बुधवार, 16 दिसंबर 2020

पुस्तक समीक्षा

 

‘मशालें फिर जलाने का समय है’ (ग़ज़ल-संग्रह) के बहाने

समीक्षक - डॉ. दयाशंकर त्रिपाठी


          ग़ज़ल का प्रचलित अर्थ है- स्त्रियों से बातें करना या प्रेम की बातें। लेकिन कई सदियों की विकास-यात्रा में ग़ज़ल की जमीन का निरंतर विस्तार और रूप-रंग में बदलाव होता रहा है। उसके समय और आबोहवा में भी परिवर्तन होते रहे हैं। अब वह किसी शाहंशाह के राजदरबार की कृपादृष्टि की मोहताज दासी नहीं, बल्कि लोकशाही की चौकन्नी पहरेदार है। अब वह प्रेम के शिकंजे में कैद छटपटाती-बिलखाती आवाज नहीं, बल्कि सभी भावों तक पहुँचने के लिए आजाद है। अब वह किसी तालाब का रूका और सड़ा पानी नहीं है, बल्कि सदानीरा नदी और झरना है। इसलिए उसमें प्रेम की बातों के लिए जगह तो है ही, बल्कि उससे अधिक दुनिया की तमाम जरूरी चीजों के लिए भी जगह है। दर्शन, राजनीति, प्रशासन, लोकव्यवहार, गाँव-शहर, प्रकृति, पर्यावरण, प्रदूषण सब उसके दायरे में हैं। सौदा, मीर, गालिब से आगे बढ़कर नज़ीर अकबरावादी ने ग़ज़ल को आमजनता के सुख-दुख, त्यौहार-उल्लास का साथी बना दिया था। फैज, अली सरदार जाफरी, कैफ़ी आज़मी, निदा फाजली, शहरयार आदि उसी नक्शे कदम पर ग़ज़ल को आम फहम बनाते हुए उसका विकास करते रहे। इन्होंने आधुनिक भावबोध के साथ ग़ज़ल का रिश्ता अवाम के साथ बहुत मजबूत किया।

          हिंदी ग़ज़ल आम हिन्दुस्तान की आबोहवा और खाद-मिट्टी के साथ विकसित हुई। लेकिन उसकी सांस्कृतिक आबोहवा कभी हिन्दी तो कभी हिन्दुस्तानी तो कभी उर्दू की पिछलग्गू रही है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, शमशेर और त्रिलोचन ने कमोवेश हिन्दी ग़ज़ल की जमीन तैयार की और दुष्यंत कुमार के हाथों में पहुँचकर वह एक हरी-भरी फसल के रूप में सामने आई। दुष्यंतकुमार ने मध्यवर्ग की हकीकतों और आम आदमी की जरूरतों और परेशानियों से हिंदी ग़ज़ल का रिश्ता बहुत मजबूत बनाया। उन्होंने ग़ज़ल को भाव-विचार के साथ कलाक्षम बनाया। अदम गोंडवी ने आम आदमी के भावबोध और जीवन को ग़ज़ल का केन्द्रीय विषय बनाकर उसे लोक प्रियता के व्यापक धरातल पर पहुँचा दिया और अब उसका चेहरा करीब-करीब गैररोमानी हो गया है। मसलन-

मुझमें रहते हैं करोड़ो लोग मैं चुप कैसे रहूँ।

            हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है। (दुष्यंतकुमार)

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

             मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है। (अदम गोंडवी)

          दुष्यंतकुमार और अदम गोंडवी के बाद के ग़ज़लकारों में कुछ तो उसके फार्म को लेकर विशुद्धाग्रही हैं, कुछ उदार और प्रयोगशील हैं, कुछ की आवाज बहुत संयमित, ठंडी है तो कुछ की आवाज बहुत ऊँची, जोशीली; बावजूद इसके सभी ने अपने अनुभव और सर्जन से ग़ज़ल की जमीन को कमोवश उर्वर और पुख्ता बनाया है। इन ग़ज़लकारों में ज़हीर कुरैशी, बल्ली सिहं चीमा, राजेश रेड्डी, सूर्यभानुगुप्त, नूरमुहम्मद नूर, ज्ञानप्रकाश विवेक, हरिजीत सिंह, रामकुमार कृषक, सुल्तान अहमद आदि के नाम लिए जा सकते हैं। वशिष्ठ अनूप हिन्दी ग़ज़ल की इसी समकालीन जानी-पहचानी जमात में शामिल हैं। वे जनवादी विचारों से खुलेआम ताल्लुक रखते हैं, इसलिए आम आदमी के प्रति उनकी आवाज अदमगोंडवी की तरह बहुत मुखर है। वे इसे बिना लाग-लपेट के स्वीकारते भी हैं कि-

 

·       कसीदे हुक्मरों की शान में पढ़ना नहीं संभव

नगीने ताज में अल्फाज के जड़ना नहीं संभव।

कला की साँस घुट जाती है महलों की नुमाइश में

बिना खेतों व जंगलों से मिले बढ़ना नहीं संभव।

·       शायरी वक्त की आवाज हुआ करती है

शायरी उसकी है जवान बेजवां हैं जो।

          वशिष्ठ अनूप समकालीन ग़ज़लकारों में बहुत लोकप्रिय स्वीकृत ग़ज़लकार है। अब तक उनके करीब दर्जनभर ग़ज़ल-संग्रह और ग़ज़ल-समीक्षा की किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। वैसे तो उनके एक-दो कविता और गीत के संग्रह भी हैं, लेकिन उनकी विशेष पहचान ग़ज़लकार के रूप में है। बंजारे नयन, रोशनी खतरे में है, रोशनी की कोंपले, अच्छा लगता है, मशालें फिर जलाने का समय है, तेरी आँखे बहुत बोलती है, इसलिए, बारूद के बिस्तर पर आदि उनके मुख्य ग़ज़ल संग्रह हैं। यदि यह कहा जाए कि अनूप जी ग़ज़ल के विस्तर पर उठते-बैठते, सोते-जागते हैं, गजल को ही ओढ़ते-बिछाते हैं तो इसमें किसी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं है।

          'मशालें फिर जलाने का समय है' वशिष्ठ अनूप का चर्चित ग़ज़ल-संग्रह है, जिसमें 101 ग़ज़लें संकलित हैं। उसकी भूमिका ‘नये समाज का ताना-बाना बुनती ग़ज़लें’ नाम से प्रसिद्ध मार्क्सवादी समीक्षक डॉ. शिवकुमार मिश्र ने लिखी है। हमारे युग की जो प्रतिनिधिक सच्चाई है, वह राजनीति, धर्म, समाज, सत्ता, अर्थ, मीडिया, चाहे जिससे संबद्ध हो, वशिष्ठ जी ने इन्हें ही अपने ग़ज़लों में बाँधने-ढ़ालने, पकड़ने की भरपूर कोशिश की है।

          इधर दो-तीन दशकों से हमारे देश के जो हालात हैं वशिष्ठ अनूप की गज़ले कमोवेश उन्हें अपना विषय बनाती हैं। मनुष्य के, हर दृष्टि से समर्थ एक तबके ने अपने से काफ़ी कमजोर दूसरे तबके के सामने अनेक तरह की ऐसी समस्याएँ खड़ी की है कि उनसे गुजरना उसकी मजबूरी है। ऐसा ही हताश-परेशान, संघर्षशील आदमी वशिष्ठ अनूप की ग़ज़लों का मुख्य विषय है। वशिष्ठ अनूप की ग़ज़लें बिना पेंदी के लोटे या उठल्लू चूल्हें की तरह नहीं है। उनके सामने अपने पक्ष का चुनाव जितना साफ़ है विपक्ष की पहचान भी उतनी ही साफ़ है। अपने पक्ष की ओर से उनकी आवाज कहीं काफ़ी ऊँची है तो कहीं मायूस भी है, लेकिन हर स्थिति में अनूप जी उन्हीं के साथ खड़े हैं। वे किसानों, मजदूरों, छोटे दुकानदारों, बुनकरों आदि के पक्षधर, प्रवक्ता हैं। उनकी ग़ज़लों में कभी-कभार मेहनतकश का अपना आत्मनिरीक्षण भी है। जैसे कि ‘किसी भी मोरचे पर हममें है लड़ने की कूबत मगर / हमें दिन रात रोटी की लड़ाई मार देती है।’ वे अपनी ग़ज़लों में प्रायः पक्षधर प्रवक्ता की भूमिका में रहते हैं और उनकी यह भूमिका तब पूरे रंग में सामने आती है जब प्रतिपक्षी के रूप में बहुरुपिया, घोटालेबाज सत्ता, प्रशासन, व्यापारी, नेता हों। यह वशिष्ठ जी का ऐसा प्रतिपक्ष है, जो किसी चोर, उचक्के, डाकू से कम नहीं है और जिनकी चारित्रिक नियति माफिया और अपराधी बनने में है। उसे खटकर जीनेवाले आम-आदमी के सुख-दुख से नहीं, बल्कि अपनी लूट की कमाई और ऐशोआराम की जिंदगी से मतलब है। दर असल आम आदमी की बुनियादी जरूरतें कुछ और हैं एवं सरकारी शाहजादों के खयाल कुछ और हैं। आम आदमी और सत्ताधारियों के बीच की गहरी खाई को अनूप जी अपने शेरों में यों पकड़ते हैं-

 

कभी जब बुनकरों की खेतिहरों की बात कहते हैं

वे हमसे बाहुबलियों, अफसरों की बात करते है।

जहाँ बिजली नहीं, कापी किताबें भी नहीं मिलती

हमारे रहनुमा कम्प्यूटरों की बात करते हैं।

उजड़ती झोंपड़ी की चीख सुनता है नहीं कोई

वे महलों-माफियाओं-बिल्डरों की बात करते हैं।

मेरे बाजार के परचूरनवाले हैं परेशान सब

मगर वे तो बड़े सौदागरों की बात करते हैं।

वे यदा-कदा अपने शेरों में पहल भी करते हैं कि-

ये मशालें जलाने के दिन हैं, आइए हम पहल भी करते हैं’

          वैसे तो हमारे देश की सरकार लोकतंत्रात्मक है, लेकिन उसका चरित्र, कर्म सब बदल गया है। सत्ता की सारी कोशिश आम व्यक्ति को जरूरी सवालों से भटकाने, दीगर सवालों में उलझाने की होती है। मौजूदा लोकतंत्र में जाँचने-परखने का पैमाना इतना खोटा है कि उस पर खोटा व्यक्ति ही खरा सिद्ध होता है। वशिष्ठ जी अच्छी तरह जानते हैं कि- ‘‘बेवजह कोई मुद्दा उछाला गया / फिर जरूरी सवालों के टाला गया।। जिंदगी भर वे सीधे नहीं चल सके / इस कदर बोझ कंधों पर डाला गया’’ कभी वशिष्ठ जी बड़े जोश के साथ ऊँची आवाज में सरकार को सुनाने के मूड में आ जाते हैं कि ‘भरे गोदाम तेरे सड़ गये लाखों मरे भूखे / अगर तुमको नहीं लिखता तो किस को बेहयां लिखता / तुम्हारी स्वर्णनगरी है दशानन तुमको लिखता हूँ / अगर यह मैं नहीं लिखता तो कोई दूसरा लिखता।।’

          वशिष्ठ अनूप चूँकि जनपक्षधर ग़ज़लकार है। इसलिए उनकी ग़ज़लों में ऐसे अनेक शेर मिलते हैं जिनका प्रयोजन कहीं जन-शिक्षण है, कही जन-जागरण है, कहीं जनता को आगह करना है तो कहीं आह्वान करना भी है और कभी-कभार इस धुन में धन-दौलत और महल-गाड़ियाँ वाले आधुनिक धनपशुओं को भी वे लपेट लेते हैं। लोक शिक्षण के अनेक रूप उनकी ग़ज़ल के तरकश में है। आप भी कुछ नमूने देखिए-

- जिसे तहजीब कहते हैं वो आते-आते आती है

फकत दौलत के बलबूते रवादारी नहीं आती।

हजारों महल बनवा लो, बहुत सी गाड़ियाँ ले लो

अगर किरदार बौना है तो खुद्दारी नहीं आती।

- भेड़ियों की फौज हमलावर हुई है

जब अंधेरा सिर चढ़े तो सजग रहना।

- जो लड़ना है तो आगे बढ़कर तुम जालिम से टकराओ

यूँ हीं दीवारों से टकराने से तो सर टूट जाता है।

- हैं हजारों मुश्किले पर आओ कुछ ऐसा करें

सबकें होठों पर तनिक-सा हास तो कायम रहे।

लोकशिक्षण से गुजरते हुए वे सहज सदिच्छा की ओर चले जाते हैं। मसलन-

- जहाँ पर बेरुखी है द्वेष है, हिंसा है नफरत है

वहाँ पर प्यार के सरगम बिखर जाते तो अच्छा है।

- प्यार मन के लिए जरूरी है, मगर

पेट के वास्ते रोटियाँ चाहिए।

          आधुनिक सभ्यता का विकास प्रकृति पर विजय के अहंकार, प्राकृतिक प्रदूषण और प्रकृति के निरंतर विनाश की भावना पर हुआ है। इसके परिणाम स्वरूप सारी कायनात, धरती-आकाश, समंदर सब दांव पर लगे हैं। पशु-पक्षी क्या (मनुष्य को छोड़कर), सभी प्रजातियों का अस्तित्व धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है। पेड़-पौधों की अखमूँद कटाई और खनिज खनन से धरती का संतुलन सतत बिगड़ रहा है। जल, वायु, धरती, आकाश, हवा आदि से संबंधित प्रदूषण लगातार बढ़ रहे हैं। सुबह हो या रात, सबने अपनी प्राकृतिक सुंदरता खो दी है। वशिष्ठ अनूप अपनी ग़ज़लों में इन हालातों से काफ़ी परेशान दिखते हैं-

- है ये कैसी सुबह दीख पड़ता न कुछ

धुंध में ऐसा लिपटा सबेरा न था।

- हमारी ज़िंदगी हम को ये किस संसार में लाई

जहाँ मुद्दत से हमने चाँद और तारा नहीं देखा।

- बात कोयल की क्या, कौए भी अब नहीं दिखते

फिक्र बुलबुल की है बैठेगी, कहाँ गायेगी।

          इस प्रकार की परेशानी उन कवियों और शायरों को ज्यादा है जिनका जन्म गाँवों में हुआ है और ऊँची पढ़ाई-लिखाई और बेहतर रोजी-रोटी के लिए शहरों में बसना उनकी मजबूरी बन गई है। इसके चलते अपने-अपने गाँव और वहाँ की हर चीजों के प्रति आकर्षण, लगाव नास्ट्रेलेजिया की हद तक बना हुआ है। इन शायरों को अपना शहरी जीवन रास नहीं आता, इसलिए उन्हें अपने गाँव की गलियां, पेड़-पौधे, फसलें, घरेलू पशु-पक्षी, मौसम, त्यौहार सब बारी-बारी से याद आते रहते है। वशिष्ठ अनूप भी अपनी गंवई प्राकृतिक-सांस्कृतिक स्मृतियों से लैस शायर है। मसलन कुछ शेर आपके सामने हैं-

- हमें सीवान से पहचान कर बाँहें बढ़ाता है

हमारा गाँव हमको देखते ही खिल खिलाता है।

- जो बचपन का घर खण्डहर हो गया है

वो ख्वाबों में अब भी रिझाता है मुझको।

          सहज गंवई चेतना की एक खास पहचान है कि वह आस-पास की हर आत्मीय वस्तु, वह जड़ हो या चेतन, उससे पारिवारिक संबंध जोड़ लेती है। वह अपने पालतू पशु-पक्षियों, यहाँ तक कि फल-फूल वाले पेड़-पौधों के नाम परिवार के सदस्यों की तरह रखती है। यही कारण है बया का जोड़ा जब अपने बच्चों के लिए घोसला बनाता है तो माँ-बापू की याद आ जाती है और बूढ़ा पेड़ दादा की याद दिलाता है।

- कभी अम्मा नजर आती, कभी दिखते हैं बाबूजी

बया का कोई जोड़ा घोंसला जब भी बनाता है।

- ओ बूढ़ा पेड़ जिसकी डालियाँ झूला झुलाती थी।

बहुत कमजोर है लेकिन मुझे अब भी बुलाता है।

          माता-पिता, दादा-दादी, भाई-भाभी, बेटा-बेटी, भतीजा-भतीजी आदि जितने पारिवारिक रिश्ते हैं उन्हें बहुत प्यारे लगते हैं। उन्हें लगता है कि जिसके घर में बड़े-बूढ़े हों उसे मंदिर जाने की कोई जरूरत नहीं है। समय के साथ पारिवारिक रिश्तों का तेजी से विघटन हुआ है। शहरीकरण ने पारिवारिक-विघटन जैसे सामाजिक प्रदूषण को इस तरह फैलाया है सिर्फ धन-दौलत नहीं, बल्कि माँ-बाप का बँटवारा होने लगा है। वशिष्ठ अनूप का ध्यान पारिवारिक मूल्यों के विघटन की ओर भी गया है। बावजूद इसके स्मृतियों के माध्यम से अनूप जी अपने गाँव, घर, मुहल्ले में वापसी करते हैं। यहाँ तक कि उन्होंने जिस गोरखपुर में रहकर उच्च शिक्षा ग्रहण की है उस गोरखपुर को उसकी सांस्कृतिक-साहित्यिक विरासत को गोरखनाथ, कबीर, प्रेमचंद फिराक गोरखपुरी के माध्यम से याद करते है। इसके साथ मित्रों की स्मृतियों को पुनर्जीवित कर वे जीवन का स्वाद बढ़ा देते है। इस प्रीत के कारण ही उनमें पंच भौतिक की सलामती को लेकर यह सदिच्छा है कि-

ये नदी, पहाड़, जंगल ये धरा रहे सलामत

गर हो सके यहाँ पर जन्नत उतार लेना।

          वशिष्ठ अनूप ने अपनी ग़ज़लों की वस्तु का विस्तार करते हुए जनवाद के चक्कर में उनकी पारंपरिक जमीन यानि प्रेम का दामन नहीं छोड़ा है। प्रेम के सिलसिले में उनकी ग़ज़लें बहुत उर्वर,  रोमांटिक (स्वच्छंद और कल्पनाशील) हैं। प्रेम और सौंदर्य को लेकर उनकी ग़ज़लों की काफ़ी समृद्ध और ऊर्जावान दुनिया है। अपने प्रिय से कुछ पलों की मुलाकात से उनका सब कुछ बदल जाता है। देखिए-

- कुछ पलों की मुलाकात अच्छी लगी

जो कही जो सुनी बात अच्छी लगी।

दिन तो अच्छे लगे मुस्कारते हुए

गुनगुनाती हुई रात अच्छी लगी।

सोच पाता नहीं इसको क्या नाम दूँ

भावनाओं की सौगात अच्छी लगी।

          वशिष्ठ जी के इस स्वच्छंद प्रेम में ‘रंक के साथ जग का खजाना लगा’ का अहोभाव पूर्ण एहसास तो है ही, इसके साथ-साथ सुफियाना उमंग की तासीर भी उसमें है। इस बात का अदांज़ा आप उनके इन चंद शेरों से लगा सकते हैं-

- नजर आने लगा हर रूप में बस एक चेहरा

तुम्हीं को हर जगह पाया, जहाँ पहुँचा जहाँ देखा।

किताबों-कापियों में झील-सी आँखें उभर आयीं

गुलाबों को अगर देखा तो मैं भी मुस्कुरा बैठा।

सवारी बादलों पर की गया आकाश-गंगा तक

सितारों ने जो सुर छेड़ा तो मैं भी गुनगुना बैठा।

          अनूप जी का प्रेम स्वच्छ और उर्वर कल्पना से सम्पन्न होने के कारण जमीनी तौर पर वायवीय नहीं, शरीरी है। वह ठौस सौंदर्य से जुड़ा है। वे अपने सौंदर्य निरूपण में उर्दू और संस्कृत दोनों परंपराओं का रंग सहज रूप से मिला लेते हैं। अपने प्रिय को महरुख, गुलबदन के साथ मृगी और हस्तिनी कहने में उन्हें कोई एतराज नहीं है।

          आधुनिक जनसंचार- टी.वी., कम्प्यूटर, मोबाइल आदि ने दुनिया की गति बहुत बढ़ा दी है और देशों को बहुत पास भी ला दिया है। इन्होंने तो हमारे सामाजिक-नैतिक मूल्यों की धज्जियाँ उड़ाकर रख दी है। भूमंडलीकरण और जनसंचार की आभासी दुनिया ने सभी चीजों को इतना व्यावसायिक बना दिया है कि व्यक्तित्व, समझदारी, लज्जा-शर्म, नैतिकता, पक्षधरता, आदर्श जैसी बातों का कोई अर्थ नहीं रह गया है। वशिष्ठ अनूप ने अपनी ग़ज़लों में सही लक्ष्य किया है कि मीडिया बिना पेंदी का लोटा हो गई है। इसीलिए उसमें सब कुछ आभासी रूप में दिखाई और बिकाऊ है। कुछ नमूने देखिए-

पत्रकार - बाहर से उठ रहे हैं, कहीं से ठह रहे हैं आप

यह कौन-सी धारा है जिसमें बह रहे हैं आप।

विद्वान - जो किसी निष्कर्ष पर पहुँचे न पहुँचेंगे कभी

बिक चुके विद्धतजनों का शब्द मंथन देखिए।

योगी- टेलीविजन खोलकर चेहरा सुदर्शन देखिए

और ढोंगी योगियों के सच चिरंतन देखिए।

बाबा - वह उधऱ बाबा का बाल संग नर्तन देखिए

और माथे पर दमकता लाल चंदन देखिए।

सुंदरियां - शर्म और संकोच को तो ढूँढ़ते रह जायेंगे।

पेंट पालिश जिस्म का नंगा प्रदर्शन देखिए।

          वशिष्ठ अनूप की ग़ज़लों की संरचना काफ़ी साफ़-सुथरी और सरल है। सामान्यतः संरचनागत जटिलता और अर्थ की दुरूहता से उनकी ग़ज़लें बरी इसलिए है कि उन्हें सामासिक पदों से कतई मोह नहीं है। उनमें अच्छी रवानगी है। दुष्यन्त कुमार के बाद अदम गोंडवी से लेकर अब तक हिन्दी ग़ज़ल सामान्यतया सरलीकरण की राह पर चलती रही है और अर्थ की दृष्टि से भी वह प्रायः इकहरेपन का शिकार रही है। आज की हिन्दी ग़ज़ल भाषा और भाव समाहर की शक्ति को त्यागकर आम फहम, लोकतांत्रिक बन गई है। भावों की सघनता, गंभीरता, भाषा की चुस्ती और औदात्य आदि उससे दूर जा पड़े हैं। कठोर साधना के ज़रिए ग़ज़ल का लोकतंत्रीकरण अच्छी बात है, लेकिन हुआ उलटा है। साधना के अभाव और जल्दी से जल्दी शोहरत हासिल करने के मंसूबे का परिणाम हुआ यह है कि मुशायरों, कवि सम्मेलनों, पत्र-पत्रिकाओं, सोशल मीडिया पर लोकलुभावन ग़ज़लकारों की पलटन खड़ी हो गई है और ग़ज़ल के स्तर को उन्होंने काफ़ी गिरा दिया है। दूसरी बात, इधर की ग़ज़लों में सरंचना के स्तर पर सरलीकरण का कारण रूढ़, विरोधी युग्म प्रतीकों और संकेतों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करना है। आम पाठक को भी इसे समझने में आसानी होती है। वह जानता है कि यदि ग़ज़ल में अंधेरे का प्रयोग है तो उसके बरक्स, दीपक, चिनगारी, या मशाल या धूप, सूरज में से कोई आयेगा। इस प्रकार अमृत है तो विष, झोपड़ी है तो महल, साँप है तो नेवला या मोर, कंस है तो कृष्ण, रावण है तो राम का आना सहज है। हिन्दी की समकालीन ग़ज़लें उक्त जिस कमजोरी का शिकार हैं, वशिष्ठ अनूप की ग़ज़लें भी कमोवेश उसी कमजोरी की शिकार हैं। तीसरी बात सभी ग़ज़लकारों के सामने समस्याएँ एक जैसी हैं तो प्रस्तुति का ढ़ंग भले थोड़ा भिन्न हो, लेकिन एक जैसे ब्यौरों की भरमार हो गई है।

          वशिष्ठ अनूप एक प्रयोगशील जनवादी ग़ज़लकार हैं। पुरानी तर्ज पर ग़ज़लें कहने का हुनर उनके पास तो है ही, नयी आबोहवा की नयी तर्ज पर ग़ज़लें रचने में भी वे माहिर हैं। चूँकि अनूप जी जनपक्षधर ग़ज़लकारों में काफ़ी लोकप्रिय हस्ताक्षर हैं, अतः उनकी ज्यादातर गज़ले उसी सुर- ताल पर रची गई हैं। मसलन-

मशालें फिर जलाने का समय है

अंधेरा और हमलावर हुआ है।

लोकतंत्र के नाम पर जब तक है कायम तानाशाही

तब तक इंकलाब के नारे और तराने लिखना है।

          वशिष्ठ जी नये संदर्भ और प्रसंग के अनुरूप नई शब्दावली में गज़ले रचते हैं। ‘इन्हें एसी के भीतर मत बिठाओ / तपेगे शब्द तो कुंदन बनेंगे’ और कभी-कभी वे नये शब्दों के मोह में तुक मिलाने के चक्कर में पड़कर सेन्सेक्सचर्चा, इन्डेक्सचर्चा, सेक्सचर्चा तक चले जाते हैं। ऐसी ग़ज़लें प्रयोग की दृष्टि से अखबारी कतरन-सी जान पड़ती है। यहाँ-वहाँ उनकी ग़ज़लों में भरपाई के शेर तो हैं ही, साथ ही साथ कहीं-कहीं ऐसी गद्यात्मकता का दबाव है कि मानों किसी ग़ज़ल का शेर नहीं, बल्कि निरा गद्य आप पढ़ रहे हैं। ‘भूमण्डलीकरण व विश्वग्राम जैसे शब्द / सोने के चमकते खंजर की तरह है।’ आदि इसी प्रकार का शेर हैं। कभी-कभी वशिष्ठ जी पौराणिक-अर्द्ध ऐतिहासिक पात्रों का प्रतीक, अलंकार, रूपक के रूप में ग़ज़लों में अच्छा, आधुनिक अर्थ वाहक के तौर पर उपयोग करते हैं। कंस-कृष्ण, राधा-कृष्ण, रावण, मरीच, शकुनी, स्वर्ण हिरण आदि को वे बिल्कुल आधुनिक संदर्भ में अपने ग़ज़लों में पुनर्जीवित करते हैं। कहीं-कहीं उनका नया शब्द विधान-अंगार का लहजा, पेंट पालिश जिस्म- आदि उनकी ग़ज़लों के शेर को अर्थव्यंजक बना देता है।

          वशिष्ठ अनूप की ग़ज़लों की बनावट में एक रसता नहीं, बल्कि विविधता है। कुछ ग़ज़लों के प्रत्येक शेर स्वतंत्र और अर्थ की दृष्टि से पूर्ण हैं। सिर्फ टेक (हर शेर का अन्तिम तुकांत हिस्सा) उसे ग़ज़ल से बाँधे रखता है। उनकी कुछ गज़ले ऐसी हैं जिनके सारे शेर ग़ज़ल के एक केन्द्रीय भाव या विचार से बँधे होते है। इनकी बाहरी प्रकृति ग़ज़ल की और भीतरी प्रकृति गीत जैसी होती है। ‘मशालें जलाने का फिर समय है’ की संख्या में कम, लेकिन कुछ गज़ले ऐसी है जिनके दो-तीन शेर एक भाव या विचार से बँधे होते है, शेष स्वतंत्र होते हैं। अनूप की ग़ज़लों में शेरों की संख्या 3 से लेकर 6 तक है, इसलिए उनकी ग़ज़लें उबाऊ नहीं है। वशिष्ठ अनूप अपनी ग़ज़लों को इस खामी से बचाकर लोक स्वीकृत बना सके हैं।



ग़ज़ल संग्रह : मशालें फिर जलाने का समय है,  ग़ज़लकार : वशिष्ठ अनूप, मूल्य : 200/-, प्रथम संस्करण : 2013, प्रकाशक : राजसूर्य प्रकाशन, बी -33/2233, पहला पुस्ता, सोनिया विहार, दिल्ली -110094 


 

डॉ. दयाशंकर त्रिपाठी

प्रो. एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर (गुजरात)

         


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