रविवार, 25 अप्रैल 2021

आलेख


आदिवासियों का संवेदनशील दस्तावेज़ : शाल वनों का द्वीप

डॉ. माया प्रकाश पाण्डेय

          भारतीय साहित्य में आदिवासी विमर्श प्रारम्भ में गैर-आदिवासी रचनाकारों द्वारा निर्मित हुआ है। वैरियर एलविन की ‘आत्मकथा’, विभूतिनारायण मिश्र का उपन्यास ‘अरण्यक’, वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य का ‘इदादुहंगम’ जिसका हिन्दी अनुवाद ‘प्रजा का राज’ है, गोपीनाथ महान्ति का ‘परजा’, गुलशेर खॉ ‘शानी’ का ‘काला जल’ तथा ‘शाल वनों का द्वीप’, महाश्वेता देवी का ‘अरण्ये अधिकार’ जिसका हिन्दी अनुवाद ‘जंगल के दावेदार’ आदि हैं। ये समस्त रचनाकार किसी-न-किसी कारण से आदिवासी क्षेत्रों व आदिवासियों के संपर्क में आए, उनके बीच रहकर काम किया और उनसे प्रभावित हुए। इन रचनाकारों का आदिवासी क्षेत्रों में आने का सबसे बड़ा कारण नौकरी है जिसके कारण न चाहते हुए भी उन्हें इन क्षेत्रों में आना पड़ा और उनके बीच रहना पड़ा। चाहे वे वैरियर एलविन हों या फिर विभूति नारायण मिश्र, वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य, गोपीनाथ महान्ति आद हों सभी आदिवासियों से कहीं-न-कहीं प्रभावित हुए हैं। महाश्वेता देवी जी तो आदिवासी मेला देखने गई और उन लोगों से इतनी प्रभावित हुई कि अपना संपूर्ण जीवन आदिवासियों के हित में लगा दिया।

          एडवर्ड जो अमेरिकन थे उन्हें भारत के मध्य प्रदेश के आदिवासियों (A tribal village of middle India) पर शोध-कार्य करने के लिए फेलोशिप मिली थी। वे अपनी पत्नी फिलिस के साथ भारत आए थे। एडवर्ड को आदिवासियों के बीच कार्य करना था किन्तु उन्हें गोंड़ी बोली नहीं आती थी, इसलिए एडवर्ड को एक दुभाषिये की जरूरत थी। शानी उस समय एम.ए. करके निकले थे और नौकरी की तलाश कर रहे थे। इसी बीच उन्हें यह दुभाषिये का काम मिला जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया और एडवर्ड के साथ मध्य प्रदेश के बस्तर जिले के अबूझमाड़ ओरछा गाँव चले आए। शानीजी लगभग दो साल तक एडवर्ड के साथ आदिवासियों के बीच रहकर जो महसूस किया, उसी को उन्होंने रचनाबद्ध किया। यह उनके जीवन के पहले अनुभव की पहली रचना कही जा सकती है। उसके बाद तो ‘काला जल’ जैसी प्रख्यात रचनाएँ दी, किन्तु ‘शाल वनों का द्वीप’ उनकी उस समय की रचना है जब वे अपना साहित्यिक जीवन प्रारम्भ कर रहे थे।


          एडवर्ड मध्यप्रदेश स्थित बस्तर के पहाड़ी क्षेत्र के माड़िया-गोंड़ों जाति के लोगों के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन पर अध्ययन करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मध्य प्रदेश के बस्तर की आदिवासी माड़िया जाति के ओरछा गाँव को चुना। उन्हीं के साथ शानी जी भी लगभग दो साल तक बस्तर के अबूझमाड़ पहाड़ियों की तराई वाले एक गाँव ओरछा में रहकर इन आदिवासी लोगों के जीवन के अनेक पहलुओं का बारीकी से अवलोकन किया। उसी अध्ययन का परिणाम है ‘शाल वनों का द्वीप’। शानी का वैसे तो पूरा नाम ‘गुलशेर खाँ’ ‘शानी’ है किन्तु वे ‘शानी’ से ही जाने जाते हैं। शानी ने इस पुस्तक की भूमिका एडवर्ड से लिखवाई जो बाद में केलिफोर्निया स्टेट कॉलेज, हावर्ड, संयुक्त राज्य अमेरिका में अन्थ्रापॉलाजी के एसोसिएट प्रोफेसर हुए। शाल वनों की भूमिका के प्रारम्भ में एडवर्ड ने लिखा है कि ‘‘अपने मित्र और साथी श्री शानी की इस रचना पर दो शब्द लिखते हुए मुझे एक साथ गौरव भी है और हर्ष भी। उन्होंने बस्तर में मुझे जो उदार सहयोग दिया, उससे पहाड़ी-माड़िया-गोंड़ों के सामाजिक जीवन और नृतत्व के अध्ययन की सफलता में मुझे अत्यन्त ठोस सहायता मिली।.... मैं अबूझमाड़-पहाड़ियों की तराई वाले एक गाँव ओरछा में अपनी पत्नी के साथ डेढ़ वर्ष रह गया-ऐसे क्षेत्र में जो आज भी भारत का सबसे अधिक अछूता, पिछड़ा हुआ और बिरला-बसा इलाका है। इस तेजी से बदलते संसार में ओरछा के लोग आज भी अपनी सैकड़ों बरस पुरानी, ठेठ पारम्परिक, लेकिन सम्भवतः सबसे अधिक मूल्यवान-जीवन-पद्धति से चिपके हुए हैं और उसे किसी कीमत पर भी छोड़ना नहीं चाहते।’’1

          भारत के इन पहाड़ी की तराई इलाकों में रहने वाले ये माड़िया गोंड़ लोग सभी सुविधाओं से वंचित, अभावों में जीने वाले लोग हैं। इनका घर पहाड़ियों, वनों तथा नालों पर होता है। ये अपनेआप को ‘कोईतूर लोग’ कहते हैं। ये अपनी वर्षो पुरानी संस्कृति, संस्कार और परम्परा को कतई छोड़ने को तैयार नहीं हैं। शानी जी ने इन्हीं आदिजनों के जीवन को लेकर ‘शाल वनों का द्वीप’ लिखा है। जो पढ़ने पर उपन्यास जैसा लगता है क्योंकि इसमें अबूझमाड़ के ओरछा गाँव के आदिवासियों की महत्वपूर्ण कथा है, किन्तु यह उपन्यास नहीं है। इसका स्पष्टीकरण स्वयं शानी जी ने कर दिया है, वे लिखते है ‘‘शाल वनों का द्वीप’ उपन्यास नहीं है। यात्रा-वर्णन भी इसे आप नहीं कह सकते। मध्यप्रदेश के बस्तर, बस्तर के घोर आदिजातीय भू-भाग अबूझमाड़ और अबूझमाड़ के ओरछा नामक एक छोटे से गाँव के सामाजिक जीवन और उसके यथार्थ का यह एक कथात्मक-विवरण है। इसके माध्यम से मैंने वहाँ की विशिष्ट आदि-जाति माड़िया-गोंड़ों की जीवन-पद्धति, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, रूढ़ियों और धार्मिक तथा समाजिक मान्यताओं के मलबे में दबी मनुष्यता की पीड़ा और उल्लास-दोनों को पहचानने की कोशिश की हैं।’’2 इस संदर्भ में एडवर्ड कहते हैं कि ‘‘श्री शानी की यह रचना शायद उपन्यास नहीं, एक अत्यन्त सूक्ष्म संवेदनयुक्त सृजनात्मक विवरण है जो एक अर्थ में भले ही समाजविज्ञान न हो लेकिन दूसरे अर्थ में यह समाज-विज्ञान से आगे की रचना है।’’3

          शानी जी कथाकार हैं, उपन्यास लिखना उनका प्रिय क्षेत्र भी है। वे कहते भी हैं कि मुझे इस जीवन पर उपन्यास लिखना चाहिए। उनके मन में यह विचार भी आया कि इस जीवन-गाथा पर उपन्यास लिखें, किन्तु किन्हीं कारणों से उन्हें उपन्यास के बजाय कथात्मक-विवरण लिखना अधिक उपयुक्त लगा सो लिखा। शहरी जीवन जीने वाला व्यक्ति यदि आदिजनों की संस्कृतियों, समस्याओं, विडम्बनाओं आदि को लेकर यदि उपन्यास लिखता है तो शायद वह उसके साथ न्याय नहीं कर पाएगा। आदिवासी की वेदना, पीड़ा, दुःख-दर्द को जितना सचोट ढंग से कोई आदिवासी लिख पाएगा उतनी प्रभावपूर्ण रचना गैर-आदिवासी नहीं लिख सकता। कहा भी गया है-

‘जेहि के पाँव न फटी बेवाई, ते का जानै पीर पराई।’

इस जीवन-गाथा पर शानी जी ने क्यों उपन्यास नहीं लिखा और इस पर कौन उपन्यास लिख सकता है इस संदर्भ में शानी जी लिखते हैं कि- ‘‘नागरीय जीवन और संस्कृति में पले-बढ़े किसी भी ईमानदार लेखक की शायद यही कठिनाई होगी। जिस जीवन से आप आन्तरिक या अनुभूति के स्तर पर अपरिचित हैं, उस पर पत्रकारिता भले की जा सके, उपन्यास किस तरह लिखा जा सकता है, यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया। शायद इस वर्ग का सच्चा उपन्यास तभी लिखा जाएगा जब इन्हीं में से कोई लेखक उभरकर आएगा और अपनी तथा अपने वर्ग की प्रामाणिक अनुभूतियों को आकार दे सकेगा।’’4 शायद यही कारण है कि आज दलित-वर्ग सवर्णों द्वारा लिखे गए  दलित साहित्य को पूर्णतः खारिज कर रहा है, उनके साहित्य को वह सिम्पैथी का साहित्य कहता है। आशय यह है कि सवर्णों को दलितों की वेदना, दुःख-दर्द, शोषण, उन पर गुजरने वाली यातना आदि का अनुभव नहीं है, दलितों के प्रति उनकी सहानुभूति है। इसलिए सवर्णों द्वारा दलितों पर लिखा साहित्य सहानुभूति का साहित्य है। ऐसा दलित-वर्ग मानता है। इसी तरह नारियाँ भी पुरुष द्वारा नारियों की समस्याओं, उनकी अनुभूतियों पर लिखे साहित्य को नकार रही हैं उनका भी यही कहना है कि पुरुष नारी के दर्द का अनुभव ही नहीं कर सकता। इसलिए उसके साहित्य में जो यथार्थानुभूति आनी चाहिए वह नहीं आ सकती। आदिवासी साहित्य को लेकर शानी जी भी संभवतः यही कहना चाहते हैं। दलित और नारी की तरह आदिवासी भले ही सवर्णों द्वारा लिखे आदिवासी साहित्य को अभी पूर्णरूपेण नकार न रहे हों, लेकिन जिस दिन आदिवासियों के बींच से लेखक उभर कर आने लगेंगे उस दिन वे भी सवर्णों के द्वारा लिखे आदिवासी साहित्य को नकार देंगे। जिसका बीजवपन शानी जी ने परोक्ष रूप से ‘शाल वनों का द्वीप’ के ‘दो शब्द’ के अन्तर्गत कर दिया है।

‘शाल वनों का द्वीप’ की कथा तो सिर्फ एक उदाहरण मात्र है। संपूर्ण भारत का आदिवासी समाज इसी वेदना से पीड़ित है। शानी जी कहते हैं कि- ‘‘यह कथा-विवरण ओरछा का है, इसमें घटने वाले लोग ओरछा के हैं। यहाँ निरूपित और संकेतित वेदना, समस्याएँ व विडम्बनाएँ प्रामाणिक रूप से उसी जन-जाति की हैं। लेकिन क्या इन सबकी सीमाबन्दी ओरछा में ही हो जाती है ? क्या इन्हीं स्थितियों अथवा इनसे दस गुना अधिक जटिल परिस्थितियों में सारा अबूझमाड़ नहीं जी रहा है? और क्या यही सब बस्तर या किसी-भी आदिवासी क्षेत्र के जीवन में नहीं घट रहा है ?’’5 आदिवासियों की व्यथा को, उनकी समस्याओं को, शानी, महाश्वेता देवी, विभूतिनारायण मिश्र, वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य, गोपीनाथ महान्ति आदि जैसे साहित्यकारों ने अपने साहित्य के माध्यम से उठाने का प्रयास किया है।

‘शाल वनों का द्वीप’ की कथा का प्रारम्भ एड (एडवर्ड) के द्वारा मध्य प्रदेश के बस्तर के ओरछा गाँव के एक बन्द घर का दरवाजा खोलने से होता है जो कुछ दिनों तक बन्द रहने से ऐसा लगता है जैसे वर्षों से बन्द रहा हो। एक छोटा-सा दो कमरों का घर है जिसमें एडवर्ड, उनकी पत्नी फिलिस और शानी जी रहते हैं। एड की पत्नी अपनी बहन के यहाँ लखनऊ गयी थी और एड तथा शानी अपने काम से कुछ दिन के लिए बाहर गए  थे। फिलिस ने 18-20 मुर्गियाँ पाल रखी थी जिसे चीते ने रात में मार कर खा लिया है। एड बहुत चिंतित हैं, शानी जी लिखते हैं- ‘‘सचमुच, एड तो जैसे भौंचक्का रह गया कि उसकी महीने की मेहनत पर चीते ने अकस्मात पानी फेर दिया। यह शौक खास तौर पर फिलिस का था। उसी ने आग्रह करके दड़बा बनवाया था और एक-एक करके अठारह-बीस मुर्गियों की संख्या कर ली थी। अब भी लखनऊ से हर सप्ताह आने वाले उसके पत्रों में मुर्गियाँ सही-सलामत हैं अथवा नहीं। कौन-सी मुर्गी बड़ी हो गई, किसने अंडे देने शुरू किए और किसने बन्द, आदि।’’ (शाल वनों का द्वीप, पृ. 19) गाँव में चीते का आतंक है, हर रोज रात में उसके आने की खबर मिलती है और कभी बछड़ा, कभी कुत्ता, कभी बच्चा उठा ले जाता है।

ओरछा के पास से एक माड़िन नदी निकली हुई है जो बहुत ही सुन्दर है। उस पहाड़ी इलाके के पथरीली चट्टानों से होकर बहने वाली नदी इन आदिवासियों को जीवनदान देने वाली है। जिस तरह हम गंगा के अनेक रूप देखते हैं उसी तरह इस अबूझमाड़ से होकर निकलने वाली माड़िन नदी के भी अनेक रूप हैं। शानी जी कहते हैं- ‘‘अबूझमाड़ में माड़िन के कई रूप हैं- झारा घाट के पास अथवा छोटे डोंगर के उतार पर, जहाँ के अकेले वन में, ऊँची पराड़ी जैसे माड़िन के जल के घुटनों तक पाँव डुबोए खड़ी है और तीन ओर पथरीले घेरे के कारण उसका झील जैसा जल नीला औऱ पारदर्शी हो गया है। उसके आगे, जहाँ वह अचानक सामने आती हुई मानो रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है और ओरछा गाँव के किनारे-किनारे के रेतीले तटों वाली माड़िन जिसमें टापू की तरह काली काली चट्टाने उभरी हुई हैं- सख्त, खरदरी और सैंकड़ों बरस पुरानी।’’ (शाल वनों का द्वीप, पृ. 21)

बस्तर जिला मध्यप्रदेश के दक्षिण-पूर्व में 15127 वर्गमील के घेरे में बसा है। इसके पश्चिम में महाराष्ट्र, पूर्व में उड़ीसा और दक्षिण में आन्ध्र प्रदेश बसा हुआ है। इसमें 2874 वर्गमील की भूमि खेती करने योग्य है अर्थात् 19 प्रतिशत भूमि पर खेती की जाती है बाकी जमीन में वन, नदी-नाले, पहाड़ियाँ तथा आबादी है। बस्तर जिले में कुल 11 प्रमुख बोलियाँ हैं, जो बोली जाती हैं। यहाँ तकरीबन 39 प्रतिशत लोग ‘गोंडी’ बोली बोलते हैं। इसकी भी तीन शाखाएँ हैं- मुरिया, मैदानी माड़िया और पहाड़ी माड़िया। अबूझमाड़ की जनसंख्या लगभग 70,000 है और इसमें से 10,000 लोग पहाड़ी माड़िया हैं।

अमेरिका से आए हुए एड इनमें घुलमिल गए  हैं। शानी जी लिखते हैं कि ‘‘कहाँ अमेरिका, कहाँ भारत, कहाँ बस्तर और उसमें भी कहाँ अबूझमाड़, मैंने सोचा। एड को देखकर जैसे विश्वास ही नहीं होता कि वह किसी और देश का आदमी हैं। इतने अपरिचित और अजनबी मुल्क में कोई इतनी दूर से आएगा और केवल माड़ियों के जीवन को निकट से देखने के लिए साल-भर ओरछा में रह जाएगा, यह मैं सोच भी नहीं सकता था।’’ (वही, पृ. 22)

भारत के इन आदिवासियों के लिए तो पास का बाजार भी अमेरिका से दूर लगता है। जब एड की जीप ओरछा पहुँची तो लोग इन्हें आश्चर्य से देखने लगे, लोगों के मन में तरह-तरह की शंका-कुशंका, भय लगने लगा, किन्तु धीरे-धीरे ओरछावासी उनके पास आने लगे। एड ने जब अपनी योजना ओरछा वासियों के सामने रखी अर्थात् मैं आप लोगों के जीवन पर शोध करने आया हूँ, कहा तो किसी को विश्वास नहीं हुआ। सभी डरे, सहमें हुए आपस में बात कर रहे थे- ‘‘ये लोग कौन हैं ! कहाँ से आए हैं ? इनका देश कितनी दूर है ? क्या जगदलपुर से भी आगे ? हमारे गाँव में क्यों रहना चाहते हैं ?’’ (वही, पृ. 23)

ओरछा गाँव का सरपंच अमरसिंह, पटेल, केये आदि कुछ प्रमुख लोग एड और शानी के सहायक थे जो उन्हें वहाँ के रीति-रिवाजों से परिचित करा रहे थे। सामान्यतः देखा जाता है कि महिलाएँ महीने में तीन या पाँच दिन घर काम से दूर रखी जाती हैं, अपवित्र मानी जाती हैं। अबूझमाड़ की माड़िया जाति में इस तरह की इससे भी सख्त मान्यता हैं। यहाँ स्त्री के साथ-साथ पति भी अस्पृश्य बना रहता है। एड, पटेल, अमरसिंह, शानी, केये आदि एक साथ बैठे हैं। एड पटेल को बीड़ी पीने को देता है, किन्तु पटेल अपना हाथ खींच लेता है कि कहीं एड को छू न जाए । अमरसिंह ने बताया कि एड को उसे छूना नहीं चाहिए। ‘‘कारण पूछने पर पहिले बताया गया कि वैसा करना ‘पोलो’ है। बाद में पूरे विवरण मालूम हुए। पटेल की पत्नी उन दिनों चौके से ‘बाहर’ थी, इसलिए वह तो अस्पृश्य थी ही, रिवाज के अनुसार पटेल को भी छूना इसीलिए वर्जित माना जा रहा था। प्रायः ऐसे अवसरों पर माड़िया स्त्रियाँ घर-चौके में प्रवेश नहीं करती।’’ (वही, पृ. 27) इतना ही नहीं वे किसी भी धार्मिक कार्य, धार्मिक स्थल पर भी नहीं जा सकती थी। इस तरह की परंपरा गैर-आदिवासियों में भी है, किन्तु इतनी जटिल नहीं है। इसमें सिर्फ स्त्री को ही दूर रखा जाता है, पुरुष को नहीं। अब तो इसमें काफी छूट मिल गई है। उस दौरान स्त्रियाँ मात्र पूजा-पाठ आदि धार्मिक कार्यों से ही दूर रहती हैं, शेष कार्य कर सकती हैं।

आदिवासी पहाड़ी लोग अपने आसपास के जंगलों में, शाल वनों में, जंगलों में आग लगा देते थे और उसके जल जाने के बाद उसे खोद करके खेती लायक बनाते थे। ये लोग कुछ सालों तक वहाँ रहते थे और फिर वहाँ से कहीं दूर चले जाते थे। ये पहाड़ी लोग एक स्थान पर टिक कर नहीं रहते क्योंकि धीरे-धीरे ये पहाड़ियाँ खराब हो जाती हैं, अनुपजाऊ हो जाती हैं। यही बताते हुए पटेल कहता है- ‘‘अमूमन माड़िया परिवार किसी एक गाँव में तीन-चार बरस से ज्यादा टिककर नहीं रहता। उनका सारा जीवन केवल भटकाव में बीतता है। जहाँ पहाड़ी देखी, वन देखा, जला डाला। उसी की तराई में दो-चार झोपड़ियाँ लगा लीं और रहने लगे। साधारणतः एक पेंडा खेत तीन बरसों बाद उपज देना बन्द कर देता है और परिणामस्वरूप वह गाँव उजड़कर किसी और पहाड़ी के नीचे बस जाता है।’’ (वही, पृ. 31-32) आदिवासी लोग जंगल को जलाकर खेती योग्य जमीन तैयार करते हैं और खेती करते हैं। इस तरह की खेती को ‘डाही’ खेती कहते हैं। इस प्रकार की खेती पर सरकार रोक लगाने जा रही है। शाही जी ने पटेल को सुनाते हुए यह सूचना दी। पटेल कहता है कि यहाँ कोई कानून को नहीं मानेगा, वही तो हमारा खाना-पीना है। इससे साफ जाहिर होता है कि जंगल संबंधी यदि कोई कानून बनाया जाता है तो ये आदिवासी उसे मानने को तैयार नहीं है। उदाहरण स्वरूप महाश्वेता देवी का उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ को देखा जा सकता है।

आदिवासी माड़िया समाज की युवती ‘रेको’ जो तीस-बत्तीस साल की है, अभी तक अविवाहित है। अपने युवावस्था के दिनों में वह उदास रहती है जबकि गाँव की अन्य युवतियाँ अपनी उम्र के इस पड़ाव पर खुशी मना रही हैं, नृत्य कर रही हैं, ‘काकसार’ उत्सव की तैयारी में सज-सँवर रही हैं किन्तु रेको में कोई उत्साह नहीं है। पहले वह भी ‘घोटुल’ के नृत्य में हिस्सा लेती थी और ‘काकसार’ के उत्सव को भी मनाती थी किन्तु आज वह गुमसुम रहती है। उसका कारण यह है कि घर की सारी जिम्मेदारी उसके ऊपर है। उसका बाप बूढ़ा है और भाई तपेदिक की बीमारी से जूझ रहा है, वही अकेली है जो घर संभाल रही है। उसके शादी करके जाने का मतलब है कि पिता और भाई की मौत, जो वह देख नहीं सकती।

आदिवासियों की उस बस्ती में एड उनके परिवार में खर्च होने वाले बजट की जाँच करना चाहते है इसलिए एड अमरसिंह, पटेल, केये सभी को बैठा कर उनसे उनकी कुल आय और खर्च के बारे में पूछते हैं। एड ने केये से प्रश्न किया कि साल भर में कुल कितनी आमदनी हो जाती है ? केये पहले तो चौंक जाता है फिर उत्तर देता है- ‘‘क्या आमदनी बताऊँ ? यह घर है और तुम्हारे सामने ये हम लोग बैठे हैं। जिस तरह की जिन्दगी चल रही है देख ही रहे हो। ऐसे में कहाँ की आमदनी और कहाँ का खर्च ?.... रेको की ओर देखकर.... सौ दुर्भाग्यों में एक यह है कि उनके पास अपनी खुद की जमीन या खेत नहीं। जिनके खेत खाली होते हैं, उन्हीं में थोड़ा-बहुत अनाज वे लोग बो लेते हैं, लेकिन वह भी बस नहीं होता। न हल-बक्खर, न बैल, न खेत और न पैसा। यहाँ तक कि अच्छे स्वास्थ्य वाले दो पुरुष हाथ भी नहीं। ऐसे में क्या खेती-किसानी और क्या पैदावर !.... उससे पेट नहीं भरता तो यह बुनने-गाथने का काम करने लगते हैं। बॉस की चटाई, टोकरी, सूप और झाडू आदि जिन्हें समय-समय पर बाजार ले जाकर स्वयं रेको ही बेच लाती है। उससे साल भर में यदि केवल चार-पाँच रूपये ही कठिनाई से आते हों तो क्या आश्चर्य ?’’ (वही, पृ. 38-39)

बक्सर जिले के अबूझमाड़ क्षेत्र में सप्ताह में मात्र एक दिन बाजार लगता है धवड़ई नामक जगह पर, जो ओरछा से लगभग 18-20 मील की दूरी पर है। वहाँ जाने के लिए कोई अकेला नहीं जाता, अपितु गाँव के कई लोग इकट्ठे होकर एक साथ निकलते हैं और वह भी दो-तीन दिन पहले। वे लोग रास्ते में रात रूकते-रूकते जाते हैं। इस प्रकार इतना कष्ट उठाकर वे बाजार पहुँचते हैं, सामान खरीदते हैं और वापस उतना ही आते हैं। यातायात का कोई साधन नहीं पैदल आना-जाना होता है। इसलिए वे नाचते-गाते, हर्षोल्लास के साथ यात्रा करते हैं। आदिवासियों के नृत्यु, उत्सव, प्रेम आदि को देखकर शानी जी अभिभूत होते हैं और लिखते हैं - ‘‘जीवित मृत्यु और कैसी होती है ? उन्हें देखते हुए एकाएक मेरे मन में यही विचार आया- क्या एक जीवन इस तरह भी होता है ? बस्तर के जिन आदिम जातियों में उल्लासमय गीत, उन्मुक्त नृत्य और उमंगपूर्ण जीवन की चर्चा में पन्ने-के-पन्ने रंगे जाते हैं, वे क्या सचमुच यही हैं ? उनके बीच जिस रूमानी जिन्दगी की कल्पना हम लोग दूर से सभ्य नगरों के ड्राइंग रूमों में बैठे करते हैं, उसका वास्तविक स्वरूप क्या यही है। वह सहज स्वाभाविक और अकृत्रिम जीवन जिसके लिए हमारे होठों से कई बार ईर्ष्या भरे वाक्य निकलते हैं ?’’ (वही, पृ. 44)

एडवर्ड आदिवासियों के लिए भगवान समान हो गए हैं क्योंकि वे उन गरीब लोगों को दवा देकर उपचार भी कर रहे हैं। ये आदिवासी जन दवा में कम दुआ अधिक विश्वास करते हैं। देवी-देवता, ओझा आदि के पास पहले जाते हैं और वैसे भी दवा इनकी नसीब में कहाँ ? आदिवासी जातियाँ जंगल में रहती हैं जंगल की तमाम जड़ी-बूटी को पहचानते हैं जिससे जरूरत पड़ने पर अपना उपचार कर लेते हैं। दूसरा उपचार का तरीका है, वन देवी माँ, भूत-प्रेत, चुडैल, डाइन आदि पर ये जातियाँ बहुत विश्वास करती हैं, उन्हें खुश करने के लिए बली भी दी जाती है जिससे वे हमारी रक्षा करती हैं। शिवतोष दास लिखते हैं- ‘‘आदिवासी जन-जातियों को ऐसा विश्वास है कि उन्हें बीमारियाँ दो प्रकार से होती हैं- पहली तो वे बीमारियाँ हैं जो शारीरिक दोष से उत्पन्न होती हैं तथा दूसरी वे बीमारियाँ है जो भूत-प्रेत के कारण पैदा होती हैं। शारीरिक दोष के कारण उत्पन्न होने वाली बीमारियों का तो ये जड़ी-बूटियों से उपचार करते हैं, परन्तु हैजा, प्लेग, बुखार आदि बीमारियों का कारण वे प्रेतात्माओं-चुड़ैल को मानते हैं। इसलिए इसमें वे दवा का प्रयोग नहीं करते, बल्कि ओझा या भगत से इलाज कराते हैं। इसी कारण मृत्यु अधिक होती है।’’6 एड उन आदिमजन का दवा देकर उपचार कर रहे हैं। वहाँ पर जो दवा कराने आए हैं उनकी दशा का वर्णन करते हुए शानी जी लिखते हैं कि ‘‘किसी का शरीर ‘यीज’ से गल रहा था, किसी को ‘हाइड्रोसिल’ ने चलने-फिरने लायक नहीं रखा, किसी का बदन और दूसरे चर्मरोग से चितकबरा हुआ जा रहा था, किसी को साँस लेने में कठिनाई पड़ रही थी और कोई सूखकर हड्डी-पसली ही रह गया था। हर आँख बीमार और हर दृष्टि बुझी हुई...। पर उन्हीं चेहरों में सहसा एक असाधारणा परिवर्तन मैंने तब देखा जब एड उनके पास आकर खड़ा हो गया।’’ (शाल वनों का द्वीप, पृ. 44-45)

आदिवासी मुरिया जाति की एक परम्परा है ‘घोटुल’। यह बस्तर के गाँवों के अविवाहित युवक-युवतियों का एक ऐसा संगठन है जो उनमें शक्ति का संचार करता है, उन्हें सामाजिक जीवन का अर्थ बताता है, उन्हें भविष्य में वैवाहिक जीवन व यौन जीवन जीने की शिक्षा देता है। जिस गाँव में यह ‘घोटुल’ की प्रथा होती है उस गाँव से कुछ दूर छोटी-छोटी, अलग-अलग कुटिया बनाई जाती है। सायंकाल होते ही गाँव के अविवाहित युवक-युवती इकट्ठे होते हैं, नाच-गान करते हैं और वहीं कुटिया में सो जाते हैं। वे जब नृत्य करते हैं तो बाकायदा नौटंकी की कथा की तरह उसमें एक कथा उभरती है। उन गीतों में प्रश्नोत्तरी होती है, उसका अपना अर्थ होता है। वे लोग दो अलग-अलग घेरा बनाकर नृत्य करते हैं। एक घेरे के बीच छोटा-सा लड़का होता है तो दूसरे घेरे के पास एक कुत्ता होता है जो घेरे के साथ-साथ चलता है और मौका देखकर लड़के का शिकार करता है। यह सारी चीजें प्रतीकात्मक होती हैं। इस आधार पर अंत में हार-जीत होती है।

अमरसिंह नारायणपुर तहसील के बिजली गाँव का रहने वाला है। अमरसिंह मुरिया जाति का पढ़ा-लिखा किसान है। किशोरावस्था से ही वह ‘घोटुल’ जाने लगा था, आगे चलकर वह घोटुल का मुखिया भी बन गया। जिसकी आज्ञा का पालन सभी करते है। ‘घोटुल’ का अपना नियम है जिसके अनुसार एक युवक, एक युवती के साथ तीन दिन से अधिक दिन तक साथ नहीं रह सकता। यदि कोई युवक नियम का भंग करता पकड़ा गया तो सजा के तौर पर उसे उस युवती के साथ विवाह करके ‘घोटुल’ छोड़ना पड़ता है। अमरसिंह ने यही अपराध किया था जिसके कारण उसे ‘घोटुल’ छोड़ना पड़ा था। उसे घोटुल छोड़े हुए पाँच साल हो गए , किन्तु सरपंच तो वह आज भी बना हुआ है।

आदिवासियों में ही नहीं गैरआदिवासियों में भी दवा से पहले दुआ की ओर लोग भागते थे और आज भी मैंने बड़े-डॉक्टर को यह कहते हुए सुना है कि मैंने अपना काम कर दिया अब ऊपर वाले से दुआ करो। किन्तु ये ओरछा के आदिवासी है इनका तो देवी-देवता पर पूर्ण  विश्वास है। इन आदिवासी जन-जातियों के देवी-देवता भी प्रकृति के संबंधित होते हैं। जैसाकि डॉ. आनन्द प्रकाश गुप्ता ने लिखा है कि ‘‘जन जातियों में यह धारणा प्रचलित है कि पुराने वृक्ष् में देवी देवताओं का निवास स्थान होता है। अतः विभिन्न जनजातियाँ जैसे गोंड़, बैगा, पनिया, कोरबा, कोल, किरात, खोंड, भील, रारेल, कोरकू, शवर, मुरिया, मुंडा, अगरिया, खेरवार, असुर, उरॉव, खड़िया इत्यादि वन्य जातियों के बीच आज भी विविध प्रकार के वृक्षों जैसे- करमा, बरगद, पीपल, आम, महुआ, ढाक, बेल, तुलसी, शीशम, ताड़, खजूर, कटहल, ऑवला आदि वृक्षों के पूजन-अर्चन की परम्परा चिरकाल से लेकर अब तक अपने अक्षुण्ण रूप में विद्यमान है।’’7 आदिवासियों के गाँव ओरछा में एक बार शीतला माता का प्रकोप हुआ जिसके कारण एक चौथाई गाँव का सफाया हो गया। जिसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी इस प्रकोप के शिकार हुए। तो सारा गाँव इस दुख से निजात पाने के लिए ‘देवान’ की शरण में गया। इस दुःख के निवारण हेतु ‘पेन-लस्किताल’ नाम के एक समारोह का आयोजन किया गया। इस समारोह में बताया गया कि जब तक सब ठीक नहीं हो जाता तब तक सभी गाँव वाले माँस भक्षण नहीं करेंगे। देवी जी के शांत होने पर दूसरा समारोह किया गया जिसमें यह बताया गया कि सभी गाँव वाले मिलकर ‘माता-बिदा’ का आयोजन करके उन्हें बिदा करें। इस हेतु के लिए जिस ‘लस्के’ (ओझा) को बुलाया गया था उस पर दाई माता सवार हुई और जिन-जिन के यहाँ माता का प्रकोप हुआ था उनको माता बुलाती है तथा निजात के लिए बलिदान स्वरूप एक रूपया, एक मुर्गी, एक बकरा तथा एक सूअर देने की बात करती हैं। शानी जी लिखते हैं कि ‘‘बलिदान का यह सिलसिला लगभग घंटे भर तक चलता रहा और कुल मिलाकर पन्द्रह सूअर, दस बकरे, दर्जनों मुर्गियों, बीसियों अंडे, नारियल तथा ढेर-सी शराब भेंट-स्वरूप चढ़ाई गई।’’ (शाल वनों का द्वीप, पृ. 61)

आदिवासियों में मनोरंजन के लिए साल में एक बार ‘काकसार’ आता है। इसे शृंगार-पर्व कहते हैं, उत्सव कह सकते हैं, जिसमें युगल जोड़े अपनी मस्ती में नाचते-झूमते हैं। नवयुवकों को इस पर्व का बेसब्री से इन्तजार रहता है। लाली ‘काकसार’ के लिए कई दिनों से तैयारी कर रहा है, किन्तु उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। इसलिए वह तैयारी तो करता है लेकिन काकसार के मेले में नृत्यु नहीं कर सकता। उधर ‘रेको’ है जो गरीबी के साथ-साथ पिता, भाई के दुख के कारण उसे अपना सुख दिखाई नहीं देता। काकसार पर्व की तैयारी में अनेकों युवक-युवतियों सज-धजकर, शराब के नशे में धुत होकर नृत्यु कर रहे हैं। लाली नृत्यु के पोशाक पहने चुपचाप मौन होकर खड़ा है, सबको नृत्य करते हुए देखता है और फिर अपनी असहाय शरीर की ओर देखता है। रेको भी अंधेरे कोने में आँखें बन्द किए, हाथों से कान बन्द किए पड़ी है, जिससे काकसार का कोलाहल उसके कानों तक न पहुँचे। यह पर्व प्रेमियों के लिए अधिक कष्टप्रद होता है। शायंकाल होते ही युवक-युवतियों की तैयारी शुरू होती है, सजने-सँवरने में सभी एक-दूसरे की सहायता भी करते हैं। इसमें पुरुष वर्ग अर्थात् नर्तक अधिक सजता है, गले में माला, सिर पर मोर पंख, पैर में घुंघरू आदि पहनते है जिससे नृत्य करते समय सुन्दर आवाज सुनाई दे। ‘‘काकसार की सबसे बड़ी विशेषता तथा विचित्रता यही है कि वहाँ आकर्षण का केन्द्र युवक होता है, युवती नहीं। नृत्य के दौरान प्रत्येक नर्तक इसी बात पर प्रयत्नशील रहता है कि ज्यादा-से-ज्यादा आकर्षक वही दिखे ताकि युवती ही आकर्षित होकर पास चली आए, नाच के लिए उसके संग की कामना करे।’’ (वही, पृ. 74)

काकसार पर्व में प्रेमी-प्रेमिका का मिलन होता है। जैसाकि शानी जी लिखते है कि ‘‘जैसे ऋतुओं में वसन्त कईयों के घाव करता है, लाली, रेको जैसे लोगों को अधमरा करने के लिए वैसे ही अबूझमाड़ में काकसार आता है- शृंगार-पर्व काकसार, जिसकी प्रतीक्षा वर्ष भर की जाती है। ऐसा पर्व जिसमें प्रेमी तथा प्रेमिकाओं का उन्मुक्त मिलन होता है। इस अवसर पर कई अपरिचित तथा अजनबी युवक-युवती निकट आकर एक-दूसरे को पसन्द करते हैं और उनके बीच भविष्य में सुदृढ़ होने वाले प्रेम की नींव पड़ती है। यहीं पर अधिकांश विवाहों की भूमिका बनती है लगभग नब्बे फीसदी दाम्पत्य जीवन का सूत्रपात भी यहीं से होता है।’’ (वही, पृ. 70) काकसार के नृत्योत्सव की समाप्ति के पश्चात कभी-कभी तो युवक युवती को सीधे अपने घर ले जाता है। वहाँ पर वह ‘एक-देसीना’ ब्याह कर लेता है। ‘एक-देसीना’ ब्याह में युवक-युवती दोनों छप्पर के नीचे खड़े होते हैं और उनके सिर पर ऊपर से पानी डाल कर उन्हें परिवार में पति-पत्नी के रूप में स्वीकार लिया जाता है।

गैर-आदिवासियों में गोत्र को लेकर जो विभाजन व मान्यताएँ देखने को मिलती हैं उसी तरह आदिवासियों में भी उनके गोत्र है, उनकी अपनी मान्यताएँ हैं जिसका वे लोग पालन करते हैं। पहाड़ी माड़िया नाम की एक जाति अबूझमाड़ में रहती है, जो अनेकों गोत्रों व वंशों में बटी है। इन्हें ‘क्लेन’ तथा ‘सिब’ कहते हैं। गोत्र रिश्तेदारी की एक इकाई होता है। माड़िया समाज में गोत्रों की बड़ी मान्यता है। इस समाज का व्यक्ति अपने ही गोत्र में शादी-ब्याह कभी नहीं करता। एक गोत्र के लोगों का एक देवता होता है, सभी उसकी पूजा करते हैं। वही उनकी एकता का प्रतीक भी है। ओरछा में ‘उसेन्डी’ नाम का एक माड़िया गोत्र है, इनका गोत्र देवता है ‘देवान’ और इनका मंदिर गाँव के बाहर जंगल में है। इससे स्पष्ट है कि गोत्र देवता, ग्राम-देवता नहीं हैं। गोत्र-देवता और ग्राम-देवता में अन्तर है। गोत्र देवता का मंदिर गाँव से दूर जंगल में इसलिए बनाया जाता कि जिससे उस गोत्र के अलग-अलग गाँवों में रहने वाले वहाँ पर आकर पूजा-अर्चना कर सकें। ग्राम-देवता गाँव के पास होते हैं जिनकी पूजा सिर्फ उसी गाँव के लोग करते हैं। जो लोग एक गोत्र से जुड़े होते हैं, उन्हें ‘दादा-भाई-गोत्र’ कहा जाता है और जो दूसरे गोत्र के होते हैं जिनका ‘उसेन्डी दादा-भाई-गोत्र’ से संबंध नहीं होता उन्हें ‘आकोमामा’ कहते हैं। ‘आको’ अर्थात् ‘नाना’ और ‘मामा’ अर्थात् ‘माँ’ का भाई। ‘एक व्यक्ति न केवल अपने गोत्र की किसी लड़की से ब्याह नहीं कर सकता वरन उसका ब्याह उन समस्त लड़कियों से भी वर्जनीय माना जाता है जो उसके गोत्र के दादा भाई गोत्र हैं। अवश्य उसका ब्याह केवल आको-मामा-गोत्र की किसी लड़की से हो सकता है। इस तरह उसेन्डी, गुता, बड्डे, कोरे, इरकिटी, कोये तथा नाचोर गोत्रों के सदस्य एक दूसरे के दादा भाई हैं और उनमें ब्याह वर्जनीय है जबकि वे पटावी, द्रुवा, कोला, हाकर, बड़्डी, करमे, गचा, बरपा, नोनेर तथा नीरा गोत्रों में किसी से भी ब्याह कर सकते हैं।’’ (वही, पृ. 71) एक गोत्र में शादी, ब्याह न करने की मान्यता तो सर्वत्र वर्जनीय मानी गयी है। गैर-आदिवासी समाज में भी एक ही गोत्र में विवाह न करने की मान्यता है। आदिवासियों के गोत्र के संदर्भ में डॉ. रूपांशुमाला ने लिखा है कि ‘‘आदिवासियों में भी गोत्र का प्रचलन है। इस पर विशेष ध्यान दिया जाता है क्योंकि आदिवासी सगोत्री विवाह नहीं करते। इसके लिए ‘टोटम’ जैसा शब्द प्रचलित है, जिसका स्पष्ट अर्थ गोत्र चिह्न है। गोत्र की परम्परा के लिए एक लोककथा प्रचलित है। कहा जाता है कि किसी आदिवासी की रक्षा सर्प-आक्रमण से मयूर ने की थी। अतः संबंधित आदिवासी समूह का गोत्र चिह्न मयूर (मोर) माना गया। इसी प्रकार, एक समय एक वनवासी का शिशु जंगल में सो रहा था। सूर्य की ऊष्ण किरणें उसके मुख पर पड़ रही थी। सहसा एक मणिधर आया और उसने अपने फन को बच्चे के मुख पर फैलाकर अपनी दया का परिचय दिया। फलतः कुछ आदिवासियों का गोत्र चिह्न सर्प बन गया।’’8 इस प्रकार आदिवासियों के गोत्र को लेकर तरह-तरह धारणाएँ प्रचलित है।

आदिवासियों की दयनीय दशा और उनकी आर्थिक स्थिति का बयान तो वहाँ की महिलाओं का अधखुला शरीर ही कर देता है। जिसे खाने के लिए दो जून का अन्न सही ढंग से मुनासिब नहीं होता उसे पहनने के लिए तन पर कपड़ा कहाँ से नसीब होगा। आदिवसी लड़कियाँ, औरतें जब नदी से पानी का घड़ा सिर पर लेकर आती हैं तो अमरसिंह जैसे लोग उनके अधनंगे शरीर को ताकते हैं। पानी का घड़ा लेकर आनेवाली लड़कियाँ एक-दूसरे के मुँह की ओट में अपने मुँह को छिपाये चलती हैं। जिससे उन्हें कोई पहचान न ले कि जिससे उन्हें झेंपना पड़े, क्योंकि सारा शरीर तो वे वस्त्र के अभाव में ढँक नहीं सकती। इसलिए अपनी पहचान ढँकने का प्रयास करती है। ऐसी ही एक घटना का स्मरण शानी जी को हुआ जब दिन के प्रकाश में एक माड़िन को नदी की ओर सिर पर पानी का घड़ा रखे जाते हुए देखा था। उसके सिर से नाभि तक वस्त्र नहीं था और नीचे एक चौथाई हिस्सा छोड़कर टाँगों से पैर तक खुला था। उस जंगल की राह पर अर्द्धनग्न शरीर वाली सिर पर घड़े को संभालने हेतु उठी उनकी बाहों के कारण उसका खुला बदन स्पष्ट रूप से झलक रहा था। ऐसे इन आदिवासियों की जिन्हें सभ्य लोगों की आँखें नजरंदाज कर देती हैं। शानी जी लिखते हैं कि ‘‘मैं सभ्य नगरों से आया हूँ धीरे से सिहरकर मैंने सोचा था- और ये ओरछा के आरम्भिक दिन हैं। वह देश है अबूझमाड़, जहाँ के ऐसे हर चलते-फिरते शरीर सभ्य आँखों में चुभ जाते हैं।’’ (शाल वनों का द्वीप, पृ. 87) कोसी की सहेली उसे अपने साथ चलने को कहती है किन्तु उसके आनाकानी करने पर दोनों में खींचातानी होती है ऐसे में कोसी के शरीर से उसका वस्त्र सरक जाता है। तब शानी जी लिखते है कि ‘‘मुझे लगा मानो अबूझमाड़ के ओरछा में न होकर मैं अजन्ता की किसी रोशन-दराज़ गुफा में बैठा हूँ और सामने की कोई निर्जीव तस्वीर एकाएक बोल उठी हो। जैसे शायद कोसी ही अपने आँचल में अब तक अजन्ता की जीवित चित्रकला छिपाए बैठी थी और किसी ने झपट्टा मारकर उसे उघाड़ दिया हो- वही माँसल यौवन, शरीर का बिल्कुल वही कटाव, माँस का उतना ही उतार-चढ़ाव और वही गोलाइयाँ जिनकी मासूम हरकतों पर अंगीठी का साया धीरे-धीरे कँपकँपा रहा था।’’ (वही, पृ. 89)

माड़िया जाति की महिलाओं के लिए अर्द्धनग्न शरीर में रहना आम बात थी, इसीलिए कोसी ने जब शानी की ओर देखा तो लज्जित होने के बजाय हँस देती है। ठंड बढ़ी थी, कोसी अंगोठी के सामने बैठी थी, मानो अंगीठी भी काम नहीं कर रही थी। ‘‘पन्द्रह मिनट पहिले कॉटेज की राह आकर मैंने सोचा- जब अँगीठी के पास कोसी बैठी थी, उस समय अगर अमरसिंह यही प्रस्ताव रखता तो ? ‘यू नीड ए गर्ल फ्रेंड, शानी।’ मुझे सहसा एड का मज़ाक याद आ गया। धीरे-से मुस्कराते हुए मैंने सोचा-अच्छा हुआ कि यहाँ इतना अँधेरा है और हम लोग एक-दूसरे का चेहरा नहीं देख पा रहे हैं।’’ (वही, पृ. 90)

गैर-आदिवासियों में ‘घरजमाई’ बनने की परंपरा देखने को मिलती है। ‘घरजमाई’ (घर-जामाता) बनने के पीछे के कारण जो भी हो, किन्तु यह परंपरा आज भी चल रही है। यह परंपरा आदिवासियों में भी थी जिसे वे ‘लमहाडे’ कहते हैं। अबूझमाड़ की यह प्रथा प्रख्यात है, इसमें लड़का लड़की के माँ-बाप के यहाँ जाकर रहता है। लड़की को पत्नी के रूप में पाने के लिए लड़की का पिता लड़के के सामने एक शर्त रखता है। वह शर्त यह है कि लड़का तीन, पाँच, व सात साल तक कड़ी मेहनत करके लड़की के माँ-बाप को खुश कर देगा और जब लड़की के माँ-बाप लड़के की मेहनत से खुश हो जाएँगे तो लड़की का हाथ पत्नी के रूप में लड़के के हाथ में दे देंगे, यदि वे खुश नहीं हुए तो नहीं देंगे। इन तीन, पाँच, सात सालों के बीच लड़का लड़की से एक ही घर में रहने के बावजूद न तो मिल सकता है, न कोई बातें कर सकता है। इसके लिए बड़ा कड़ा प्रतिबंध होता है। शानी ने ‘गूमा’ नामक एक व्यक्ति के बारे में बताया है कि ‘गूमा’ बहुत ही शांत स्वभाव का भोला-भाला आदमी है। वह कथावाचक भी है। उसके पास कहानियों का भण्डार है, वह कहानी सुनाने बैठे तो रात भले बीत जाए लेकिन उसकी कहानियाँ खत्म नहीं होती। ‘गूमा’ की उम्र तो चालीस-पचास के आस-पास की है, किन्तु उसका व्यक्तित्व आकर्षक है। वह अकेला रहता है, बहुत गरीब है। शानी जी लिखते हैं कि ‘‘अबूझमाड़ के चहुँ ओर व्यापे दरिद्र जीवन में सबसे विपन्न आदमी वह होता है जिसके अपने खेतों के अलावा अपने रक्त के सम्बन्धी नहीं होते। गूमा, उन्हीं अभागों में से एक था जिसके माता-पिता बचपन से जाते रहे और दूर-दराज के सम्बन्धियों के बीच जैसे-तैसे करके वह पला और एक दिन जवान भी हो गया। जिसके पास अपनी सम्पति जैसी कोई चीज ही नहीं थी और जिसका गुजारा कठिनाई से होता है। उसके बाकायदा ब्याह की बात सपना नहीं तो और क्या थी ?’’ (वही, पृ. 96)

आदिवासियों में व्याह के लिए लड़का तीस-पैंतीस साल का होना चाहिए। जिससे वह अपने घर की जिम्मेदारी पूरी तरह से निभा सके। लड़का ताकतवर भी हो जिससे कोई भी काम करना पड़े तो पीछे न हटे। इन आदिवासियों में यदि कमाने वाला आदमी नहीं है तो उसका विवाह नहीं होता। इस संदर्भ में डॉ. भीमराव पिंगले ने लिखा है कि ‘‘आदिवासी समाज में प्रौढ़ तथा कमाने वाला होने के बाद ही उसका ब्याह होता है। कमाई न हो तो उसका ब्याह नहीं होता। विवाह होने के बाद अपने शरीर के बल पर वह सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। उसको सामाजिक सदस्यता भी देना चाहता है कि मैं अपनी कमाही से घर चला सकता हूँ। संभवतः इसी बात को ओरछा समाज में एक नियम ‘लमहाड़े खटना’ बना दिया गया है जिसे ‘गूमा’ पूरा करने जा रहा है। ‘गूमा’ कुरमेर गाँव की एक लड़की ‘हिरमे’ के लिए ‘लमहाड़े’ खटने लगा। गूमा के जी-तोड़ मेहनत करने के बावजूद भी लड़की के माँ-बाप प्रसन्न होने के बजाय नाराज ही रहते थे। उसके साथ नौकरों जैसा व्यवहार करते, बात-बात पर उसे अपमानित करते रहते थे। किन्तु हिरमे को एक नजर देखते ही उसके दुःख दूर हो जाते। गूमा इतना अपमानित किया जाता था कि कभी-कभी उसे लगता कि जैसे उसने एक लड़की के लिए अपने पुरुषार्थ को बेच दिया हो। हिरमे गूमा पर हो रहे अत्याचार को सहन नहीं कर पा रही थी, इसलिए वह चोरी से कभी-कभी गूमा से मिलने आती रहती थी। उसने ही गूमा को बताया कि माँ ही इस विवाह के लिए राजी नहीं हैं इसीलिए वे तुम्हें सता रही हैं। गूमा और हिरमे एक रात को घर छोड़कर भाग जाते हैं और फिर लौटकर नहीं आते।’’

अबूझमाड़ के लोगों के लिए सप्ताह में एक दिन लगने वाली एक बाजार थी धवड़ई में। गाँव में डाक की कोई सुविधा नहीं थी। गाँव के लोगों की यदि कोई डाक आती तो वह बाजार के कुछ परिचित व्यापारियों की दुकानों में रख दी जाती थी। जब गाँव के लोग बाजार जाते तो उनके द्वारा गाँव की चिट्ठियाँ आया करती थी। एडवर्ड और शानी की डाक धवड़ई बाजार के मूसा सेठ के यहाँ रखी रहती थी। धवड़ई बाजार जाने के लिए एक-दो दिन पहले निकलना पड़ता था तब जाकर लोग बाजार के समय पर पहुँच पाते थे। जैसाकि शानी जी ने लिखा है ‘‘धवड़ई में सारे अबूझमाड़ के लिए केवल एक बाजार लगता है- हफ्ते में एक दिन का। लोग दूर-दूर से खिचे आते हैं। अबूझमाड़ के भीतरी गाँव वाले लोग शुक्रवार के बाजार के लिए मंगल या बुधवार को गाँव छोड़ते हैं, तब कहीं बाजार समय में धवड़ई पहुँचना होता है। जब हम लोग धवड़ई की राह पर थे तो हर फलाँगक दो फलाँग के फासले पर ऐसे कई समूह बाजार की ओर बढ़ते हुए मिले थे। एक दो नालों के किनारे डले हुए पड़ाव अलग दिखे थे जिनके चिह्न स्वरूप पड़े के चूल्हे में बुझे हुए कोयले और जली हुई लकड़ियाँ रह गई थीं।’’ (शाल वनों का द्वीप, पृ. 102)

धवड़ई बाजार में मनोरंजन के साधन भी हुआ करते थे। बाजार से अलग हटकर गोल घेरा बनाकर लोग बिना किसी भेदभाव के खड़े हो जाते थे और तमाशबीन अपने-अपने करतब दिखलाकर लोगों का मनोरंजन किया करते थे। वहाँ पर मुर्गों को भी लड़ाया जाता था। मुर्गों को लड़ाने से पहले उनके एक पैर में एक छोटी-सी चाकू बाँध दी जाती थी, जब वे लड़ते थे तो वह चाकू उछल-उछल कर एक-दूसरे को लगती थी जिससे मुर्गे खून से लथपथ हो जाते थे और लोग आनंदित होकर तालियाँ बजाते थे।

आदिवासी पहाड़ी इलाके में, जहाँ आसपास पहाड़, जंगल, नदी हो वहाँ बाघ, चीता आदि जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है। गाँव की दो युवतियाँ माड़िन नदी की ओर से बेतहासा भागती चली आ रही थी। वे भागते-भागते जिस तरह से गिरते-पड़ते गाँव तक पहुँची उसका बयान उनका अधखुला शरीर कर रहा था। उनके शरीर पर जगह-जगह काँटे चुभे थे, खरोचें आई थी। वे बेहद धबड़ाई हुई थी जिसके कारण उनके मुख से आवाज नहीं निकल रही थी। थोड़ी साँस लेने के बाद उन्होंने बताया कि कोसी को बाघ ले गया। ‘‘तीनों युवतियाँ अलग-अलग फैलकर निश्चित पत्ते तोड़ने में लगी है। पीछे झाड़ियों से अचानक बाघ निकल आता है- कोसी के बहुत पास। किसी एक लड़की की निगाह पड़ते ही वह चिल्लाती है। चौंककर दूसरी लड़की भी देखती है। सब कुछ वहीं छोड़कर बेतहाशा चिल्लाती हुई वे दोनों भागती हैं। एक क्षण के लिए हक्का-बक्का होकर कोसी स्तम्भित रह जाती है, फिर चीख मारकर भागने का प्रयास करती है, लेकिन उससे हजार गुना फुर्ती से बाघ उछाल मारता है और दूसरे क्षण कोसी का कोमल शरीर बाघ के खूँखार पंजों में आ जाता है। एक हृदयविदारक चीत्कार और बस....।’’ (वही, पृ. 117)

अबूझमाड़ गाँव के लोग कोसी को ढूँढ़ने  के लिए निकल पड़ते हैं। एडवर्ड अपनी रायफल लेता है और लोग ढोल, खाली पीपे, बरतन बजाते हुए, जोर-जोर से आवाज करते हुए कोसी को ढूँढ़ रहे थे। अंत में कोसी के कुछ चिह्न जैसे टूटी चिडियाँ, खून के निशान, फटे कपड़े आदि मिले, जो यह प्रामाणित कर रहे थे कि कोसी को बाघ ने खा लिया है।

अबूझमाड़ गाँव के लोगों पर संकट के बादल छा गए  हैं क्योंकि दिन दहाड़े बाघ हमला कर रहा है। अब सारे गाँव के लोग घबड़ा कर ‘देवान’ अर्थात् अपने देवता को बड़ी श्रद्धा से याद करने लगे। यह उनका आपत्तिकालीन ‘पेन-लस्किताल’ था। सभी लोग बड़ी विनम्रता के साथ ‘देवान’ की प्रार्थना करने लगे। ‘‘हे देवाधिदेव, जंगल ही हमारा जीवन है। तेरे ही आसरे पर हम लोग अकेले-दुकेले, दूर-दूर तक निकल जाते हैं पर कभी कुछ नहीं होता। तेरे सम्मान में हम लोग किसी प्रकार की कोई कमी नहीं करते। लेकिन इसके बावजूद यदि तू रूष्ट है तो जरूर कोई कारण होना चाहिए। हम अभागों से ऐसी क्या भूल हो गई कि दिन दहाड़े गाँव में आदमखोर बाघ घुस आया है ?’’ (वही, पृ. 121) गाँव के नियम के अनुसार ‘देवान’ को खुश करने के लिए भेंट आदि चढ़ाकर तमाम उपाय किए गए ।

एडवर्ड के जाने का समय आ गया है। एड की पत्नी फिलिस गाँव वालों से बड़े प्यार से मिल रही हैं। सारे गाँव वालों का प्यार उन्हें मिल रहा है। उन्हें देखकर लगा कि फिलिस शरीर से तो अमरीकी हैं किन्तु मन से भारतीय और वह भी ओरछा गाँव की हैं। शानी जी कहते हैं कि जब मैंने एडवर्ड को गोंड़ी बोली बोलते सुना तो मुझे आश्चर्य हुआ। ‘‘माडियों की अपनी बोली गोंड़ी मैं कभी सीख नहीं पाया। या तो मुझे वैसे अवसर नहीं मिले या मैंने कोशिश नहीं की। दोनों ही स्थितियों में दोष मेरा है और यह कुंठा मन पर बराबर बनी रही है। यह बढ़कर मुझे तब कचोटने लगी जब एड या फिलिस को गोंड़ी बोलते सुना। पहिले कितना अजीब लगा था ! ऐसे विदेशियों के मुँह से गोंड़ी, जो हिन्दी न बोल पाते हैं, न समझ पाते हों, कितनी प्यारी लगती थी !’’ (वही, पृ. 123) एडवर्ड और फिलिस दो साल बाद अपने घर जाने की तैयारी कर रहे हैं। शानी जी को चमरू की शादी की बात याद आती है। चमरू की पत्नी मंदार आडेर गाँव की है। वे दोनों एक ‘काक्षार’ में मिले थे और चमरू उसे अपने घर लाया था। दूसरे दिन प्रातः काल एक ‘एग दो सीना’ रस्म संपन्न की गई। इस रस्म में वर-बधू को खपरैल के नीचे खड़ा करके सिर पर तीन बार पानी डाला जाता है। दूसरे दिन लड़की विदा कर दी जाती है और फिर कुछ दिन बाद ‘मोलाहिना’ अर्थात् ‘बधू की कीमत’ तय की जाती है। चमरू की बधू की कीमत भी तय की गई- ‘‘नकद तीस रूपये, एक हॉड़ी शराब और एक सूअर का चढ़ावा लेकर चमरू के पिता लड़की के गाँव आए जिसके बिना बधू का आना असम्भव था।’’ (वही, पृ. 129)

शानी का ओरछा गाँव का अंतिम दिन सभी बड़ी आत्मीयता से मिल रहे हैं फिर आना की औपचारिकता का निर्वाह कर रहे हैं। शानी के मन में आया कि एडवर्ड इतनी दूर हैं कि एक बार जाने के बाद फिर आना इनके लिए संभव नहीं होगा, किन्तु उन्होंने कुछ नहीं कहा। एड कुछ बातें कर रहे थे कि मासा ने पूछा कि आपका घर कितनी दूर है, तो उन्होंने कहा बहुत दूर। इससे आगे उन लोगों को बता पाना मुश्किल था जिन्होंने अपने यहाँ की ही बाहरी दुनिया न देखी हो उन्हें अमेरिका के बारे में कैसे समझाया जाए ? मासा के पास खड़े लड़के आश्चर्य से पूछते हैं कि ‘जगदलपुर’ से भी दूर है। इन आदिवासियों के लिए यह जगदलपुर अमेरिका से भी कहीं दूर है, क्योंकि ये आदिवासी इन पहाड़ों, जंगलों, कंदराओं तथा शाल वनों की दुनिया से बाहर निकल ही नहीं पाए हैं।

एडवर्ड ने गाड़ी स्टार्ट की और चल पड़े। शानी लिखते हैं कि- ‘‘अठारह महीनों की परिचित राह, जानी-पहिचानी पगडंडियों, उन पर एक सिरे से खड़ी ऊँची और सफेद कलगी वाली घास तथा सैकड़ों बरस पुराने शाल वानों की अगली कतार-सब तेजी से पीछे छूटने लगे। यहाँ तक कि उन वनों का शोर भी हम पीछे छोड़ आए। लेकिन अजीब बात है कि जो शालवन पीछे छूटे जा रहे थे, तीर की तरह वही सब सामने भी आते जा रहे थे।’’ (वही, पृ. 139) शानी जी भले ही ओरछा गाँव को छोड़कर जा रहे हैं, उन शाल वनों के जंगलों को, ओरछा से गुजरने वाली नदी को या फिर वहाँ के लोगों को छोड़कर उनसे दूर जा रहे हैं किन्तु उन सबकी यादें, उनके साथ गुजारे एक-एक पल उनके हृदय में अंकित हो चुके हैं। शानी के हृदय से वे मधुर स्मृतियाँ कभी विस्मृत नहीं हो सकती। वैसे भी कहा जाता है कि जिससे आप जितने दूर जाते हो वह उतना ही अधिक याद आता है। शानी संवेदनशील व्यक्ति है अतएव उन आदिवासियों की संवेदनाओं को वे अपने हृदय से कभी दूर नहीं कर पाये। अस्तु।

सन्दर्भः-

1.       शाल वनों का द्वीप, शानी, भूमिका-एडवर्ड, पृ. 5, विद्या प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 1978

2.       शाल वनों का द्वीप, शानी, दो शब्द, पृ. 10 वही

3.       शाल वनों का द्वीप, शानी, भूमिका-एडवर्ड, पृ. 9, विद्या प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 1978

4.       शाल वनों का द्वीप, शानी, दो शब्द, पृ. 11, वही

5.       शाल वनों का द्वीप, शानी, दो शब्द, पृ. 11, वही,

6.       विश्व की आदिवासी जन-जातियाँ, शिवतोष दास, रामप्रसाद एण्ड संस, आगरा-3, संस्करण – 1965, पृ. 68

7.       भारतीय आदिवासियों की सांस्कृतिक आस्थाः प्रकृतिपूजा और पर्व त्यौहार, (आलेख) – डॉ. आनन्द प्रकाश गुप्ता। भारतीय आदिवासियों की सांस्कृतिक, प्रकृति-पूजा और पर्व-त्यौहार-सं. डॉ. लक्ष्मण प्रसाद सिन्हा, पृ. 162, जयभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्र.सं. 2009

8.       आदिवासियों की सामाजिक संरचना- डॉ. रूपांशुमाला, (आलेख), भारतीय आदिवासियों की सांस्कृतिक, प्रकृति-पूजा और पर्व-त्यौहार-सं.डॉ. लक्ष्मण प्रसाद सिन्हा, पृ. 93, जयभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्र.सं. 2009

9.       आदिवासी एवं उपेक्षित जन-ले. डॉ. भीमराव पिंगले, अनुवाद-प्रा. ए.एच. जमादार, पृ. 114 विकास प्रकाशन, कानपुर, प्र.सं. 1996

 



डॉ. माया प्रकाश पाण्डेय

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर

हिन्दी विभाग, कला संकाय,

महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय

बड़ौदा (गुजरात)

 

13 टिप्‍पणियां:

  1. अत्यंत रोचक एवं ज्ञानवर्धक आलेख।

    जवाब देंहटाएं
  2. अद्भुत जानकारी , विशिष्ट समीक्षा - बधाई।
    वाकई छत्तीसगढ़ को पढ़ने और रचने की अभी बहुत आवश्यकता है।

    जवाब देंहटाएं
  3. आदिवासियों पर काफी ज्ञानवर्धक शोध आलेख है। काफी रोचक जानकारियां जानने को मिली। लेखक को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  4. आदिवासियों पर काफी ज्ञानवर्धक शोध आलेख है। काफी रोचक जानकारियां जानने को मिली। लेखक को बधाई।

    शीला पांडेय, प्रिंसिपल, श्री लधाराम स्कूल, बड़ौदा

    जवाब देंहटाएं
  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

      हटाएं
  6. आदिवासियों का संवेदनशील दस्तावेज' जैसा आलेख का शीर्षक, वैसा ही संवेदनशील दस्तावेज है। आलेख आदिवासियों के जीवन की वास्तविकता से परिचित कराता है।
    शानदार, गुणवत्तापूर्ण और प्रभावशाली पाठ्य-सामग्री!
    बहुत-बहुत धन्यवाद सर 🙏🏻

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत संवेदनशील और ज्ञानवर्धक आलेख। इस आलेख को पढ़ने के बाद आदिवासियों के जीवन के अनछुए पहलुओं को जानने और समझने का मौका मिला। सर को हृदय से धन्यवाद 🙏🏻

    जवाब देंहटाएं
  8. आदिवासियों के जीवन के पलौं से अवगत कराता हुआ अत्यंत सूचनापद एवं दिलचस्प आलेख। लेखक को खूब बधाई एवं धन्यवाद। 🙏

    जवाब देंहटाएं
  9. आदिवासियों के जीवन के पलौं से अवगत कराता हुआ अत्यंत सूचनापद एवं दिलचस्प आलेख। लेखक को खूब बधाई एवं धन्यवाद। 🙏

    जवाब देंहटाएं
  10. आदिवासी समाज के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला,
    सचमुच मे काफ़ी ज्ञानवर्धक एवम् रोचक जानकारियां से भरपूर है।
    सर को ढेर सारी शुभकामनाएं
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  11. सर, सादर चरण स्पर्श प्रणाम। सर आपका लेख पढ़ा- आदिवासियों का संवेदनशील दस्तावेज़ : शाल वनों का द्वीप, बहुत समय लगा क्योंकि आपने इतना विस्तृत और व्यापक लिखा है, बहुत ज्यादा जानकारी मिली और आपने लेखक के दृष्टिकोण को भी इतने अच्छे से प्रस्तुत किया है, मानो कोई चलचित्र चल रहा हो आंखों के सामने बहुत अच्छा आलेख सादर प्रणाम सर ����

    जवाब देंहटाएं
  12. नमस्कार सर, आपका लेख पढ़ा। महत्वपूर्ण एवं विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई। ज्ञानवर्धक एवं प्रेरणादायक लेख। आदिवासियों की वास्तविक स्थिति से परिचित कराया गया। आपको सादर प्रणाम।🙏🙏🙏

    जवाब देंहटाएं