कबीरा खड़ा बाज़ार में.........
“कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाटी
हाथ ।
जो घर जालें आपणों चले हमारे साथ ।।”
उक्त दोहे में तीन बातें कही गयीं हैं
: (१) कबीरा बाज़ार में खड़ा है, (२) उसके हाथों में कोई जलाने वाली वस्तु है और (३) वह कह
रहा है कि जो पहले अपना घर फूँक मारे वह हमारे साथ चलें । यहाँ हमें एक चुटकुले का
स्मरण हो जाता है एक बार चाँदनी रात में तीन व्यक्ति घूम रहे थे - एक अन्धा,
एक बहरा और एक नंग-धडंग ।
अन्धा कह रहा था :
“अहाहा ! कितनी सुन्दर चाँदनी है और चन्द्रमा के
अन्दर वह बुढ़िया बैठी हुई कैसी कांत रही है !”
बहरे ने कहा :
“अरे! मुझे तो उसके चरखे की ‘घर घर घर’ आवाज भी सुनाई पड़ती है !!”
नंग-धडंग बोल उठा :
“अरे ! अपन तो बहुत दूर निकल आये । चलो, चलो कोई लूट लेगा!!!”
इस चुटकुले के हास्य का मुख्य आधार
उसमें निहित विरोध है। जो नागाबाबा है उसे लूटने का क्या भय ? किन्तु अन्यथा प्रायः
ऐसे ही लोग दूसरों को लूटने के भय से मुक्त होने की सीख देते हैं । क्योंकि वे
चाहते है कि दूसरे भी अपना लुट-लुटाकर उनकी जमात में शामिल हो जाय । रंडुआ रंडुए को देखकर कदाचित इसीलिए
उछलता है एक लोक कथा में किसी ठग द्वारा सात भाइयों को रंडुआ बनाने की बात कही गयी
है । ठग एक छड़ी देता है और कहता है कि यह जादुई छड़ी है । किसी मृत व्यक्ति पर
घुमायी जाय तो उससे मृत व्यक्ति भी जिन्दा हो जाता है । इस जादुई लकड़ी को लेकर वे
अपने घर जाते हैं । सबसे बड़ा भाई इसका प्रयोग पत्नी पर करता है । पत्नी को मारकर उस पर छड़ी घुमाता है, पर वह जीवित नहीं होती । वह सोचता है मेरी पत्नी तो मर गयी । मैं तो रंडुआ
हो गया। अब यदि मैं दूसरों को जाकर सही हकीकत से वाकिफ़ करूँगा तो उनकी पत्नियां
तो बच जाएँगी । बने तो सभी रंडुए बने, मैं अकेला क्यों?
और उसने जाकर जादुई छड़ी की खूब तारीफ़ की । उसी प्रकार दूसरे,
तीसरे आदि सभी ने किया और अन्त में सातों बैठकर रोने लगे । अब आपको
कबीरा का रहस्य समझ में आया होगा !
प्राय: उन्हीं लोगों से फनागिरी की और
लुटा देने की बातें सुनायी पड़ती है जो जेब के फकीर होते हैं । कवि लोग अपनी
महबूबा पर सारी खुदायी लुटा देने की बात करते हैं । करें, उनके बाप का क्या जाता
है ? पर लाख -दो लाख होने पर हजार-दो हजार लुटावें तो जाने ।
जब कुछ भी नहीं है तब तो कुछ भी लुटाया जा सकता है ।
पर ऊपरवाले दोहे में एक ‘की वर्ड’ है जिसकी ओर प्रायः
लोगों का ध्यान नहीं जाता है वह ‘की वर्ड’ है ‘बाज़ार में’ । कबीरा बाज़ार में खड़ा है,
अपने घर में नहीं है । तभी तो ऐसा कह रहा है। ऐसा कबीरा आपको भारतवर्ष
के प्रत्येक कोने में और प्रत्येक क्षेत्र में मिल जायगा ।
“यह मोह-माया के लन्द-फन्द छोड़ो!”
“माया बुरी बलाय!”
“रूपया तो हाथ का मैल है!”
“जो इस माया के चक्कर में पड़ा,
समझो गया काम से!”
और आप देखेंगे कि ऐसा कहनेवाले
त्यागीजी महाराज अपनी शवरलेट गाड़ी में बैठकर मन्दिर के एयर कण्डिशन कमरे में
साधना के लिए चले जाएँगे !
हम एक शिक्षा-शास्त्री महोदय को जानते हैं
। उनका यह अभिमत है कि सच्ची शिक्षा तो मातृभाषा में ही सम्भव है । इस पर उनकी
दर्जनों पुस्तकें हैं । हजारों व्याख्यान दिए हैं । शिक्षा - जगत में मातृभाषा की स्थापना
के लिए तो वे विदेश के दौरे भी कर आये हैं ! पर सुना है उनके बेटे पहले मसूरी और
अब स्टेट्स में पढ़ रहे हैं । यह स्टेट्स भी हमारे यहाँ ‘स्टेटस सिम्बल’ बनता जा
रहा है । वहाँ का गधा भी हमारे लिए पूजनीय होता है !
हमारे एक सर थे पढ़ाते-पढ़ाते वे
अनायास भ्रष्टाचार पर उतर आते थे । अप्रामाणिकता, भ्रष्टाचार एवं मूल्यहीनता आदि के
कारण वे बेचारे बहुत पीड़ित रहते थे । और उसी पीड़ा में ही निरन्तर फूलते जाते थे । यह तो बहुत बाद में पता चला कि हमारे
उस सर ने कॉलेज के दूसरे बहुत से सरों को गाँठकर एक ट्रेड यूनियन जैसा बना दिया था
। जिसमें कायदे से हर बात के ‘रेट’ प्रामाणिकतापूर्वक तय कर दिए गए थे । पास के
कितने ? सैकण्ड डिविजन के कितने ? फर्स्ट
डिविजन के कितने ? इन्टर्नल के कितने ? आदि आदि । बड़े-बड़े लोगों तक उनकी पहुँच थी । हर एक बड़े आदमी का दर्द और दवा
वे जानते थे और तदनुरूप प्रामाणिकतापूर्वक वे कर्मयोग में लीन हो जाया करते थे !
गुजराती के प्रसिद्ध हास्यलेखक ज्योतिन्द्र
ह. दवे की एक पत्रात्मक कहानी में एक लड़की किसी समाजसेविका को पत्र लिखती है कि
मध्यवर्गीय प्रेमी एवं उद्योगपति के बीच पति के लिए किसको चुनना चाहिए ? समाज सेविका उद्योगपति
का सम्पूर्ण बायो-डेटा मँगवाती है । और तत्पश्चात् उसे सीख देती है कि जीवन में
सच्चे प्रेम का ही अधिक महत्व है । प्रेम जैसी महान एवं उदात्त वस्तु के सामने
रूपया-पैसा का सुख तो नगण्य है । फलतः लड़की उस मध्यवर्गीय युवक से विवाह कर लेती
है । कुछ वर्षों बाद समाज सेविका का एक पत्र उस लड़की पर आता है जिसमें पत्र के नीचे
किए गए हस्ताक्षर से रहस्य-स्फोट होता है कि उस समाज सेविका ने ही बाद में उसी
उद्योगपति से विवाह कर लिया था !
हमारे यहाँ धार्मिक व्याख्यानों में
अरबों बार यह कहा गया है कि नारी ही महा अविद्या है। वही सारे विकार का मूल है ।
उसकी छाया मात्र से भुजंग तक अन्धा हो जाता है । पर-स्त्री मात समान है, आदि आदि । हमें स्मरण
है हमारे यहाँ एक बार किसी सम्प्रदाय के एक बहुत बड़े आचार्य आए थे वे बेचारे
पुरूषों को सामूहिक दर्शन देते थे और स्त्रियों को व्यक्तिगत क्योंकि ‘माताओं को’
(नो डाउट दूसरों की ) किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिए । यहाँ
बरबस बिहारी का वह दोहा स्मृति में कौंध जाता है :
“परतिय दोस परातन सुनि, लखि मुलकि सुखदानि ।
कस करि राखी मिस्र हू, मुँह आई मुसकानि ।।”
(कथा सुनानेवाले मिश्रजी को पुराण की कथा में परस्त्रीगमन के दोष बताते हुए
सुनकर उनको सुख देनेवाली परकीया नायिका ने मुस्कुराकर उनकी और देखा । उसे
मस्कुराते देखकर मिश्रजी के मुँह पर भी मुस्कान आने को हुई पर उन्होंने यत्नपूर्वक
उसे दबाकर रखा।)
तो साहब यह सब कबीरा के अलग अलग रूप
हैं । इन सब उदाहरणों में एक बात सामान्य है कि कबीरा की यह सारी बात दूसरों के
लिए है । इसलिए तो वह बाज़ार में खड़ा है । यहाँ एक बात और ध्यातव्य है कि कबीरा ने
दूसरों के घर जलाने का साधन भी अपने हाथ में रखा है। हर एक ज़माने में कबीरा का रूप
अलग-अलग होता है । पिछले कुछ दशकों में इस कबीरा को मार्क्सवादी के नाम से भी कुछ
लोगों ने जाना है । अब मुझे पता चला कि एक ज़माने में मेरे गाँव के लोग अपने बच्चों
को मेरी सोहबत से दूर क्यों रखते थे । क्योंकि मैं उनके लिए कबीरा था । उनके बच्चों
को पढ़ने का रोग लगाता था। आधुनिक भारत में पढ़-लिखकर किसका भला हुआ है ? कक्षा में अव्वल आने
के लिए कीलो खून जलाने वाले जिनियस चार-पाँच सौ में नौकरी कर रहे हैं और उधर गोपूसिंह
का नत्थू जो हमेशा प्रमोशन पर पिताजी की एल. जी. वी. जी. से पास होता था मिनिस्टर
बना हुआ मौज कर रहा है ! पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी ‘हाँजी-नाजी’ के अलावा बन क्या सकता
है ?
“एक थे हाँ-हाँ, एक थे नहीं-नहीं ।
हाँ-हाँ की गरदन हिली ऊपर नीचे
नहीं नहीं की दाएँ-बाएँ !”
तो साहब ऐसे रंगनाथ बनने से भी क्या फायदा ? आप इसे भी किसी कबीरा का कथन समझ सकते हैं क्योंकि मैं भी अपने बच्चों को कानवेण्ट में पढ़ाने की सोच रहा हूँ ।
प्रोफ़ेसर (डॉ.) पारूकांत देसाई
"शब्दांचल", बी -130 /131
योगीनगर टाउनशिप,
अम्बिका नगर के पास, गोत्री
वड़ोदरा (गुजरात) -390021
बहुत ही अच्छा सर
जवाब देंहटाएंसामयिक , सटीक व्यंग्य
जवाब देंहटाएं'कबीरा खड़ा बाजार में ...' प्रोफेसर देसाई जी की यह व्यंग्य रचना निश्चित रूप से सराहनीय है । इसमें जादुई छड़ी की घटना मनोरंजक तो है ही साथ ही साथ चिंतनीय भी है क्योंकि मानव बृत्ति भी कुछ इस तरह की ही होती है। 'कबीरा खड़ा बाजार में ...' दोहे का ' कीवर्ड ' अच्छा लगा । प्रोफेसर देसाई एक कुशल रचनाकार हैं, व्यंग्यकार हैं , कवि हैं । मैंने उनकी अन्य व्यंग्य रचनाओं को भी पढा है उनके व्यंग्य सटीक, बिहारी के दोहे की तरह होते हैं।
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डॉ माया प्रकाश पांडे, हिंदी विभाग, कला संकाय, महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बडौदा , गुजरात