ऋतु
बसंत
आई
ऋतु बसंत आई बहार छाई,
लाई
ऋतु बसंत पुहुप शृंगार लाई।
पवन
हिंडोले सँग फुलवारी
डारी-डारी
झूमत मतवारी
छवि
छटा सुशोभित क्यारी
भरी
सुगंधित न्यारी-न्यारी
अचला
मन भव तृप्त-तृप्त।
आई
ऋतु बसंतआई बहार छाई,
लाई
ऋतु बसंत पुहुप शृंगार लाई।
कारी
कोयल करत किलोल
गावत
निरत करत मोर-सोर
उन्माद
उमंग चहुँ और छोर
आनंद
उपवन भव ठौर-ठौर
फूले
आम्र कुंज अपार अनंत।
आई
ऋतु बसंत आई बहार छाई,
लाई
ऋतु बसंत पुहुप शृंगार लाई।
बोल
सुरीले घोले बांसुरिया
हुई
भ्रमित पनिहारी डंगरीया
रूनक-झूनक
बाजे पैंजनिया
याद
पिया की लाई बावरिया
थिरक-थिरके
तन मन झंकृत।
आई
ऋतु बसंत आई बहार छाई,
लाई
ऋतु बसंत पुहुप शृंगार लाई।
कवि, पुरूषोत्तम कडेल
अत्तापूर
राम बाग, हैदराबाद 48
तेलंगाना
कवि, पुरुषोत्तम कडेल जी का काव्य -पाठ बहुत मधुर , सराहनीय प्रस्तुति
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