॉक्टरों को भरसक यह समझाने की कोशिश करते रहे कि मुझे कुछ नहीं हुआ है -
‘मैं दो-दो घंटे तक लगातार लेक्चर देता हूँ। रेलवे प्लेटफॉर्म की ऊँची-ऊँची
सीढ़ियाँ चढ़ता-उतरता हूँ। रोज टहलने जाता हूँ। गिनकर पाँच हजार कदम चलता हूँ ...
आदि-आदि।’ कई तरह की जाँच के बाद डॉक्टरों ने कहा कि और तो सब ठीक है; परंतु आपके फेफड़े थोड़े ‘वीक’ लग रहे हैं। दवा शुरू कर दीजिए; और थोड़े-थोड़े समय पर जाँच कराते रहिए। एक छोटी-सी मशीन में दो तरह के
एक-एक कैपसूल भरकर उसे मुँह में लगाकर रोज सुबह-शाम दो-तीन मिनट तक साँस लेनी थी।
इससे आराम तो मिल गया। परंतु दुबारा वे डॉक्टर से मिलने नहीं गए। कहने पर जवाब दे
देते कि अभी तो आराम मिला है। तकलीफ होगी तब देखेंगे।
11
अवसान
के लगभग तीन महीने पहले साँस की तकलीफ फिर शुरू हो गई। साँस लेने में तकलीफ होती
थी। इसलिए रात को नींद नहीं आती थी। लेकिन किसी को यह बताते न थे कि नींद न आने का
कारण क्या है? एक तो यह कि नाहक दूसरे लोग चिंता
में पड़ेंगे; दूसरे शायद इसलिए कि अस्पताल जाना नहीं चाहते
थे। बाद में बाईं तरफ की पसलियों में तथा पीठ में हल्का दर्द होने लगा। उनके कहने
पर दर्द-निवारक ट्यूब से मैं मालिश करता रहा। इसी बीच दो शादियों में शामिल होने
के लिए मैं 7 मई (2013) को अपने गाँव
चला गया। फोन से खोज-खबर लेता रहा। साँस की तकलीफ ज्यादा होने पर उनके बेटी-दामाद
ने 20 मई को करमसद (जिला-आणंद) के श्रीकृष्ण अस्पताल में
उन्हें भर्ती कराया, जहाँ वे आई सी यू में रखे गए। मैं 31 मई को वापस आया। स्थिति में कुछ खास सुधार न होने पर दिल्ली से आए उनके
बड़े दामाद 1 जून को अहमदाबाद के एक बड़े अस्पताल में ले गए।
वहाँ भी तबियत बनती-बिगड़ती रही; और आखिर 21 जून, 2013, को प्रातः साढ़े 6
बजे मिश्रजी इस फानी दुनिया को छोड़कर चले गए। उनका अवसान अटैक से हुआ। हफ्ते भर
में दो अटैक आए थे।
मिश्रजी
अब हमारे बीच नहीं हैं। सिर्फ उनकी यादें हमारे साथ हैं। असंतोष उनके जीवन का
हिस्सा न था। महत्त्वाकांक्षा भी उनके जीवन से बहुत दूर रही। कुल मिलाकर मैं
उन्हें ‘आप्तकाम’ कहना चाहूँगा। (मैं जानता हूँ ‘आप्तकाम’ बहुत बड़ा शब्द है।) वे
लोभ-लालच से बहुत परे थे। सन् 1991 में जब वे
सेवा-निवृत्त हुए, तब उनकी पेंशन सिर्फ 1500/ रुपये से शुरू हुई थी; क्योंकि सागर (मध्यप्रदेश) की
उनकी नौकरी गुजरात में जोड़ी नहीं गई थी। कई लोगों ने इस पर मुकदमा करने के लिए
उन्हें उकसाने की कोशिश की थी। परंतु मिश्रजी का यही कहना था कि जहाँ मैंने नौकरी
की, वहाँ की सरकार पर मुकदमा नहीं कर सकता। मिश्रजी को बहुत
कम पेंशन मिलती है, यह बात उनके शिष्यों और मित्रों को मालूम
थी। इसलिए वे लोग उनकी आर्थिक सहायता करने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। परंतु
मिश्रजी सबसे यही कहा करते कि जरूरत पड़ने पर कहूँगा।
‘बिन माँगे मोती मिले ...’ वाली कहावत उन पर पूरी तरह से लागू पड़ती थी।
वर्षों पहले बंबई के एक बहुत मँहगे डॉक्टर के यहाँ उनकी आँखों का आपरेशन उनके किसी
मित्र ने करवाया था। परंतु उन्होंने कभी यह जानने नहीं दिया कि कितना खर्च हुआ था।
मिश्रजी की बीमारी के समय के दो बिलों का भुगतान (6 लाख बासठ
हजार) इफ्को ने किया था। बाद में अम्मा से भी वे लोग आग्रह करते रहे कि हम आपके
लिए भी कुछ करना चाहते हैं। परंतु अम्मा इसके लिए तैयार नहीं हुईं। अम्मा के पास
व्यक्तिगत रूप से फोन आते रहे कि हम कुछ भेजना चाहते हैं। परंतु अम्मा ने
विनम्रतापूवर्क सभी के प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। मिश्रजी के अवसान के कुछ
महीने बाद मिश्रजी की एक किताब के प्रुफ के सिलसिले में फोन पर बातचीत के दौरान
वाणी प्रकाशन के श्री अरुण माहेश्वरी ने मुझसे कहा था कि माँजी से आप मेरी तरफ से
कहिएगा कि जब भी कोई कठिन परिस्थिति आए, वे मुझे अवश्य याद
कर लें। आखिर ऐसा क्यों? इस ‘क्यों’ का जवाब मुझे यही सूझता
है कि मिश्रजी ने इन लोगों के दिलों में जगह बना ली थी - अपनी आदमीयत के चलते।
‘आप्तकाम’ होने के बावजूद मिश्रजी के मन में एक बहुत गहरी पीड़ा थी। वह पीड़ा
उनके मन में आखिरी समय तक बनी रही। वह पीड़ा थी सरदार पटेल विश्वविद्यालय के हिन्दी
विभाग द्वारा की गई उनकी घोर उपेक्षा। सरदार पटेल विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग ने
उन्हें पूरी तरह से भुला दिया था। उनके अपने ही लोग उन्हें भूल गए थे।
सेवा-निवृत्ति के बाद सन् 1991 से2013 के
बीच यानी 22 वर्षों में मिश्रजी एक या दो बार ही विभाग में
गए होंगे। इसका उन्हें बहुत दुख था। भारी सदमा पहुँचा था इससे उन्हें। उन्होंने
सपने में भी नहीं सोचा होगा कि रात-दिन एक करके वे जिस विभाग को इतना समृद्ध कर
रहे हैं; देश के नक्शे पर ला रहे हैं - अकेले के दम पर - वही
विभाग उन्हें इस तरह से भूल जाएगा! वह सारी घटना उनके लिए एक दुःस्वप्न बनकर रह गई
थी, जिसे वे भरसक याद नहीं करना चाहते थे; परंतु भूल भी नहीं पाते थे। प्रायः उनके मुँह से निकल ही जाता था कि -
‘विश्वास नहीं होता, लोग ऐसे भी हो सकते हैं!’ उनके मुँह से
निकला यह वाक्य न जाने कितनी बार मैंने सुना है। मैं तो बहुत कुछ का
प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ। उनकी पीड़ा को बहुत गहराई से महसूस करता रहा हूँ।
डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र
भाषाचिन्तक
40, साईं
पार्क सोसाइटी
बाकरोल – 388315
जिला आणंद
(गुजरात)
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