उजाला
दीपावली की
शाम रामधनी बाबू दरवाजे पर बैठ पड़ोस के बच्चों को खुशियाँ मनाते देख कहीं खोए से
जा रहे थे। अपने एकलौते बेटे वीरेंद्र का बचपन, उस
समय की दिवाली, पूरे परिवार की मौज-मस्ती और आज! ये लगातार
दूसरी बार हुआ जब उसने कैरियर का नाम लेकर घर आने से मना कर दिया। अरे ऐसी भी क्या
कमाई करनी कि पर्व-त्योहार तक छूट जाएँ! बहू आती, पोते-पोतियाँ
आ जाते तो रौनक होती। बचे ही कितने साल होंगे अब इनसब चीजों को देखने के? मन लगातार उद्विग्न हो रहा था। पत्नी सरला लावा-फरही, बुँदिया सब थाली में परोस के रख गयी लेकिन कुछ का जी नहीं कर रहा था कि
तभी पास से झगड़े की आवाज सुन वहाँ जाना पड़ गया। कुछ लड़के एक गरीब जैसे दिखने
वाले बच्चे को मार रहे थे।
“अरे क्या
हुआ?
क्यों झगड़ रहे हो बेटा?” उनमें मौजूद एक
परिचित किशोर से पूछा
“देखिए न
दादाजी,
तब से हमारे पटाखे उठा-उठा के रख ले रहा।”
“क्यों जी?
कहाँ के रहने वाले हो?” - उन्होंने बच्चे से
पूछा।
“पास की
बस्ती में रहते हैं साहब, पटाखे चुरा नहीं रहे
थे, जो ठीक से जल न पाते बस उनको ले रहे थे कि घर जाकर फिर
से जलाने की कोशिश करेंगे” बोलते-बोलते वह रो पड़ा।
रामधनी बाबू
ने कुछ क्षण सोचा फिर सीधे अपने घर में रखे पोते-पोतियों के लिए लाकर रखे पटाखों
के डब्बे उठा कर उस बच्चे को पकड़ा दिए।
“जाकर चलाओ
और हाँ,
किसी के पटाखे इस तरह से मत उठाना दुबारा।”
वह उन्हें
लेकर आँसू पोंछते हुए मुस्कुरा अपनी बस्ती की ओर दौड़ गया। रामधनी बाबू के मन में
भी वापस उजाला होने लगा था।
कुमार गौरव
अजीतेन्दु
दानापुर (कैन्ट), पटना
👌👌
जवाब देंहटाएंNice and beautiful message...☺ 👍
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसुन्दर , संदेशात्मक लघुकथा के लिये बधाई।
जवाब देंहटाएं