बाबूजी
रचना श्रीवास्तव
अमरईया की छाँव से
पूरब के एक गाँव से
सोन्धे शीतल बाबूजी,
जेठ में लूह की धार से
सावन की पड़ती फुहार से
नरम गरम बाबूजी,
दरवाजे पर लटके ताले से
आँगन में लगे जाल से
सुरक्षा की मजबूत कड़ी बाबूजी,
गीतों में लोक गीत से
सदियों से चली आ रही रीत से
कभी न बदले बाबूजी,
परीक्षा के प्रश्न पत्र से
विद्यालय के नए सत्र से
सदा डराते बाबूजी,
उबलते पानी पर रखे ढ़क्कन से
भाड़ में भुनते मकई के दानो से
बड़-बड़ करते बाबूजी,
गर्म तावे पर मक्खन से
मुट्ठी में बर्फ के टुकड़े से
पिघल जाते बाबूजी,
जर-जर पात से
अपनों की घात से
टूट गए बाबूजी,
बेटे की उपेक्षा से
बटवारे की समस्या से
बिखर गए बाबू जी,
वृद्धा आश्रम की गलियों में
गुजर गए बाबूजी ।
रचना श्रीवास्तव
केलिफोर्निया
यू.एस. ए.
मार्मिक कविता
जवाब देंहटाएंसुंदर बिम्बों से युक्त मार्मिक कविता
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण सृजन!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर बिम्ब। कविता ने दिल को छू लिया।
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी
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